यश और अपयश विचार एवं भावनाओं को किसी वाहन की आवश्यकता नहीं पड़ती। इनके अपने स्वयं के पंख होते हैं जिनके सहारे ये वायु में तैरते हुये वन, पर्वत, समुद्र एवं मरुस्थलों को पार करते हुये देश देशान्तर में भ्रमण किया करते हैं और अपने अनुरूप हृदयों में उतरकर अपना नीड़ बना लेते हैं।
किसी एक देश के निवासी किसी दूसरे देश की दशा एवं परिस्थिति का समाचार पाकर अपनी वृत्तियों के अनुरूप अर्थपूर्ण योजनायें बनाते और कल्पना किया करते हैं। आसुरी प्रवृत्ति के प्राणी किसी दूसरे विपन्न अथवा सम्पन्न मानवों से अपना स्वार्थ सिद्ध करने के विविध ढंग निकाल लेते हैं। विपन्नों से विषय में वे समझते हैं कि गरीब तथा परेशान व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन ठीक नहीं होता, उनकी बुद्धि भ्रमित एवं आत्मा कमजोर होती है। उनको हर प्रकार से डराकर, धमका कर अथवा धोखा देकर अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सकता है, उनका शोषण किया जा सकता है। और इस प्रकार विपन्नता के अभिशाप से अकुशल एवं अचतुर प्राणियों को आसुरी प्रवृत्ति के भोगवादी व्यक्ति ठग-ठग कर अपना स्वार्थ सिद्ध किया करते हैं, उनकी मनबूरी का बेजा फायदा उठाते हैं।
दैवी प्रवृत्तियों से अलंकृत प्राणियों के सोचने का ढंग दूसरा ही होता है। उनकी कल्पना का देवरथ करुणा, ममता, सहानुभूति, सेवा और सौहार्द की सम्पत्ति लिये हुये उधर ही जाता है जहाँ से विपन्न मानवता के कराहने की आवाज आती होती है। दैवी सम्पदा के सरदारों के हाथ में मक्कारी, ठगी, वंचकता अथवा अत्याचारिता के शस्त्र नहीं होते। वे तो मनुष्यता के स्वरों में आलाप भरते हुये प्रेम की बाँसुरी लिये हुये ही तन, मन, धन से पीड़ित मनुष्यों की सेवा का अवसर खोजा करते हैं। शोषण की घात नहीं लगाते।
इस लम्बे चौड़े संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक आसुरी तथा दैवी प्रवृत्तियों का प्रसार फैला हुआ है। क्या देश,क्या विदेश और क्या उपनिवेश कोई भी इन प्रतिद्वन्द्वी प्रवृत्तियों का ठेकेदार नहीं है। सबमें समान रूप से उभय वृत्तियाँ काम कर रही हैं। अपनी रचना इस सृष्टि में विधाता ने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार किसी विभाग जन प्राचीर का निर्माण नहीं किया है। सभी देशों में आसुरी और सभी देशों में दैवी प्रवृत्ति के प्राणी जन्म लेते और अपने कर्मों द्वारा अपना स्वरूप प्रकट करते हुये सुख दुःख भोगा करते हैं। महानता एवं मानवता का गुण न तो किसी के लिये सुरक्षित है न किसी के लिये प्रतिबन्धित है। जो चाहे अपने शुभेच्छाओं से उन्हें प्राप्त कर सकता है।
