भोजन भगवान को समर्पित कर लिया करें।

March 1966

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ईशा वास्यमिद्ं सर्वं यत्किञ्च जगत्याँ जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥

ईशावास्योपनिषत्।1

अर्थात्— अखिल विश्व में जड़ चेतन स्वरूप जो कुछ भी है वह सर्वव्याप्त ईश्वर से परिपूर्ण है। इस संसार में जो कुछ भोग है, उसे समर्पित कर भोगो। लालच न करो, यह धन तुम्हारा नहीं है।

मनुष्य में एक बहुत बड़ी कमजोरी यह है कि उसे प्राप्त का अभिमान हो जाता है। यह घर मैंने बनाया है। यह खेत मेरे हैं। इतना धन मैंने कमाया है। मैं इस सम्पत्ति का स्वामी हूँ, जो चाहे करूं, जैसा चाहूँ बरतूँ। इसे अहंकार कहते हैं। कहते हैं अहंकार करने वाले का विवेक नहीं रहता और वह बुद्धि-भ्रष्ट होकर नष्ट हो जाती है। अभिमानी व्यक्ति की भावनायें बड़ी संकीर्ण होती हैं। दूर तक सोचने की उसमें क्षमता न होने से वह अज्ञानियों के काम करता और दुःख भोगता है। इसलिये उसके लिये यह मंगलमय विश्व भी दुःखरूप हो जाता है। वह क्लेश में जीता और क्लेश में मर जाता है।

आप प्रतिदिन भोजन करने बैठते हैं। उस समय स्वाद की जल्दी में आप यह नहीं सोचा करते कि यह आहार किसने प्रदान किया है। कदाचित् आप से कोई यह प्रश्न पूछे तो आप कहेंगे—यह अन्न मैंने पैदा किया, मेरी धर्मपत्नी ने बनाया। बस यह सब मेरा है इसमें किसी का राई-रत्ती अधिकार नहीं, जैसे चाहूँगा वैसे भोगूँगा।

आपका इस प्रकार सोचना मिथ्या है। माना आपने श्रम किया, तो उसके बदले आप ही तो भोगने जा रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी ने बनाया है, इसीलिए तो आपकी इच्छानुसार बना है। पर आप थोड़ा ऊँचे उठकर विचार कीजिये कि आपके इस अन्न में सृष्टि के नियामक परमात्मा का अधिकार भी है। उसने धरती न बनाई होती तो आप अन्न कहाँ उगाते? बीज न बनाया होता तो क्या पैदा कर लेते? फिर कहीं आपका ही अस्तित्व न होता, यह मनुष्य शरीर न मिला होता तो इसे भोगने की सामर्थ्य आप में कहाँ से आती? आपको भोग के साधन प्रदान किये गये हैं तो उस दाता के प्रति आपको कृतज्ञ भी तो होना चाहिये।

भोजन करने से पूर्व आप उसे परमात्मा को समर्पित कर दिया करें, तो इसमें आपका घटेगा कुछ नहीं वरन् अन्न की शक्ति के साथ भावना बल भी बढ़ेगा। आपको शक्ति और ओज प्रदान करने में इस प्रकार की भावना की महत्ता अद्वितीय है।

जो भोजन आप ग्रहण करते हैं उसी के द्वारा आपका पोषण और नव निर्माण नहीं होता, प्रत्युत भोजन करते समय आपकी जैसी मनः स्थिति होती है, मन जैसा सूक्ष्म प्रभाव फेंकता है और जैसी भावनायें लेकर भोजन करते हैं उनका भी आपके जीवन निर्माण से महत्वपूर्ण सम्बन्ध होता है। उन भावनाओं का विकास शरीर के रक्त, माँस, वीर्य और प्राण के द्वारा प्रस्फुटित होकर सारे जीवन में बिखर जाता है। परमात्मा को भोजन समर्पित करने से जो सात्विक और पवित्र विचार-प्रवाह उमड़ता है वह अपने शरीर और जीवन में घुल जाता है। शरीर पुष्ट और बलिष्ठ बनता है। साथ में संकल्प मजबूत होते हैं और उस निश्चयात्मक बुद्धि से बनने वाला जीवन-क्रम भी अधिक सुव्यवस्थित बन पड़ता है।

प्रातःकाल से लेकर दोपहर तक काम करने में आपके सामने अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ आती हैं। कभी क्रोध उत्पन्न होता है, कभी खिन्नता आती है। कभी भय पैदा होता है, कभी निराशा उत्पन्न होती है। अनेक तरह के बुरे विचार भी प्रभावित करते रहते हैं। काम की कठोरता में उत्तेजना, उद्विग्नता, ईर्ष्या, द्वेष पैदा होना स्वाभाविक-सा है। कई बार दूसरे लोग अपने काम में बाधायें डालते हैं उसके कारण प्रतिशोध की भावनायें भी भड़क उठती हैं। दोपहर को घर लौटते हैं तो अशुभ विचारों को पूरा बोझ साथ लेते आते हैं। यह कुत्सित विचार भोजन करते समय भी बने रहें तो वे स्थायित्व ग्रहण करने लगेंगे। परमात्मा के प्रति समर्पण को विचार करते ही आपकी अन्तरात्मा विशाल होती है। उसमें सारे कलुष काषाय धुल जाते हैं। आगे के लिये एक स्वस्थ चैतन्यता अनुभव करने लगते हैं।

