“मामेकं शरणं व्रज”

March 1966

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रुलमैन मर्सविन के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक दिन जब उसके विचार पूर्ण रूप से थके हुये थे, किसी अव्यक्त चिन्ता में डूबा हुआ, सन्ध्या के समय वह अपने बाग में घूम रहा था, सहसा उसे एक दिव्य प्रकाश दिखाई दिया। इस दर्शन से उसका हृदय इतना गदगद हो गया कि उसने उसी क्षण संकल्प लिया “ हे प्रभु मेरी इच्छायें, मेरी सम्पत्ति और व्यक्तित्व सब कुछ तेरा है, यह तुझे ही समर्पण है।” मर्सविन की आध्यात्मिक शक्तियाँ जागृत हुई और वह आत्म-कल्याण करने में सफल हुआ। अनेकों दूसरी संत्रस्त आत्माओं को भी उसने प्रकाश और प्रेरणा दी। अपने आप को परमात्मा की भेंट कर देने के कारण मर्सविन का मनुष्य-जीवन धन्य हो गया।

हमारी दृष्टि में यह स्थिति संसार के प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक जैसी ही है। अनेक तपस्वी महापुरुषों ने आत्म-समर्पण किया और जीवन-मुक्त बने। महर्षि रमण, स्वामी रामकृष्ण, ऋषि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, सुकरात, सन्त हेरेसा, कैबेरिन आदि अनेक जीवनमुक्त-आत्माओं के जीवन-दर्शन स्पष्ट संकेत करते हैं कि मनुष्य की अन्तिम महानता पूर्ण शरणागति है। जब तक अहंकार का थोड़ा- सा भी अंश शेष रहता है तब तक जीवात्मा परमानन्द का रसास्वादन नहीं कर पाती। अनन्त एवं शाश्वत आत्मा का साक्षात्कार अपने आप को ईश्वरीय सत्ता में पूर्णतया घुला देने के बाद ही होता है। अपनी स्वतन्त्र इकाई बनाये रखना ही दुःख और बन्धन का कारण है। “डायनोसियस द एरोपागाइट” ने लिखा है— अपनी सम्पूर्ण वस्तुओं को सच्चे हृदय से परमात्मा को समर्पित कर देने से ही सिद्धि प्राप्त होती है।

कोई भी व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह परिस्थितियों से टक्कर नहीं लेता और केवल सुखोपभोग को ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य मानकर चलता रहता है तो उसके जीवन में कोई विशेषता भले ही न जान पड़े पर वह अपनी अज्ञान जनक स्थिति में ही सन्तुष्ट बना रहेगा। उसे जैसी भी अच्छी-बुरी परिस्थितियाँ मिल जायेंगी उन्हें ही अपना भाग्य समझ कर भोगता रहेगा। इस प्रकार के मनुष्य पूर्णतया माया या अज्ञानग्रस्त कहे जा सकते हैं। इस स्थिति का प्रत्येक अन्त,यदि उसका दृष्टिकोण नितान्त भोगवादी है तो दुःख से भरा ही होगा और यह कहा जायगा कि जीवात्मा अधोगति की ओर जा रही है।

एक सामान्य जीवन-क्रम भी हो सकता है जिसमें सुख-दुःख, शान्ति-अशान्ति, आशा-निराशा की उभयनिष्ठ परिस्थितियाँ आती हैं। मनुष्य न तो बहुत श्रेष्ठ सत्कर्म ही करता है और न कोई बड़े पाप ही करता है। यह स्थिति पहली से यदि कुछ भिन्न है तो भी उसमें विशेषता न होगी और यह कहा जायगा कि मनुष्य-जीवन के लक्ष्य से वह भी विमुख ही है। इन दोनों स्थितियों को तमोगुणी और रजोगुणी कहना अधिक उपयुक्त होगा।

तीसरी अवस्था आत्म-कल्याण की ओर अग्रसर होना है। यह मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने वाली स्थिति है, पर जब मनुष्य इस ओर अग्रसर होता है तो प्रारम्भ में बड़े संघर्ष आते हैं। परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव, प्रारम्भ में कर्मों के फल और वर्तमान क्रियाओं से प्रभावित मनुष्य का मन विभ्रमित होता रहता है। मनुष्य का मन कभी विश्व-वैचित्र्य को ध्यान में रखता हुआ दार्शनिक तथ्यों को सच मानता है और उन पर चिन्तन करता है तो कभी भौतिक आकर्षण उसे अपनी ओर खींचते हैं और उसे उन्हीं में पूर्णानन्द की उपलब्धि होती जान पड़ती है। ब्रह्म और माया के बीच की यह रस्साकशी प्रत्येक साधक के मस्तिष्क में प्रस्फुटित होती है। इस संघात से कई बार वह इतना विभ्रमित हो जाता है कि उसकी सारी विचारशक्ति जवाब दे जाती है और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि जब इस माया या अज्ञानान्धकार का विच्छेदन करना अपनी सामर्थ्य से बाहर है तो फिर क्यों उसके पीछे पड़ा जाय और साँसारिक सुखों का भी तिलाँजलि दे दी जाय।

