एक वर्षीय प्रशिक्षण योजना

March 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रस्तुत योजना में तीन प्रकार की शिक्षा व्यवस्था रहेगी। (1) संजीवनी विद्या, (2) लोक नेतृत्व, (3) आजीविका उपार्जन। तीनों शिक्षाएं प्रति दिन साथ-साथ तीन पाठ्य क्रमों की तरह चलेंगी।

संजीवनी विद्या- इस प्रशिक्षण में व्यक्ति और समाज की सभी समस्याओं का स्वरूप और समाधान बताया जायगा। हम बीमार क्यों पड़ते हैं और उससे छुटकारा कैसे पा सकते हैं? रोगियों को रोग मुक्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिये? कमजोर शरीर बलवान कैसे बने? लम्बी उमर तक जी सकना सम्भव कैसे हो? दाम्पत्ति जीवन में प्रेम और सहयोग कैसे उत्पन्न किया जाय? बच्चे स्वस्थ, सुन्दर और सुसंस्कृत कैसे बनें? परिवार में शान्ति सहयोग और सद्भाव किस प्रकार बना रहें? माता-पिता आदि को सुखी संतुष्ट कैसे रखा जाय। अधिकाधिक ब्रह्मचर्य कैसे सुलभ बने? विद्याध्ययन की आजीवन क्रम व्यवस्था बनी रहनी कैसे सम्भव हो? दुर्व्यसनों से छुटकारा कैसे मिले? व्यापार, कृषि, उद्योग आदि से अधिक आमदनी कैसे बढ़े। नौकरी में जल्द तरक्की का अवसर कैसे मिले? प्रस्तुत आमदनी का किस प्रकार सदुपयोग किया जाय कि उतने से भी सारा परिवार सुखी, संतुष्ट और सुविकसित बन सके। समय और धन के खर्च करने की महत्वपूर्ण बुद्धिमत्ता कैसे विकसित हो? बीमारी में मधुरता उत्पन्न करने के रहस्य। मुख पर प्रसन्नता कैसे झलकती रहे? क्रोध, आवेश, और उत्तेजना, चिढ़-चिढ़ापन जैसी बुरी आदतें कैसे छूटे? निराशा, आलस्य, ईर्ष्या जैसी दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा कैसे मिले? सरलता, सादगी, स्वच्छता और सात्विकता का स्वभाव में समावेश कैसे हो? परिश्रम कैसे विकसित हो? शिष्टाचार एवं सज्जनता अपने स्वभाव का अंग कैसे बने?

शत्रुता घटाने एवं मित्रता बढ़ाने के लिये क्या उपाय करें। समाज में सम्मान कैसे मिले? विवाह शादियों के बारे में क्या दृष्टिकोण अपनायें? सामाजिक, कुरीतियों और रूढ़ियों से कैसे निपटे? समाज का ऋण चुकाने के लिए कुछ करना आवश्यक है? धर्म और सदाचार युक्त सुसंपन्नता जीवन की उपलब्धि। ईश्वर को अपना और अपने को ईश्वर का बनाने का सरल किन्तु सफल साधन दुष्टता और अनीति से कैसे जूझें? महापुरुष बनने का राज मार्ग। आपत्तियों और कठिनाइयों को कैसे परास्त करें? सम्बन्धित व्यक्तियों को अधिक सुखी एवं समृद्ध बनावें?

इस प्रकार मानव जीवन की अगणित समस्याओं का स्वरूप, विवेचन इतिहास कारण एवं निवारण समझाने के लिए प्रौढ़ विचार छात्रों को दिये जायेंगे। इन तथ्यों को व्यवहार में लाने के लिये नित्य अभ्यास कराये जायेंगे तब आशा की जायेगी कि एक वर्ष बाद छात्र जब अपने घर जायगा तब उसका मानसिक कायाकल्प ही हो चुका होगा शकल सूरत पहली ही रहने पर भी घर के लोग उसे बदला हुआ पावेंगे। यह परिवर्तन घर में हर सदस्य को आनन्ददायक, उल्लास वर्धक एवं सन्तोषजनक होगा।

