धन को सम्मानित न किया जाय।

March 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सचाई मनुष्य-जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है। इसके अभाव में जीवन हर ओर से कंटकाकीर्ण हो जाता है। क्या वैयक्तिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय। हर क्षेत्र में सचाई का बहुत अधिक महत्व है। व्यक्तिगत जीवन में मिथ्याचारी किसी प्रकार की आत्मिक उन्नति प्राप्त नहीं कर सकता, सामाजिक जीवन में अविश्वास एवं असम्मान का भागी बनता है और राष्ट्रीय जीवन में तो वह एक आपत्ति ही माना जाता है।

व्यक्तिगत जीवन में आहार-विहार एवं आचार-विचार में मिथ्याचार करने से न जाने कितने प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक रोग-दोष पैदा हो जाते हैं, जिनसे संघर्ष करते-करते ही बहुमूल्य मानव-जीवन समाप्त हो जाता है, जिससे न तो वह वर्तमान जीवन में कोई सुख-शान्ति पा सकता है और न आगे के लिये उसकी कोई व्यवस्था कर पाता है।

मानव जीवन के परम लक्ष्य सुख-शान्ति को पाने के लिये जिस शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की आवश्यकता होती है, मिथ्याचारी के जीवन में उसका कभी आगमन नहीं होता। मिथ्याचार का अर्थ ही यह है कि वह सब कुछ न करना, जिसको कि करना चाहिए और वही सब कुछ करना, जिसको कि नहीं करना चाहिए।

यद्यपि इस प्रकार के अकरणीय कार्यों को अज्ञान वश करने से भी कोई परिणाम के कुफल से बच नहीं पाता, तथापि जो जानता हुआ भी अकरणीय कार्य किया करता है, उसकी दुर्दशा की तो कल्पना कर सकना ही कठिन है। धूर्त और मक्कार लोग ऊपर से कितने ही खुश और सुख-हाल क्यों न दिखाई दें, किन्तु अन्दर से वे बड़े ही व्यग्र, विफल तथा दरिद्री रहा करते हैं। उनके हृदय में हर समय एक जलन, एक पश्चाताप एवं आत्म ग्लानि कसका करती है, जो उन्हें आन्तरिक शाँति से सर्वथा वंचित कर दिया करती है और यही आन्तरिक अशान्ति मनुष्य के लोक-पर-लोक में आग लगाने का हेतु हुआ करती है।

मिथ्याचार सामाजिक जीवन में अविश्वास एवं असम्मान के परिणाम उपस्थित करता है। ऐसा व्यक्ति बेईमान, मक्कार और धूर्त सिद्ध हो जाता है, लोग उससे व्यवहार करने से बचते हैं। अपना कोई काम मिथ्याचारी को न तो सौंपते है और न उसका कोई काम करने को तैयार होते हैं। उसके किये कामों और कहे वचनों में विश्वास नहीं करते। एक बार यदि मिथ्याचारी किसी काम अथवा कथन में सत्यता का व्यवहार भी करता है, तब भी कोई उस पर विश्वास नहीं करता और उससे दूर रहने का प्रयत्न किया करता है।

मिथ्याचारी से घृणा किया जाना तो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। लोग उसके मुँह तक पर बेईमान, चोर और धूर्त कह देते हैं। इसके एवज में वह क्यों न क्रोध करने लगे और क्यों न लड़ने को तैयार हो जाये? किंतु यह सब उसका ऊपरी दिखावा मात्र होगा, उसकी आत्मा इस सत्य को स्वीकार ही करती रहती है।

मिथ्याचार के दोष से मनुष्य में कायरता तथा दब्बूपन आ आता है। वह खुल कर न तो समाज में बात कर पाता है और न विश्वासपूर्वक खुले तौर पर कोई काम कर सकने का साहस कर पाता है। वह हर समय चोर की तरह डरा-डरा और दबा-दबा रहा करता है। समाज में उसकी इज्जत दो कौड़ी की हो जाती है। जब तक उसकी काठ की हाँडी चढ़ी रहती है, वह अपने को बड़ा बुद्धिमान समझ कर प्रसन्न रहता है। किन्तु भेद खुलते ही, जो कि शीघ्र खुल ही जाता है, ऐसी दयनीयता के हिल्ले लग जाता है कि फिर जीवन भर पछताने और दुःखी होने के सिवाय कोई चारा ही नहीं रह जाता।

राष्ट्रीय-जीवन का मिथ्याचार सबसे भयानक होता है, राष्ट्रीय स्तर का मिथ्याचार व्यक्ति ही नहीं, समस्त समाज को संकट में डाल देता है। राष्ट्रीय मिथ्याचार ही पराधीनता, शोषण, अत्याचार तथा अवमानना का हेतु बना करता है। यही नहीं, कभी-कभी तो राष्ट्रीय स्तर का मिथ्याचार राष्ट्रों को ही मिटा दिया करता है।