आहार ग्रहण करने के समय भावनाओं के सम्मिश्रण का फल अलौकिक है इससे आत्मा में स्वर्गीय शान्ति का अवतरण होता है। बच्चे अपनी माँ का दूध पीते हैं तो कितनी अठखेली करते हैं। कभी मुँह नोचते हैं तो कभी चूम-चटकार करते हैं। तरह-तरह के आमोद-प्रमोद करता है बालक। माँ के प्रति उसकी कृतज्ञता पूर्ण प्रकट होती है। माँ भी यह देखकर अपनी ममत्व उड़ेलती है। दूध के साथ भावनायें पिलाती है। बच्चे के स्वास्थ्य और सुडौलता में दूध उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना माँ-बेटे के द्वारा विनिर्मित उल्लास और ममता भरा वातावरण। वह दूध बच्चे के लिये शहद से भी अधिक मीठा, शक्ति वर्द्धक और अमृत के समान होता है।

मनुष्य का पिता परमात्मा है। पिता की शक्ति और सामर्थ्य माता से बढ़कर होती है। अपने पुत्र की भावनाओं को देखकर उसका जी भर आता है, तब वह अपने शिशु को अपनी भावनाओं का रस उसी तरह पिलाता है जैसे माता अपने बेटे को दूध पिलाती है। निर्लेप, भव्य और उत्तम मनःस्थिति सुन्दर स्वास्थ्य के लिए प्रथम आवश्यक तत्व है। भयपूर्ण, क्लान्त या उद्विग्न मनः स्थिति में भोजन करना आलस्य और रोग-शोक को निमन्त्रण देना है।

“जो कुछ भोजन आप लेते हैं वह पाचन के उपरान्त शरीर का एक भाग बन जाता है, उस भोजन के साथ जो कुछ सूक्ष्म विचार थे वे भी शरीर में बस जाते हैं। लोग समझते हैं खाद्य पदार्थ में शक्ति है इसलिये आहार की बाहरी सफाई पर तो ध्यान देते हैं किन्तु आन्तरिक स्वच्छता को उपेक्षित करते हैं इससे उत्तम स्वास्थ्य और निरोग शरीर की आकाँक्षा नहीं सफल होती।” यह शब्द थियोसोफिकल सोसायटी के विद्वान सन्त लेडबीटर ने “वस्तु की आन्तरिक दशा” नामक पुस्तक में लिखे हैं।

परमात्मा पूर्ण पवित्रता का प्रतीक है। जब वह भोजन में हमारे साथ बैठ जाता है तो सात्विकता की लहर दौड़ने लगती है। परमात्मा का प्रसाद पुष्टिदायक, मधुर स्वादिष्ट और थोड़ा होता है। प्रसाद-भावना से लिया हुआ आहार भी वैसा ही होना चाहिये। मीठा, स्वल्प, सात्विक और स्वादिष्ट। इसी में स्वास्थ्य की तृप्ति की संभावनायें भी टिकी हैं। जब भगवान साथ नहीं होता तभी लोग अखाद्य पदार्थ भक्षण करते हैं। असात्विक भोजन लेते हैं। माँस, मिर्च मसालेदार गरिष्ठ पदार्थ, प्याज और इसी तरह के अन्य दूषित पदार्थों का सेवन वही लोग करते हैं जो परमात्मा को अपने अन्दर धारण नहीं करना चाहते। इसी के फलस्वरूप उन्हें स्वास्थ्य का सुख नहीं मिलता, भावनाओं का सुख नहीं मिलता।

आहार का उद्देश्य मन को, स्वादेन्द्रिय को तृप्त करना मात्र नहीं, वरन् उसका जीवन की गतिविधियों से गहरा सम्बन्ध है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा उसका आचरण भी तदनुकूल होगा। आहार शुद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुये छान्दोग्य उप. में लिखा है—

“आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः, स्मृतिलाभे सर्वग्रन्थीनाँ विप्रमोक्षः।

अर्थात्— आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है। सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बनती है। पवित्र और निश्चय बुद्धि के द्वारा ही मनुष्य मोक्ष प्राप्त करते हैं।

जिसके जीवन में अनेक बुराइयाँ धँसी हैं, अनेक मनोविकारों से जो ग्रस्त है उसे अपना जीवन सीधी राह पर लाने का प्रारम्भिक एक साधन आहार शुद्धि और परमात्मा को समर्पित कर भोजन लेना है। आहार में ईश्वरीय दिव्यता का समावेश होता है तो काम, क्रोध, उत्तेजना, चंचलता, निराशा, उद्वेग आदि बुराइयाँ दूर होती हैं। स्वास्थ्य, शक्ति और सौंदर्य बढ़ता है। यह मनुष्य का कर्त्तव्य भी है। जिस परमात्मा ने हमें यह अलौकिक भोग इस धरती में दिया है उसके प्रति समर्पण का भाव न रखें तो यह मनुष्य की धृष्टता होगी। उसे जो मिलता है, मिला है, वह परमात्मा की कृपा वश मिलता है। उनकी इस कृपा के प्रति कृतज्ञ होना हमारा प्रमुख कर्त्तव्य होना चाहिये।


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