जन नेतृत्व- संसार में जितने भी श्रेष्ठ पुण्य परमार्थ हैं उन सबका उत्कृष्ट किसी की जीवन दिशा को सन्मार्ग की ओर मोड़ देना ही हो सकता है। उच्च विचारों से बढ़कर इस विद्या में और कोई विभूति नहीं। सुविधा साधनों के आधार पर नहीं, उच्च विचारों के आधार पर मनुष्य लौकिक एवं पारलौकिक सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता हैं। अतएव पुण्य परमार्थ के जितने भी प्रकार हैं, उन सब में ज्ञान-दान का महत्व सर्वोपरि माना गया है। ब्राह्मण की श्रेष्ठता इसीलिए मानी गई है कि उसका जीवन ‘ज्ञान यज्ञ’ रहता है। इससे बड़ी संसार की सेवा और कुछ हो भी नहीं सकती।

राजतंत्र बनाम धर्मतंत्र- आज संसार में जो अशान्ति फैली हुई है और विविध विधि विपत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं, उसका एक मात्र कारण मनुष्य का विचार क्षेत्र दुष्प्रवृत्तियों से भर जाना ही है। विश्व-शान्ति का लक्ष्य केवल एक ही प्रकार पूरा हो सकता है और वह है हर प्रकार से जन-साधारण में से दुर्बुद्धि का निष्कासन और उसके स्थान पर सद्बुद्धि का स्थापन। अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को युग की इस सर्वोपरि आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।

इन दिनों राजतन्त्र की महत्ता और शक्ति सर्वोपरि बन गई है। राजनीति और शासन में सारी मानव प्रवृत्तियाँ केन्द्रित हो गई हैं। लोग राजनीति द्वारा मानव जाति की समस्याओं का हल करने की बात सोचते हैं। पर यह प्रयोग असफल हो रहे हैं। राजनीति की प्रमुखता ने विश्व को कलह और शोक-सन्ताप से भरापूरा नरक बना दिया है। घातक अस्त्र-शस्त्रों से, अणु बमों से मानव जाति एवं संस्कृति का अस्तित्व तक खतरे में पड़ गया है। यह स्थिति देर तक नहीं रहने दी जा सकती। अगले दिनों मानव जाति की आशा और अभिरुचि का विषय धर्मतन्त्र बनेगा। उसी से विश्वव्यापी सुख-शान्ति का सृजन होगा। जन नेतृत्व अगले दिनों धर्मतन्त्र के हाथ में होगा। इसके लिए धर्म के नाम पर प्रचलित विडम्बनाओं का परिशोधन और तर्क एवं विवेक के आधार पर धर्म की सत्ता, महत्ता एवं उपयोगिता के प्रति जनमानस में श्रद्धा का संस्थापन आवश्यक होगा। जो लोग यह कार्य कर सकेंगे, अगले दिनों में ही मानव जाति के भाग्य का निर्माण कर सकने का श्रेय एवं गौरव प्राप्त करेंगे।

नेतृत्व की योग्यता- आज एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जो राजनीति के हाथ से शक्ति छीन कर धर्म-नीति के हाथों में उसका परिवर्तन कर सके। अगले दिनों ऐसी ही एक अनुपम क्रान्ति अवतरित होने वाली है। उस गंगावतरण को सुव्यवस्थित बनाने वाले जटाधारी शंकर की एक मुहीम भी अभीष्ट है। युग-नेतृत्व कर सकने की क्षमता से परिपूर्ण लौह-पुरुषों का एक दल उत्पन्न करना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति अखण्ड-ज्योति परिवार की सुसंस्कृत आत्माएं यदि अपना स्वरूप समझें तो बड़ी आसानी से कर सकती हैं।

प्रस्तुत एक वर्षीय पाठ्यक्रम में एक तिहाई प्रशिक्षण जन-नेतृत्व कर सकने की क्षमता एवं योग्यता उत्पन्न करने का भी होगा।