आज खेद के साथ देखना पड़ रहा है और शोक के साथ कहना पड़ रहा है कि भारतवासियों के जीवन से ईमानदारी और सचाई दिन-दिन निकलती चली जा रही है। संसार में अपनी सचाई तथा नैतिकता के लिये प्रसिद्ध भारतीय राष्ट्र आज मिथ्याचार, भ्रष्टाचार एवं अनैतिकता के लिये बुरी तरह बदनाम हो रहा है।

यह वही भारतीय राष्ट्र है, जिसके घरों में ताले नहीं डाले जाते थे, प्रहरी नहीं रक्खे जाते थे, लोग एक दूसरे के रक्षक स्वयं ही बने रहते थे, धोखे से मिथ्याचार हो जाने से प्राण देकर प्रायश्चित्त किया करते थे, अनजान में भी किये गये पाप को स्वयं प्रकाशित कर दिया करते थे और जब तक उसका परिमार्जन नहीं कर लेते थे, अपने को सामाजिक जीवन के योग्य नहीं समझते थे।

आज के बढ़े हुए इस आर्थिक दुराचार के मूल में धन की अपरिमित लिप्सा ही काम कर रही है। यह स्पष्ट है कि जीवन भी वास्तविक आवश्यकतायें किसी को भ्रष्टाचार करने के लिये विवश नहीं कर रही हैं। क्योंकि मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकतायें इतनी कम होती हैं कि वे ईमानदारी की कमाई से भी, यदि मितव्ययता और सादगी का जीवन जिया जाय तो सहज ही पूरी हो सकती हैं। आज का सारा मिथ्याचार मिथ्या आवश्यकताओं और आडम्बरपूर्ण फिजूलखर्ची की आदतों के कारण ही फैला हुआ है।

आज लोग बड़े ही प्रदर्शनवादी और दुर्व्यसनी बन गये हैं। अनावश्यक अपव्ययता ने उनकी आवश्यकतायें जमीन से आसमान तक बढ़ा दी हैं। हमारे जीवन में आदर्शवाद का स्थान भोगवाद ने लिया है। “सादा जीवन, उच्च विचार” का सिद्धान्त भुलाकर लोग ओछे विचार का दिखावा का पसन्द करने लगे हैं। कम से कम परिश्रम में अधिक से अधिक धन पैदा करने की प्रवृत्ति ने लोगों की भ्रष्टाचार के पाप की ओर अग्रसर कर दिया है।

जहाँ इस पतन में मनुष्य की मानसिक दुर्बलता काम कर रही है, वहाँ कुछ खर्चीले सामाजिक रीति-रिवाज भी इसके उत्तरदायी हैं। ब्याह-शादी, देन-दहेज, प्रीतिभोज और मृत्युभोज जैसी सामाजिक कुरीतियाँ भी ऐसी ही रीति रिवाजें हैं जो हमें किसी प्रकार भी अधिक पैसा कमाने पर मजबूर कर रही हैं।

इसके साथ ही समाज में पैसा ही आदर-सम्मान और आ भ्रष्टाचार के पाप की औद क करती है और यही आन्तरिकद्धिमती एवं वीर सामाजिक दोनों जीवनों के लिए नारी-पुरुष काबड़प्पन का माप-दण्ड बन गया है। जिसके पास जितना ज्यादा पैसा है, वह आदमी उतना ही अधिक बड़ा और आदर-सम्मान का पात्र माना जाने लगा है। पैसे को बड़प्पन का चिन्ह मानने वाले और धन देखकर अथवा उससे प्रभावित होकर किसी को आदर-सम्मान देने वाले यह क्यों नहीं देखते कि इसने पैसा कमाया किस मार्ग से है पाप से पैसा कमा कर भी जब कोई सम्मान का पात्र बन सकता है, तो कोई पसीने की कमाई में विश्वास क्यों करने लगे?

यह बात सही है कि पैसा भी बड़प्पन का चिन्ह माना जाता रहा है। उसका कारण यही था कि आसानी से न मिल सकने के कारण लोगों को इसके लिये कठिन परिश्रम एवं पुरुषार्थ करना पड़ता था। इस प्रकार जिसके पास जितना पैसा होता था वह उतना ही परिश्रमी सद्गुणी एवं पुरुषार्थी माना जाता था। इस प्रकार धन के कारण दिया जाने वाला बड़प्पन वास्तव में उसके परिश्रम एवं पुरुषार्थ का ही सम्मान हुआ करता था जोकि पैसा कमाने में लगाया जाता था। किन्तु अब स्थिति बदल गई है। लोग परिश्रम एवं पुरुषार्थ के बजाय धूर्तता, भ्रष्टाचार तथा बेईमानी से पैसा इकट्ठा करने लगे हैं। इसलिये पैसे के कारण किसी को सम्मान देने का मतलब है—भ्रष्टाचार एवं बेईमानी की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देना।

यदि समाज से बेईमानी तथा भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों को कम करना है, तो पैसे के बजाय मनुष्य के गुणों का आदर करना होगा। जीवन से यथा सम्भव उन वस्तुओं का बहिष्कार कर देना होगा जिनमें लोगों को भ्रष्टाचार करने का अवसर मिलता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118