विवाह संस्कार को कौतुक न बनाया जाय।

March 1966

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आज के हिन्दू समाज को जो कुप्रथाएं सबसे अधिक त्रस्त किये हुये हैं वह विवाह के नाम पर होने वाले आडम्बर हैं। इस एक स्वाभाविक एवं सामान्य सामाजिक कृत्य को इतनी अधिक अर्थहीन रीति-रिवाजों से भरकर इतना जटिल बना दिया गया है कि यह सामान्य-सा सामाजिक कृत्य एक मुसीबत बन गया है।

जिस दिन से विवाह संबंध पक्का होता है तब से लेकर उसके अन्तिम दिन तक इतने अधिक रीति-रिवाजों का निर्वाह किया जाता है कि वर-वधू के साथ उन दोनों के अभिभावकों को कई-कई दिन तक भूखा, प्यासा रह कर रात्रि जागरण करना पड़ता है।

विवाह की दो तीन दिन की अनावश्यक व्यस्तता और निरर्थक कार्य भार से इतना दबाव पड़ जाता है कि संबंधित व्यक्तियों का स्वास्थ्य तक खराब हो जाता है। विवाह के दौरान चार पाँच दिन इतना हाहाकार रहता है मानो वह कोई सामान्य विवाह संस्कार के दिन न होकर किसी आपत्ति के दिन हों, जिसे सँभालने और जिसका सामना करने में वर-वधू के अभिभावक आधे पागल हो जाते हैं।

इसके साथ यदि रीति-रिवाजों की बहुतायत के कारण यदि कोई अलन-चलन किया जाने से रह जाता है तो वर-वधू के प्रति एक भयानक अनिष्ट की आशंका सताने लगती है। इस निरर्थक आशंका से त्रस्त अभिभावकों को मानसिक हानि के रूप में तो कष्ट उठाना ही पड़ता है साथ ही अशुभ शंका की भावना का परोक्ष प्रभाव वर-वधू पर भी पड़ता है। और कहीं यदि कोई अप्रियता हो जाय, जैसा कि उस भीड़-भाड़ और अस्त-व्यस्त वातावरण में सदा सामान्य है, तब अशुभ आशंका एक स्थायी विश्वास बन जाता है, जो वर-वधू के सम्बन्ध में अभिभावकों का पीछा आजीवन नहीं छोड़ता।

इन रीति-रिवाजों और अनावश्यक व्यवहारों के अंतर्गत वर-वधू को न जाने कितने देवी-देवताओं और अन्य व्यक्तियों के पैरों डाला जाता है। न जाने कितने वृक्षों, थानों और दुराहों, तिराहों और चौराहों की पूजा कराई जाती है। और यदि कोई समझदार वर-वधू यह सब करने में ऐतराज करते हैं तो उन्हें केवल कोप भाजन ही बनना पड़ता है।

इन बहुत से अनावश्यक रीति-रिवाजों तथा प्रथा परम्पराओं के कारण रुढ़िज्ञों की खूब चढ़ बनती है। वे अशुभ आशंका के भय पर वर-वधू के अभिभावकों को अपनी कठपुतली बना लेते हैं। डट-डट कर अपना आदेश चलाते और निर्देश पूरे कराते हैं। विवाह की भूमिका से लेकर उपसंहार तक वर-वधू तथा उनके अभिभावकों पर जी भर नेतृत्व झाड़ते हैं और अर्थ का शोषण करते हैं।

कभी-कभी इन रीति-रिवाजों अलन-चलन अथवा नेगा-जोगा के प्रकारों, पूरा करने की विधियों के समय अथवा क्रमिकता के विषय में दो मूढ़ रुढ़िज्ञों में विवाद हो जाता है। तब घंटों का समय उसका निर्णय करने में खराब चला जाता है और बेचारे वर-वधू अथवा उनके अभिभावक उसके जाने की प्रतीक्षा में हाथ बाँधे, बंधे अथवा झोली फैलाये बैठे, या खड़े रहते हैं। कभी-कभी रूढ़िवादियों का यह विवाद प्रतिष्ठा का प्रश्न बनकर हठ का रूप ले लेता है तब तो यह गाली-गलौज के स्तर तक पहुँच जाता है, जिससे विवाह जैसे शुभ कृत्य का वातावरण निहायत अशुभ तथा अवाँछनीय हो आता है। अब चूँकि इन रीति-रिवाजों एवं अलन-चलन का कोई निश्चित विधान तो होता नहीं कि जिसके आधार पर सर्वमान्य निर्णय कर लिया जाये। निदान वर-वधू अथवा उनके अभिभावकों को किसी एक पक्ष की बात मान कर रिवाज पूरा करना पड़ता है और तब ऐसी दशा में उनको उपेक्षित पक्ष के क्रोध, मनमुटाव और यहाँ तक कि अशुभ शब्दों का भाजन बनना पड़ता है। और यदि दोनों पक्षों का मान रखने के लिये एक रस्म को दो तरह से पूरा किया जाता है तो बेकायदगी के कारण किसी को भी उसकी शुभता में विश्वास नहीं रहता। ऐसी अवाँछनीय स्थिति में कितने समय, पैसे तथा भावनात्मक संपत्ति की कितनी हानि होती है जिसका अन्दाजा लगा सकना रूढ़ि-रोगियों की ताकत के बाहर होता है।