हजारों योजनों दूर समुद्रों के पार कहाँ न्यूजीलैण्ड और कहाँ भारत। किन्तु यहाँ के विपन्नता पूर्ण समाचारों ने हजारों काफी हादसों में से कसी एक में बैठी हुई कुमारी डायना बालेमी को प्रभावित कर दिया। विदेशों में लाखों करोड़ों लोग नित्य ही समाचार पढ़ते रहते हैं किन्तु सभी तटस्थ तथा उदासीन ही रहते हैं। न कोई प्रभावित होता है और न ध्यान देता है। किसी को किसी की दीनता, दरिद्रता अथवा दयनीयता से क्या मतलब? मानवता के इन त्रासों से सम्बन्ध होता है उन मानवीय देवताओं को जिनकी मनोभूमि दया दाक्षिण्य के सुमनों से सुशोभित एवं सुगन्धित रहती है।
दैवी वृत्तियों के व्यक्ति के कान में संसार के किसी कोने की भी पुकार गूँजते ही उनका हृदय द्रवित हो उठता है और वे देश-विदेश की विभाजन रेखा को पार करके किसी दैवी प्रेरणा से परिचालित, उसी ओर सेवा एवं सौहार्द का सम्बल लेकर चल पड़ते हैं। उन्हें न उनका देश रोक पाता है और न स्वार्थ। देव एवं असुर मानवों की केवल यही एक पहचान है कि मानवता की चीत्कार सुनकर कौन बैठा रहता है और कौन उठ खड़ा होता है।
देवी डायना बालेमी अपने अवकाश के दिनों में यूरोप भ्रमण पर जाया करती थीं। उन्हें सैर-सपाटे में बड़ी रुचि थी। अपने धन का बहुत बड़ा भाग वे इसी पर्यटन मनोरंजन पर खर्च किया करती थीं। एक बार इसी तारतम्य में उन्हें भारत में फैली हुई घोर दरिद्रता की गाथा समाचार-पत्रों में पढ़ने के लिये मिली। भारत की विपन्नता का चित्र उनके हृदय में उतर गया। उस भारत का चित्र जो संसार की मानवीय सभ्यता संस्कृति का आदि स्रोत रहा है, इसके ऋषियों,मुनियों और महा-मनीषियों ने जीवन की स्वाभाविक सुख-सुविधाओं को मानवता के कल्याण के लिये तिलाँजलि देकर अरण्यालय में रहकर घोर तपश्चर्या की और ‘सर्वे भवन्तु सुखिना’ ‘सर्वे सन्तु निरामयः’ के आशीर्वादों के साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्” का सन्देश संसार को दिया। उस भारत का चित्र जिसमें कभी दूध, दही और मक्खन के सरोवर रहते थे। जिसके खेतों में अन्न ऐसे उपजता था जैसे ऊपर से बरसा हो। उस भारत का चित्र जिसमें द्वार पर आये अतिथि देवता के चरण रजत-झारी से धुलाये जाते थे और जिसको स्वर्ण-पात्रों में पय-पूर्ण भोजन कराया जाता था। क्रूर काल के इसी पट-परिवर्तन को देखने और संसार के प्रति भारत की भव्य भावनाओं से साभार कुमारी डायना ने भारत आकर उसकी सेवा का विचार बनाया।
सेवा की भावना आते ही उनके हृदय में विशालता का समावेश हो गया जिससे उन्हें पर्यटन का अपना मनोरंजन बड़ा ही तुच्छ दीखने लगा। उन्होंने स्वयं ही कहा है कि भारत की गरीबी की गाथा पढ़कर उनका मन सैर-सपाटे से स्वयं हट गया और उन्हें ऐसा लगा मानो जिस डायना की सेवाओं एवं धन की आवश्यकता दुःखी मानवता को थी उसने परिभ्रमण में उसे व्यय करके भारी भूल की है।