1- अपने व्यक्तित्व में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, शरीर, मान, इच्छा, अभिरुचि, आदर्श आदि का एक बहुत बड़ा शक्तिशाली परिवार है। यदि इसका नेतृत्व ठीक तरह किया जा सके तो अपना आप आज की दुर्दशाग्रस्त स्थिति में न पड़ा रहे, वरन् अगले ही दिनों उसका प्रखर-प्रबल एवं प्रचण्ड स्वरूप सामने आ जाय। नेतृत्व की दिशा में पहला प्रशिक्षण इसी तथ्य का होगा।

2- दूसरा प्रशिक्षण अपने दैनिक जीवन के साथ जुड़े हुए व्यक्तियों का नेतृत्व करना होगा। स्त्री, पुरुष, भाई, बहिन, माता, पिता, मित्र, शत्रु, स्वजन-सम्बन्धी-सेवक, स्वामी, ग्राहक, सहचर आदि कितनों से ही अपना वास्ता नित्य पड़ता है। उनकी प्रतिकूलता को अनुकूलता में परिणत कर सकने की कला का यदि अभ्यस्त रहा जाय तो यह परिवार अपने लिए बड़ा आनन्दवर्धक एवं मंगलमय हो सकता है। इस अनभ्यस्तता से जहाँ अपना लाभ है, वहाँ उन सबका भी उतना ही हित साधन है। इस प्रकार यह प्रशिक्षण हर शिक्षार्थी के जीवन एवं वातावरण में एक नया उल्लास एवं प्रकाश उत्पन्न करेगा।

3- तीसरा प्रशिक्षण जन- साधारण का, समाज का नेतृत्व कर सकने का होगा। इसका आधार धर्मतन्त्र रहेगा। रामायण और गीता आज के जन-ग्रन्थ हैं। वेद-शास्त्रों का बहुत कुछ साराँश उनमें आ भी गया है। इन दोनों धर्म ग्रन्थों को आधार मानकर भाषण एवं प्रवचन कर सकने और उनके द्वारा आज की लोक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकने की योग्यता शिक्षार्थियों में उत्पन्न की जायगी। हमें रामायण एवं गीता के ऐसे प्रवक्ता व्याख्याता तैयार करने हैं, जो प्रसुप्त एवं दिग्भ्रान्त जन-मानस में एक नये प्रकाश, उत्साह एवं गतिशीलता का संचार कर सकें। यह दो ग्रन्थ हमारी आगामी युग-क्रान्ति के प्रमुख आधार होंगे। इसलिए इन शस्त्रों को किस अवसर पर किस प्रकार चलाया जाय? इसकी मार्मिक शिक्षा गम्भीरतापूर्वक दी जायगी।

षोडश संस्कार- व्यक्ति और परिवार का उचित बौद्धिक पथ-प्रदर्शन करने के लिए षोडश संस्कारों का प्रचलन नितान्त आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। धर्मानुष्ठान के मानो वैज्ञानिक वातावरण में वेद-मंत्रों, यज्ञ एवं देवताओं के सान्निध्य में जो शिक्षा दी जाती है, उसका प्रभाव आशातीत होता है। घर-घर पहुँचकर जन-जन से संपर्क स्थापित करने और उसे उपयुक्त वातावरण में उचित शिक्षा देने का तरीका संस्कार, आयोजनों से बढ़कर और कोई हो ही नहीं सकता। प्राचीन काल में ब्राह्मण इसी अवलम्बन से व्यापक जन-संपर्क बनाये रहते थे और हर व्यक्ति को, हर परिवार को सुसंस्कृत बनाये रहने में सफल होते थे। इस मृतप्राय, अस्त-व्यस्त पद्धति का हमें पुनर्जागरण करना होगा। प्रस्तुत प्रशिक्षण में यह सिखाया जायगा कि अपने परिवार, पड़ौस और समाज में किस प्रकार षोडश संस्कारों के माध्यम से जीवन-निर्माण एवं चरित्र निर्माण का कार्य गतिशील किया जाय। संस्कार कराने का विधि-विधान ही नहीं इन अवसरों पर उपस्थित लोगों को उद्बोधन कराने का अभ्यास इस प्रशिक्षण का प्रमुख अंग होगा।