साधक का मार्गदर्शन कमजोर हो तो यह स्थिति मनुष्य को आत्म-कल्याण के मार्ग में देर तक टिकने नहीं देती। साधक की श्रद्धा कमजोर हो तो भी यही बात है।

किन्तु यदि विचार मन्थन द्वारा इस बात को पूरी तौर पर समझ लिया गया है कि संसार निःसंदेह एक बहुत बड़ा रहस्य है और उसमें अपनी स्थिति का ज्ञान प्राप्त किये बिना कल्याण नहीं हो सकता तो फिर साँसारिक बाधायें रास्ता नहीं रोक सकतीं।

विश्वास अटल हो तो अन्त में विचार करते-करते मनुष्य इसी स्थिति पर पहुँचेगा कि इस अखिल सृष्टि का संचालन करने वाली कोई अतीन्द्रिय, व्यापक और विशाल चेतन-सत्ता विद्यमान है। उस तक अपने विचार पहुँचाये जा सकते हैं और उसका आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है। उसके समक्ष अपनी इच्छायें पहुँचाई जा सकती हैं और उनका जवाब पाया जा सकता है। ऐसे ईश्वर-परायण व्यक्ति को यह भी मालूम पड़ जाता है कि वह परम-पिता सर्वज्ञ ही नहीं सर्व नियामक और न्यायकर्ता भी है। उसके लिये सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं। किसी को छोटा या बड़ा समझने की असावधानी उसके दरबार में नहीं होती। संसार उसकी एक नियमित व्यवस्था में चल रहा है।

विश्व-व्यापी सत्ता का विचार बोध हो जाने से ही पूर्णता की स्थिति बन जाती हो ऐसा नहीं सोचना चाहिये। यह एक प्रकार से विश्वास की परिपक्वता है जहाँ से साधक पीछे की ओर नहीं लौटता। क्योंकि तब तक उसका अन्तःकरण पूरी तरह से मथ चुका होता है और यह भली-भाँति समझ लेता है कि सुख भौतिक वस्तुओं न होकर ब्रह्म में, आत्मा में विद्यमान है, उसकी खोज हुये बिना पूर्ण आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। उससे उसे साँसारिक भोगों से तृप्ति नहीं होती वरन् वह जितना अधिक उनमें रस लेने का प्रयत्न करता है उतना अधिक उसके मन और मस्तिष्क में तीव्र आन्दोलन उठ खड़ा होता है।

अब मनुष्य के लिये एक ही रास्ता शेष रहता है—आत्म समर्पण। वह जितना अधिक तादात्म का अनुभव करता है उतना ही सुख पाता है। इसका अभ्यास करते हुये वह परमात्मा में जितना अधिक घुलता जाता है उतना ही अधिक उसकी आन्तरिक विशालता का परिष्कार होता जाता है और मनोवृत्तियाँ निर्मल होती चलती हैं। यही स्थिति एक दिन आत्म-सिद्धि या पूर्णता की स्थिति तक पहुँचा देती है। ईश्वर प्राप्ति की यह साधना यौगिक क्रियाओं की अपेक्षा कहीं अधिक सरल है।

आत्म-समर्पण की परिभाषा को समझ लेना यहाँ जरूरी है। अल्प-बुद्धि के व्यक्ति आत्म-समर्पण का अर्थ घर छोड़कर भाग खड़े होना लगाते हैं। उनका कहना होता है कि अब उन्हें कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रहा। पर यह बात भ्रामक है। कर्म के बिना तो मनुष्य घर छोड़ देने के बाद भी नहीं रह सकता। खाने-पीने, चलने, उठने, बैठने की क्रियायें तो वह करेगा ही। मानसिक वृत्तियों का शमन न हुआ हो तो वह इच्छायें भी करेगा और तब यह संभव नहीं कि वह जो कुछ करे सही ही हो। इच्छायें पापपूर्ण भी तो हो सकती हैं, भोगवादी भी हो सकती हैं। जबकि यह ईश्वर-निष्ठा से विपरीत आचरण है उसे आत्म-समर्पण की कोटि में कैसे लाया जा सकता है। आत्म-समर्पण का अर्थ गृह-त्याग या कर्म से संन्यास ले लेना नहीं, उसका सम्बन्ध मनुष्य की आन्तरिक स्थिति से है।