निदान वे न्यूजीलैण्ड से चलकर बम्बई पहुंची और वहाँ की चकाचौंध के बीच भी उन्होंने दुःख दारिद्रय एवं दयनीयता से बिलखती हुई मनुष्यता को पहचान लिया। यद्यपि बम्बई में कम आकर्षण न था और वह अपने परिसीमित विभव विभ्रम में दरिद्रता के वास्तविक रूप को छिपाने का प्रयत्न कर रही थी तथापि कुमारी डायना ने सहानुभूति तथा सम्वेदना से प्राप्त दिव्य दृष्टि से उन स्थलों को देख ही लिया जहाँ उनकी सेवाओं की आवश्यकता तथा सार्थकता थी। विराट् भारत की उस वर्तमान दुरावस्था को देखकर उनके हृदय पर एक गहरा आघात लगा।
कुमारी डायना बम्बई में ही रुक गई और वहीं एक विज्ञापन एजेन्सी की प्रतिनिधि बन गई। वे अपने अतिरिक्त एवं अवकाश के समय में अनाथालयों में जातीं और तन, मन, धन से अनाथ बच्चों की सेवा करतीं। सेवा भावना की अतिरेकता से उनके कुमार हृदय में मातृ-ममता का ऐसा स्रोत फूटा कि उन्होंने एक-एक करके ग्यारह बच्चों को गोद ले लिया। अब वे ग्यारह बच्चों की मानस माता थीं। अपनी इन अंगीकृत सन्तानों के पालन-पोषण के लिये उन्हें पर्याप्त समय एवं स्थान की आवश्यकता थी। निदान उन्होंने नौकरी छोड़ दी और अनाथालय के नाम से एक घर बसाने का विचार बनाया।
बम्बई जैसे विशाल एवं संकुलित नगर में मकान कहाँ? किन्तु देवी डायना की प्रबल इच्छाशक्ति सद्भावना एवं सदाशयता ने सहायता की और उन्हें पाँच कमरों का एक सुन्दर-सा मकान मिल गया। शीघ्र ही कु. डायना की सुशीलता की सुगन्ध चारों ओर फैलने लगी जिसके प्रभाव से परमार्थ प्रेमी भ्रमर प्रबुद्ध और मनुष्य के हृदयों में प्रसुप्त सद्-भावना के पक्षी जाग उठे। एक के हृदय से मनान्तरित हुये विचार अन्य मन के सजातीय विचारों को बुला-बुलाकर मूल केन्द्र बिन्दु के चारों ओर एकत्र कर देते हैं। कुमारी डायना को सहायता एवं सहयोग की कमी न रही।
कुमारी डायना के ग्यारह मनोनीत बच्चों के लिये विभिन्न संस्थाओं से, अन्न, धन, दूध, घृत तथा तेल आदि अनेक वस्तुएँ आने लगीं और अनेक डॉक्टरों द्वारा स्वास्थ्य सम्बन्धी परामर्श तथा निःशुल्क दवायें मिलने लगीं। इसके अतिरिक्त वे अपनी उस परिवार रूपी संस्था का बहुत -सा खर्च अपने काफी हाउस से पूरा करती थीं। उनका यथार्थ कार्य सुचारु रूप से चलने लगा। अपनी सफलता से प्रोत्साहित होकर कुमारी डायना ने इस सेवा कार्य को स्थायी एवं विकसित रूप देने के लिये “डोर आफ होप सोसाइटी” नामक एक ट्रस्ट की स्थापना की है, जिसका प्रबन्ध व्यवस्था छः भारतीयों एवं एक ओर पक्ष बन्धु के हाथ में है।
कुमारी डायना जैसी आध्यात्मिक आत्माओं का अपना कोई देश, धर्म व जाति वर्ण नहीं होता है। सारा संसार उनका घर, मानवता उनकी जाति और सेवा उनका धर्म होता है जिसके पुण्य प्रताप से एक साधारण व्यक्तित्व भी असाधारण बनकर विश्व की महान विभूतियों में अपना स्थान निर्धारित कर लेता है।
कुमारी डायना जैसी आध्यात्मिक आत्माओं का अपना कोई देश, धर्म व जाति वर्ण नहीं होता है। सारा संसार उनका घर, मानवता उनकी जाति और सेवा उनका धर्म होता है जिसके पुण्य प्रताप से एक साधारण व्यक्तित्व भी असाधारण बनकर विश्व की महान विभूतियों में अपना स्थान निर्धारित कर लेता है।