पर्व एवं त्यौहार- जिस प्रकार व्यक्ति एवं परिवार के लिए संस्कारों का महत्व है, उसी प्रकार सामूहिक जन समाज को आदर्श वादिता, उत्कृष्टता,एवं सुव्यवस्था की ओर उन्मुख करने के लिए पर्व त्यौहारों का महत्व है। आज तो त्यौहार केवल पकवान, मिष्ठान्न खाने और एक दो परम्परागत लकीर पीट लेने तक ही सीमित हैं, पर आगे यह करना होगा कि यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाँय। अधिकाधिक लोग एक स्थान पर एकत्रित हों, इन पर्वों में जो प्रेरणा, चेतना भरी है, उसे हृदयंगम करें और एक जीवित जाति की तरह शक्ति साधना के लिए उत्साहपूर्वक उठ खड़े हों। पर्वों की प्रेरणाप्रद पद्धति को यदि ठीक तरह अपनाया जा सके तो इससे बढ़कर जन-जागरण एवं युग निर्माण का दूसरा कोई आधार नहीं हो सकता। विचार व्यक्त करने के लिए जन-समूह का उचित मनोभूमि के साथ एकत्रित होना आवश्यक है। धर्म-मंच का यह वह महत्वपूर्ण प्रयोजन पर्व आयोजनों के समय सहज ही पूरा हो सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए पर्वों को मनाने एवं उस माध्यम से लोक नेतृत्व करने की क्षमता प्रस्तुत प्रशिक्षण के सभी शिक्षार्थियों में उत्पन्न की जायेगी।

यज्ञ आयोजन- बड़े-बड़े विशाल जन-सम्मेलन प्राचीन काल में यज्ञ के माध्यम से होते थे। राजनैतिक समस्याओं पर विचार करने के लिए राजसूय यज्ञ, सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए बाजपेय यज्ञ, आर्थिक गुत्थियाँ सुलझाने के लिए विष्णु यज्ञ, सुरक्षा एवं शत्रु विजय के लिए यज्ञ, स्वास्थ्य संबंध के लिए रुद्र यज्ञ एवं भावनात्मक परिष्कार के लिए गायत्री यज्ञ होते थे। भावनात्मक परिष्कार आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है इसलिए विशाल जन-सम्मेलन बुलाने और उपस्थित व्यक्तियों की मनःस्थिति अनुकूल स्थिति में रखने के लिए अब ऐसे गायत्री यज्ञों का विशाल परिमाण में आयोजन करना होगा, जिनमें खर्च तो कम से कम पड़े पर जन-अधिकाधिक एकत्रित हों। इन आयोजनों में उपस्थित जन समूह को एक सुनिश्चित दिशा देने वाले प्रेरणाप्रद प्रवचन की व्यवस्था रहेगी और यह प्रयत्न किया जायगा कि समारोह में उपस्थित लोग कुछ ऐसे संकल्प लेकर जाँय, जिनसे नव-निर्माण के महान् लक्ष्य को सफल बनाने में सहायता मिलती हो। गायत्री यज्ञों के माध्यम से एकत्रित भावनात्मक स्थिति लेकर उपस्थित हुई जनता जन क्रम की दिशा में आश्चर्यजनक रीति से आगे बढ़ती है। यह तथ्य पिछले 15 वर्षों में भली प्रकार अनुभव किया चुका है। प्रस्तुत प्रशिक्षण में इस प्रकार के आयोजनों, पृष्ठ- भूमि, विधि व्यवस्था, संचालन एवं प्रवचन का सारा ढांचा शिक्षार्थियों के अभ्यास में ला दिया जायगा। उनसे यह आशा की जायगी कि वे विशाल जन-समाज में इस माध्यम से अभिनव चेतना उत्पन्न कर सकने में सफल होंगे।

संगीत गायन- इसी संदर्भ में संगीत एवं भजन गायन का प्रशिक्षण भी साथ-साथ चलेगा। भारत की ग्राम-वासिनी, अशिक्षित जनता को भावोद्वेलित करेन में संगीत-भजन का माध्यम एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। सूखे प्रवचनों की अपेक्षा संगीत-गायन के माध्यम से किये हुये भाषण स्त्री, बच्चे, शिक्षित-अशिक्षित सभी की समझ में भली प्रकार आ जाते हैं। अपना और दूसरों का मनोरंजन भी होता है। संगीत अपने-आप में एक महान कला है, जो हर व्यक्ति को आकर्षक एवं लोक प्रिय बनाती है। इसलिए इस शिक्षा पद्धति में संगीत एवं प्रेरणाप्रद भजनों के गायन का भी समावेश रखा गया है। जिनका कंठ एवं रुझान इसके उपयुक्त होगा, वे एक वर्ष में संगीत भी काम चलाऊ सीख लेंगे और अपने क्षेत्र में एक भजनोपदेशक की आवश्यकता पूर्ण कर सकेंगे।