साथ ही यह निरर्थक कृत्य एक सिलसिले में इतनी देर तक चलते हैं कि बेचारे अभिभावक अथवा वर-वधू के प्राणों पर पड़ जाती है। उस लम्बे समय में यदि उन्हें प्यास लग जाये अथवा लघु शंका की हाजत होने लगे तब तो उनकी पीड़ा का अन्दाजा ही नहीं लगाया जा सकता।

इस प्रकार के निरर्थक, आशय हीन और हानिकारक न जाने कितने रीति-रिवाज, चलन, त्यौहार और पूजापाठ के मूर्खतापूर्ण कृत्य ब्याह की भूमिका से लेकर उपसंहार तक दिन और रात होते रहते हैं। यदि इन सब का अर्थ उन करने और कराने वालों से पूछा जाये तो वे—”ऐसा होता है अथवा ऐसा होता चला आया है”—इसके सिवाय कोई भी बुद्धिसंगत उत्तर न दे सकेंगे। इसी प्रकार के चले आ रहे बुद्धिहीन रीति-रिवाजों को ही रूढ़ियां कहते हैं, हिन्दू समाज में जिनकी संख्या अपरिमित हो गई है।

हिन्दू-समाज में विवाह शादियों के अवसर पर होने वाले रीति-रिवाज न केवल संख्या में ही बढ़ गये हैं। बल्कि मूढ़ता की शक्ति पाकर इतने प्रबल हो गये हैं कि अपने सामने शास्त्रीय विधि-विधान को भी नहीं ठहरने देते। हर ब्याह शादी में देखा जा सकता है कि वास्तविक वैदिक कृत्य किये जाने से पूर्व बुढ़िया-विधान को मान्यता दी जाती है। इसीलिये हर समझदार पंडित अथवा पुरोहित अपना शास्त्रीय कृत्य प्रारम्भ करने से पूर्व स्वयं कह देता है पहले सब लोग अपनी-अपनी रस्म पूरी कर लो तब मैं अपना काम शुरू करूं। क्योंकि वह जानता है कि यदि इन रूढ़ि-रोगियों को उनकी इच्छानुसार अवसर न दिया गया तो यह मंत्रोच्चारण को भी बीच में रोक कर अपनी-अपनी कहने और करने लगेंगे। इस प्रकार यदि गम्भीरतापूर्वक देखा जाये तो स्पष्ट पता चलेगा कि हिन्दुओं की वर्तमान विवाह पद्धति पर शुरू से लेकर आखिर तक और ऊपर से लेकर नीचे तक केवल रूढ़ियों तथा मूढ़ता पूर्ण प्रथाओं का ही प्रभाव है। शास्त्रीय विधि-विधान का कोई महत्व नहीं है।

कहना न होगा कि हिन्दुओं के विवाह संस्कार को शुरू से आखिर तक कोई अनाभ्यस्त व्यक्ति देखे तो वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि हिन्दू-समाज वास्तव में अविवेकी, असंस्कृत और अज्ञानी है। उसका विवाह जैसा संस्कार एक शुद्ध सामाजिक संस्कार न होकर किसी पागल की उठवा धरी जैसा एक उपहासास्पद कौतुक ही है।

अस्तु, आज के सभ्य युग में विवाह जैसे महत्वपूर्ण एवं सामान्य सामाजिक कृत्य को बच्चों के खेल अथवा पागलों की अनबूझ क्रियाओं जैसा न बनाकर सभ्य एवं समझदार व्यक्तियों के काम जैसा बनाया जाये। जिससे वर-वधू उसका आशय समझ सकें, दूसरे लोग शिक्षा ले सकें, अनजान लोग प्रभावित हो सकें साथ ही होने वाली आर्थिक, मानसिक, शारीरिक, सामाजिक तथा धार्मिक हानि बच सके।

राजा के यहाँ एक साधु अतिथि होकर आया। राजा उसकी योग्यता और व्यवहार से प्रसन्न होकर उसे अपना भण्डार दिखाने ले गये। वहाँ साधु ने एक जगह बहुत से हीरे, मोती, नीलम आदि रत्न रखे देखे। साधु ने पूछा—”महाराज! इन पत्थरों से आपको कितनी आय हो जाती है?” राजा ने कहा—”महात्मा जी, इनसे तो कुछ आय नहीं होती, उल्टा इनकी रक्षा के लिये बहुत-सा धन खर्च करना पड़ता है।” साधु ने कहा तब चलिये मैं आपको इन से बड़ा और बहुमूल्य पत्थर दिखलाऊं । वह राजा को एक गरीब बुढ़िया की झोंपड़ी में ले गया। वहाँ उसकी चक्की को दिखा कर उसने कहा—”महाराज, यह पत्थर आपके अनुपयोगी पत्थरों से अधिक बहुमूल्य है, क्योंकि इसके द्वारा यह निराश्रित विधवा जीवन निर्वाह कर लेती है। वस्तु का महत्व उसके रंग रूप से नहीं वरन् उसकी उपयोगिता से समझना चाहिये।”

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