मर्सविन ने कहा था—”हे प्रभु! मेरी इच्छायें, मेरी सम्पत्ति और व्यक्तित्व सब कुछ तेरा है।” इन तीन बातों में ही आत्म-समर्पण का सारा रहस्य समाया हुआ है। इन तीन बन्धनों को खोल कर ही मनुष्य परमात्मा का सान्निध्य सुख प्राप्त कर सकता है।

इच्छायें समर्पित कर देने से मनुष्य कामना रहित हो जाता है। जब तक कामनायें शेष रहती हैं, तब तक मनुष्य फल की आशा रखता है और यदि वह न मिले तो दुःखी होता है। कामनाओं की पूर्ति के लिये आवश्यक परिस्थितियाँ न हुई तो वह कैसे पूरी हो सकती हैं? अल्प विद्या वाला व्यक्ति कोई उच्च पद प्राप्त करना चाहे तो वह कहाँ सम्भव है? ऐसी स्थिति में असंतोष, निराशा, विक्षोभ का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। फिर यदि कामनायें पूरी हो भी जाय तो उनका उपभोग शरीर तक ही तो सीमित है जब कि जीवात्मा शरीर नहीं प्रकाश है। अमर-तत्व परिवर्तित नहीं हो सकता तो उसकी मूलभूत आवश्यकतायें ही कैसे बदल जायेंगी। इसलिये कहो है कि ऐ मनुष्य! तू इच्छायें न कर। इच्छाओं से कभी तृप्ति नहीं होती। इन्हें परमात्मा को सौंप दे अर्थात् जैसी भी स्थिति हो उसी में सन्तोष अनुभव करना चाहिये।

सम्पत्ति-मनुष्य को स्थूल सुखों से बाँधने वाली दूसरी वस्तु है जबकि आत्म-देश तक पहुँचने वाली केवल भावनायें होती हैं, अतः ईश्वरनिष्ठ को धन का भी मोह नहीं होना चाहिये। धन का खेल खेलना चाहिये। आत्मा के उत्थान के लिये उसे एक साधन के रूप में देखना चाहिये। धन को परमात्मा की वस्तु समझकर सीमित और आवश्यक मात्रा में ही उपभोग करना चाहिये। निर्जीव वस्तु के लिए चेतन का सुख ठुकरा देना बुद्धिमानी नहीं हो सकती। आत्म-साक्षात्कार के लिए धन को भी परमात्मा को सौंप देते हैं अर्थात् उसका मोह त्याग देते हैं।

धन और कामनाओं का त्याग कर देने के बाद भी मनुष्य को व्यक्तित्व का मोह हो सकता है। मैं ब्राह्मण हूँ, मैं विद्वान हूँ ऐसी मिथ्या धारणायें ज्ञानी पुरुषों को भी हो जाया करती हैं। मन में किसी भी प्रकार का अहंकार लाना बन्धन का ही कारण हो सकता है। जीवात्मा का शरीर-गत विशेषताओं से उतना ही सम्बन्ध है जितना मनुष्य का उसके निवास स्थान से। आध्यात्मिक गुण ही व्यक्तित्व को सजा सकते हैं और उन्हीं से जीवात्मा को शाश्वत लाभ हो सकता है। शारीरिक विशेषताओं की ओर ध्यान रहते हुए सूक्ष्म आत्मिक गुणों का प्राप्त करना कठिन हो जाता है इसलिये अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं को भी परमात्मा का सौंप देते हैं।

जब आत्मा का कोई भी विकार शेष नहीं रहता तब वह पूरी तरह से परमात्मा को आच्छादित कर लेती है। जीव ब्रह्ममय हो जाता है। उसकी आध्यात्मिक शक्ति जाग्रत हो जाती है।

मनुष्य अपने आप में पूर्ण नहीं है। साधन करते हुये भी वह गलतियाँ कर सकता है। मुक्ति का सीधा और सरल पथ आत्म-समर्पण है। अपने आपको पूर्ण रूप से परमात्मा को सौंप देने के बाद आत्म-कल्याण की सब कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं और भगवान् उसका कुशल-क्षेम स्वयं वहन करने लगते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने यही बात संक्षेप में इस तरह कही है—

सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयामि मा शुचः॥

अर्थात्—हे मनुष्यों! तुम सब धर्मों का परित्याग कर केवल मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सारे पाप-बन्धनों से मुक्त कर दूँगा।

अर्थात्—हे मनुष्यों! तुम सब धर्मों का परित्याग कर केवल मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सारे पाप-बन्धनों से मुक्त कर दूँगा।


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