सर्वोपयोगी प्रशिक्षण- यह सभी प्रशिक्षण ऐसे हैं, जो जहाँ किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को सम्मानित करते हैं वहाँ आवश्यकतानुसार आजीविका के भी माध्यम बन सकते हैं। जब कि धर्म-क्षेत्र में 56 लाख निरर्थक और अयोग्य अनुपयोगी व्यक्ति गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, तो कोई कारण नहीं कि कोई व्यक्ति इन योग्यताओं से सुसम्पन्न हो तो उसके गुजारे का प्रश्न हल न हो सके। यदि किसी के पास निजी व्यवसाय है, तो वह बिना कुछ लिए यह धर्म सेवा करे, पर यदि कोई आजीविका का प्रश्न हल करने की भी आशा रखे तो निश्चित रूप से, बिना माँगे ही उसे इस क्षेत्र में गुजारे के लिए समुचित साधन मिल सकते हैं। लोक-सेवा एवं प्रचुर यश, सम्मान का द्वार तो स्पष्टतः खुलता ही है, पुण्य और आत्म-सन्तोष भी इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को कम नहीं मिलता।

युग-निर्माण के शाखा संगठनों में तो एक-दो व्यक्ति ऐसे होने ही चाहिए जो इस प्रशिक्षण को प्राप्त कर स्थानीय शाखा को सक्रिय रख सकें। ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति ही शाखाओं के स्थानीय धर्म पुरोहित का काम कर सकते हैं। उस माध्यम से वे अपनी जीविका चलावें या न चलावें, यह उनकी इच्छा एवं आवश्यकता का प्रश्न है, पर उपयोगिता उनकी हर हालत में होगी ही।

जन-नेतृत्व का उपरोक्त प्रशिक्षण प्राप्त करके कोई भी शिक्षार्थी अपने व्यक्तिगत जीवन में अधिकाधिक सफल हो सकता है। उसे जो जन-सम्मान मिलेगा, उससे किसी न किसी प्रकार उसकी आर्थिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्थिति को अधिक अच्छी बनाने में निश्चित रूप से सहायता ही मिलेगी।

प्रेस व्यवस्था- भाषण की तरह ही लेखन भी जन-जागरण का एक माध्यम है और लेखन का विस्तार प्रेस द्वारा होता है। दैनिक, साप्ताहिक, मासिक-पत्र उन्हीं से छपते-निकलते हैं। पुस्तकें भी प्रेसों में ही छपती, पर्चे-पोस्टर भी उन्हीं में तैयार होते हैं। जन-जागरण की कार्य पद्धति में प्रेस की आवश्यकता अनिवार्य रूप से रहती है। इसलिए इस कला को यदि जान लिया जाय तो उससे कोई भी व्यक्ति युग निर्माण के महत्वपूर्ण कार्य में आशाजनक योगदान कर सकता है।

जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही साहित्य के छपे कागजों की उपयोगिता भी तेजी से बढ़ रही है। अभी जो प्रेस हैं, वे छपाई की सामयिक आवश्यकता को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। अनुमान है कि अगले दस वर्षों में अब की अपेक्षा चार गुने प्रेस बढ़ जायेंगे। अन्य व्यवसाय भले ही घटती पर हों, पर प्रेस व्यवसाय अगले दिनों—दिन तेजी से बढ़ेगा। उसका भविष्य हर दृष्टि से उज्ज्वल है। इस व्यवसाय में लगे हुए व्यक्ति जितनी आसानी से अपनी आजीविका चला सकते हैं, उतनी अन्य व्यवसायों वाले नहीं चला सकते। दूसरे धंधों में किसी कारणवश घाटा भी हो सकता है, मन्दी-तेजी का असर भी पड़ सकता है, पर यह तो शुद्ध कुटीर उद्योग जैसी मजूरी है। लागत बढ़ी तो रेट भी बढ़ेंगे, इसलिए यदि व्यवसाय करना आता हो तो पैसे में घाटा नहीं पड़ता।

सम्मानित आजीविका- शिक्षित लोग ऐसा धन्धा ढूँढ़ते हैं, जिसमें सम्मान और आजीविका दोनों मिलें। इस दृष्टि से उन्हें नौकरी ठीक मालूम पड़ती है। सो ही वे ढूँढ़ते हैं। पर शिक्षितों की संख्या अधिक और नौकरी के स्थान कम रहने से हर किसी को वह मिलती नहीं और लाखों की संख्या में वे बेकार फिरते हैं। ऐसे लोग यदि छोटा-सा भी प्रेस लगा बैठें तो अपना गुजारा इस सम्मानित धन्धे के साथ आसानी से कर सकते हैं। नौकरी में जो पराधीनता और आत्मग्लानि रहती है, उसकी तुलना में प्रेस का धन्धा हर दृष्टि से उत्तम है। साधारण नौकरी करने वालों की अपेक्षा तो छोटे प्रेस में भी अधिक आजीविका हो जाती है। न्यूनतम 4-5 हजार की पूँजी से एक छोटा प्रेस खुल सकता है। इतने से एक छोटी गृहस्थी पल सकती है। यदि पूँजी अधिक लगाने को हो तो अधिक बड़ा प्रेस भी बन सकता है और आजीविका भी अधिक सन्तोषजनक परिमाण में हो सकती है।

प्रस्तुत एक वर्षीय प्रशिक्षण में प्रेस व्यवसाय की सर्वांगपूर्ण शिक्षा देने का एक तिहाई पाठ्य-क्रम रखा गया है। ताकि इस शिक्षा को प्राप्त करने के उपरान्त यदि कोई व्यक्ति आजीविका की समस्या से चिन्तित हो तो उसे भी आसानी से हल कर सके। अपने पास थोड़ी पूँजी हो या स्वजन सम्बन्धी उधार दे सकें तो यह व्यवसाय आरम्भ किया जा सकता है। थोड़ी-थोड़ी पूँजी कई व्यक्ति लगाकर सहयोग समिति के रूप में एक सामूहिक प्रेस खोल सकते हैं और उसमें उस प्रशिक्षित व्यक्ति को नौकरी मिल सकती है। नौकरी तो हमेशा, हर नगर में मिल सकती है। प्रेस कर्मचारियों की माँग तेजी से बढ़ रही है, जिसने यह सीखा है उसे आसानी से नौकरी मिल सकती है और वह बाबूगिरी में मिलने वाले पैसे से किसी भी प्रकार कम नहीं होते।

साँगोपाँग शिक्षा- अक्षर जोड़ना, (कम्पोजिंग), मशीन चला कर छपाई मशीन की मरम्मत, प्रूफ उठाना, प्रूफ पढ़ना, नम्बरिंग, परफोरेटिंग, बाइंडिंग, कटिंग जैसे प्रेस व्यवसाय से सम्बन्ध रखने वाले सभी काम इस एक वर्ष में सिखा दिये जायेंगे। यह विभिन्न कार्य ऐसे हैं कि इनमें से एक-दो को भी ठीक तरह जान लिया जाय तो उतने से भी गुजर बसर हो सकता है। बाइंडिंग, नम्बरिंग जैसे कार्यों को तो अशिक्षित स्त्रियाँ भी घर के भीतर करती रह सकती हैं और कुछ आजीविका वे भी कमा सकती हैं। फिर जो व्यक्ति इन सभी कार्यों को जानता हो वह तो हर दृष्टि से और भी अधिक उपयुक्त रहेगा। स्वयं कर सकेगा और दूसरों को सिखा सकेगा, साथ में काम करने वाले कर्मचारियों से काम ले सकेगा, नये कारीगर पैदा कर सकेगा, किसी के प्रेस का मैनेजर बन सकेगा। प्रेस सम्बन्धी हर काम पूरी तरह जानते हों ऐसे आदमी आज ढूँढ़े नहीं मिलते। कहीं इस प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था भी नहीं है फिर समग्र शिक्षा प्राप्त प्रेस व्यवसाय के ज्ञाता मिल भी तो कहाँ से? छुट-पुट करके कोई कुछ सीख पाते हैं, उसी से काम चलाते हैं। सच तो यह है कि इन सब बातों को व्यापारिक गुप्त रहस्य समझ कर एक दूसरे को इस भय से सिखाते भी नहीं कि नया सीखा व्यक्ति प्रतिस्पर्धा करके कहीं उसी को हानि न पहुँचावे।

एक वर्षीय प्रशिक्षण में इसका समावेश करके शिक्षार्थी की आजीविका सम्बन्धी समस्या का हल भी जोड़ा गया है। प्रेस व्यवसाय के साथ जुड़ा हुआ सहायक धन्धा रबड़ मुहर बनाने का भी है। अच्छी से अच्छी रबड़ की मुहर बनाने में लागत चार-छः आने से अधिक नहीं आती, पर उसका मूल्य डेढ़-दो रुपया आसानी से मिल जाता है। रबड़ की मुहरों का काम थोड़ा-थोड़ा भी मिलता है तो उससे भी अतिरिक्त आमदनी हो सकती है। यह शिक्षा भी इस एक वर्ष की शिक्षा में सम्मिलित रखी गई है।

उज्ज्वल भविष्य की आशा- एक वर्षीय प्रशिक्षण के तीनों अंग (1) जीवन जीने की कला। (2) जन-नेतृत्व। (3) प्रेस व्यवस्था। तीनों ही एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण हैं। इनमें से एक भी यदि उपलब्ध हो तो किसी का भी भविष्य उज्ज्वल हो सकता है फिर तीनों के सम्मिलित लाभ का तो कहना ही क्या है। इन्हें सीखने में जो एक वर्ष का समय लगाया गया है, उसे कभी कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि वह समय हमने निरर्थक गँवाया था।

हमारी आन्तरिक इच्छा इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था के प्रचलन की है, जिससे जन-साधारण के व्यक्तित्व घटिया स्तर के न रहें, उत्कृष्ट बनें। यह तभी सम्भव है, जब छात्र अध्यापक के साथ रहें। भौतिक लाभ उपार्जित करने वाली शिक्षा तो आज सर्वत्र है और तेजी से बढ़ रही है, पर व्यक्तित्वों को प्रखर और अन्तःकरण को प्रबुद्ध बनाने के लिये कहीं कोई योजना नहीं है। इस अभाव की पूर्ति होनी ही चाहिए। बहुत सोच-विचार के बाद अभी एक वर्षीय शिक्षा का प्रचलन आरम्भ कर रहे हैं। इच्छा यह है कि यहाँ से शिक्षा प्राप्त छात्र अपने-अपने क्षेत्र में ऐसे ही शिक्षा संस्थान चलायें। जीवन जीने की कला उनमें मुख्य विषय है। जन-नेतृत्व और प्रेस व्यवसाय के स्थान पर स्थानीय सुविधा एवं आवश्यकता के अनुरूप दूसरे विषय रखे जा सकते हैं, पर जीवन जीने की कला व्यक्तित्वों को उत्कृष्ट बनाने की शिक्षा तो व्यापक रूप से फैलनी ही चाहिए। हम यही आशा कर रहे हैं कि मथुरा में एक वर्ष रहकर और शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त न केवल अपना जीवन दूसरों की तुलना में अधिक सुविकसित, सुसंस्कृत बनावेंगे, वरन् दूसरे अनेकों को भी इसी प्रकार का प्रकाश देने में सफल होंगे।

आह्वान और आमंत्रण- जिन्हें अवकाश है, इस दिशा में रुचि है, उन्हें यह एक वर्षीय प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए हम आमंत्रित करते हैं। एक वर्ष कोई बड़ा समय नहीं है। कितने ही छात्र एक वर्ष फेल हो जाते हैं। यह मान लिया जाय कि हमें एक वर्ष फेल होने के दाँव पर यह त्रिविध प्रशिक्षण प्राप्त करना है तो भी परिणाम आशाजनक ही रहेगा। हमारे द्वारा एक वर्ष में सुसंस्कृत बनाया हुआ छात्र आगे चलकर यदि स्कूल-कॉलेज में पढ़े तो भी उसका भविष्य तब की अपेक्षा अधिक उज्ज्वल ही बनेगा, जबकि वह हर साल पास ही होता चला जाता। 16 वर्ष से अधिक आयु के छात्र एक वर्ष का फेल होने जैसा दाँव लगा कर भी यह शिक्षा प्राप्त करें तो वे किसी भी प्रकार घाटे में रहने वाले नहीं हैं।

इच्छा यही है कि वयस्क (बड़ी आयु के व्यक्ति) इस प्रशिक्षण में भाग लें। जिन घरों में कई भाई हैं, कई कमाने वाले हैं, उनमें से एक सदस्य एक वर्ष के लिये इस शिक्षा के निमित्त आसानी से भेजा जा सकता है। घर वालों का यह त्याग, उनके परिवार में एक नई चेतना एवं मंगलमय धारा का ही सृजन करेगा। इस लाभ की तुलना में घर के एक सदस्य के एक वर्ष तक उपार्जन न करने की हानि आरम्भ में भले ही कुछ अखरे, पर अन्ततः उन्हें यह अपनी बुद्धिमानी ही प्रतीत होगी।

जिन्हें साधारण रीति से जिन्दगी के दिन पूरे नहीं करने हैं, कुछ अधिक उत्कर्ष का आनन्द उपलब्ध करना है वे अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करके नररत्न बनने की सम्भावना उत्पन्न करें, उनके लिये हर हालत में यह शिक्षा उपयोगी होगी। जेष्ठ के शिविर के बाद तुरन्त यह पढ़ाई आरम्भ हो जायगी। शिक्षार्थियों को इस 20 दिवसीय (25 मई से 13 जून तक के) शिविर में भी सम्मिलित रहना चाहिए। इसलिए उन्हें भी अन्य शिविर शिक्षार्थियों की तरह 24 मई को ही मथुरा पहुँचना होगा और पूरे एक वर्ष तक यहाँ रहने के लिए आना होगा।

यह ध्यान रखें- हर छात्र अपना भोजन वस्त्र आदि का खर्च स्वयं करेगा। शिक्षा एवं निवास की व्यवस्था ही निःशुल्क होगी। छात्र अनुशासन-प्रिय, स्वस्थ एवं कम से कम 8 वीं कक्षा तक शिक्षित होने चाहिए। आयु 16 वर्ष से कम न हो। अपना अब तक का जीवन परिचय, कुटुम्ब परिचय विस्तृत विवरण समेत आवेदन-पत्र यथा संभव जल्दी ही भेज देने चाहिये और अनेक की स्वीकृति पाये बिना किसी भी छात्र को आने का कष्ट नहीं करना चाहिए।

जो गृह कार्यों से निवृत्त, रिटायर हो चुके हैं, पेन्शन आदि पाते हैं, उन्हें तो लोक सेवा के लिए यह शिक्षा अवश्य ही प्राप्त करनी चाहिये। इस माध्यम से वे देश, धर्म, समाज एवं संस्कृति की बहुत ही महत्वपूर्ण सेवा करते हुये अपने जीवन को सच्चे अर्थों में सफल बना सकेंगे। उन्हें ऐसे केन्द्र अपने क्षेत्रों में स्थापित करने चाहिए।

अभी एक वर्षीय शिक्षण क्रम ही चलाया जा रहा है। यदि लोग सरकारी सनदों का स्नेह छोड़कर अपने बच्चों को महान व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने का महत्व समझ सके और अपने बच्चों को चार वर्षीय शिक्षा के लिये भेजने को तैयार हो सकें तो उस पाठ्यक्रम को भी आरम्भ करेंगे यदि यह किसी प्रकार पूरी हो सकी तो निश्चय ही युग निर्माण का स्वप्न साकार मूर्ति धारण कर हमारी आँखों के सामने उपस्थित होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles