श्रम ही नहीं- अविराम श्रम चाहिये।

March 1966

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श्रम एवं समय मनुष्य की सबसे मूल्यवान सम्पत्ति है। जिसने अपनी इस पूँजी का सदुपयोग सीख लिया उसने मानो मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने का रहस्य ही जान लिया।

संसार में जो कुछ शिव और सुन्दर दृष्टि-गोचर होता है, वह मनुष्य की श्रमशीलता का ही सुफल है। कलाकौशल की सारी उपलब्धि श्रम के आधार पर ही होती है। यदि मनुष्य ने श्रम को न अपनाया होता तो वह भी अन्य पशुओं की तरह पिछड़ी स्थिति में पड़ा रहता । मनुष्य को छोड़कर संसार के सारे प्राणी आज भी उसी आदि स्थिति में रह रहे हैं जिसमें वे सृष्टि के आरम्भ में थे। मनुष्य की प्रगति का कारण उसकी श्रमशीलता ही है।

मनुष्य ने श्रम करके अपने रहने के लिये मकान बनाये, पहनने के लिये कपड़ा तैयार किया और खाने के लिये खेती का धन्धा अपनाया। यही नहीं जीवन को और अधिक सुन्दर तथा सुखदायी बनाने के लिये अनेक प्रकार के कला कौशलों का विकास किया। वह जीवन की सुविधा के लिए कोई एक चीज बनाकर वहीं नहीं रुक गया बल्कि उसको अधिकाधिक विकसित तथा सुन्दर बनाने के लिये निरन्तर श्रम करता रहा। तभी वह एक साधारण झोंपड़ी से चल कर बड़े-बड़े प्रासादों तक आ सका है। साधारण बोने काटने से लेकर असाधारण उद्योग धन्धों तक पहुँच सका है। नग्नता ढकने से लेकर पट परिधानों तक का निर्माण कर सका है। इतनी प्रगति तथा उन्नति मनुष्य अपनी श्रमशीलता के बल पर ही कर सका है।

यदि रहन-सहन की साधारण सुविधाओं को निर्मित करके मनुष्य वहीं रुक जाता और अपनी श्रमशीलता का परित्याग कर देता तो, वह इतनी उन्नति किस प्रकार कर सकता था और अब भी जिस दिन मनुष्य अपनी श्रमशीलता को छोड़ देगा बना हुआ संसार बिगड़ने लगेगा। महल अट्टालिकायें खण्डहरों में बदलने लगेंगी। पट-परिधान पत्तों और छालों तक लौटने लगेंगे और सुन्दर खाद्य बनैली वस्तुओं तक सीमित होने लगेंगे। आशय यह कि श्रमशीलता त्यागते ही संसार आदिकालीन वन चरतां की ओर पुरोगामी होने लगेगा।

कोई भी उन्नति, प्रगति अथवा सुन्दरता सुरक्षित रहने के लिए मनुष्य की अनवरत श्रमशीलता की अपेक्षा रखती है। आज भी संसार में हजारों लाखों खण्डहर ऐसे पाये जाते हैं, जो मनुष्य की श्रमशीलता की गवाही देते हुये उसके आलस्य एवं उदासीनता पर आँसू से बहा रहे होते हैं।

एक बार एक बड़े परिश्रम के साथ मनुष्यों ने ऊँचे-ऊँचे शिल्प खड़े किये उन्हें कला कृतियों से सजाया और बहुत समय तक उनकी रक्षा की, किन्तु कालान्तर में जब उन्होंने उसको आवश्यक परिश्रम एवं अपेक्षता को अंश देना बन्द कर दिया, वे मिट्टी मात्र बनकर रह गये।

बड़े-बड़े साम्राज्य, बड़े-बड़े समाज, बड़ी-बड़ी सभ्यताएं और बड़ी-बड़ी संस्कृतियाँ मनुष्य की श्रम साधना से बनीं और फिर उसी की अनाश्रमिक प्रवृत्ति के कारण मिट गई। श्रम के बल पर बनाई गई कोई भी वस्तु बनी रहने के लिये निरन्तर श्रम की आवश्यकता रखती है। यदि आज यह सोच लिया जाये कि संसार में सुख-सुविधा के प्रचुर साधन इकट्ठे हो गये हैं, अब आगे उनके लिए श्रम करने की क्या आवश्यकता है, तो निश्चय ही कल से संसार में दरिद्रता का सूत्रपात हो जाय। श्रम से ही श्रेय प्राप्त होते हैं और श्रम से ही वे सुरक्षित रहते हैं।

बड़े से बड़े परिश्रम के साथ ऊँची से ऊँची शिक्षा एवं योग्यता प्राप्त कर लेने के बाद वकील-बैरिस्टर प्रोफेसर और डॉक्टर आदि यदि यह सोच लें कि पच्चीस-तीस साल के कठिन पुरुषार्थ के बाद उन्होंने पर्याप्त योग्यता प्राप्त कर ली है अब उसके लिये परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है, तो क्या वे एक दिन भी अपनी योग्यता सुरक्षित रख सकते हैं? इसीलिए सारे समझदार वकील, बैरिस्टर, डॉक्टर प्रोफेसर आदि अपनी योग्यता को सुरक्षित बनाये रहने के लिये निरन्तर श्रम करते रहते हैं और जो ऐसा न करने की भूल किया करते हैं वे अपने क्षेत्र में दूसरों से पिछड़ जाते हैं। जो एक बार उपार्जित योग्यता के बल पर जीवन भर योग्य बने रहने की सोचते हैं, वे भूल करते हैं। परिश्रम, प्रयत्न और पुनरावृत्ति में स्थगन आ जाने से उपार्जित योग्यताएं भी पास से चली जाती हैं। वे तभी तक किसी के पास बनी रह सकती हैं, जब तक उनके लिये श्रम किया जाता रहता है।

कला-कौशल की बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ श्रमहीनता एवं अभ्यास शून्यता से निकम्मी हो जाती हैं। एक शिल्पकार, चित्रकार अथवा कलाकार अपनी सिद्धि के सन्तोष में यदि अभ्यास का परित्याग करे दे तो क्या वह दक्ष बना रह सकता है? जिस श्रम की बदौलत वह एक से एक ऊँचे और बढ़िया निदर्शन तैयार करता रहता है, उसी के अभाव में आगे प्रगति करना तो दूर पीछे की विशेषताएं भी खो देगा। यही कारण है कि संसार में सैकड़ों उदीयमान कलाकार और शिल्पकार ऐसे हुए हैं, जो अपनी ऊँची सम्भावनाओं की एक झलक दिखा कर बुझ गये और संसार उनकी असफलता पर तरस खाता रह गया। उदीयमान प्रतिभाओं के पतन का एक ही कारण होता है— ‘प्रमाद’। जो प्रारम्भिक परिश्रम उन्हें लेकर उठता है, उसका त्याग कर दिये जाने से भविष्य की सम्भाव्य प्रगति रुक गई और उदीयमानता अस्मिता होकर अन्धकार के परदे में चली गई। इसलिए आवश्यकता है कि अपनी योग्यताओं एवं विशेषताओं को तरुण बनाये रखने के लिये अविराम परिश्रम में संलग्न लगा रहा जाये।

कला-कौशलों की भाँति अनवरत श्रमशीलता का नियम धनोपार्जन के क्षेत्र में भी लागू होता है। जो व्यापारी, व्यवसायी अथवा उद्योगी अपने कार्य में निरन्तर परिश्रम करते रहते हैं, वे न केवल अपने व्यवसाय को सुरक्षित ही बनाये रखते हैं, बल्कि बढ़ाया भी करते हैं। परिश्रम के बल पर कुछ समय में लाखों-करोड़ों की दौलत कमा लेने के बाद यदि कोई उद्योगी यह सोचकर प्रमादी बन जाये कि अब तो पर्याप्त धन मिल गया है, अब परिश्रम अथवा उद्योग करने की क्या आवश्यकता है, तो उसकी वह अपरिमित सम्पत्ति उससे भी कम समय में समाप्त हो जायेगी, जितने समय में उसने उसे कमाया है।

उपार्जन की ओर ध्यान लगा रहने से मनुष्य का मस्तिष्क अपव्यय की ओर से हटा रहता है। जब मन और मस्तिष्क की गति आय की दिशा में लगी हुई है तो उसकी विपरीत दिशा का अपव्यय की ओर न जाना स्वाभाविक ही है। किंतु ज्यों ही आय की ओर से उन्हें छुट्टी मिली नहीं कि वे व्यय की ओर चल पड़े। एक मात्र व्यय की ओर चले हुए मन-मस्तिष्क फिर केवल व्यय तक ही सीमित नहीं रह सकते, अपव्ययता से होते हुए अनिवार्य रूप से वे व्यर्थ व्यर्थता और व्यसन-व्ययता तक पहुँच जायेंगे।

व्यक्तिगत जीवन की तरह निरन्तर श्रमशीलता का नियम समाजों एवं राष्ट्रों के उत्थान-पतन में भी लागू होता है। जिस समाज अथवा राष्ट्र के नागरिक जितने अधिक श्रमिक होंगे, वह राष्ट्र व समाज उतनी ही अधिक उन्नति करता जायेगा। अमेरिका-रूस यद्यपि संसार के अनेक देशों से छोटे देश हैं, किन्तु निरन्तर श्रम की बदौलत आज वे संसार के सबसे समृद्ध एवं शक्तिशाली देश बने हुए हैं। यदि यह दोनों देश अपनी वर्तमान समृद्धि से सन्तुष्ट होकर अविराम श्रमिकता का परित्याग कर दें तो क्या कल वे इस स्थिति में रह सकेंगे? कदापि नहीं। और निश्चय ही जिस दिन ये श्रम को छोड़ कर प्रमाद के वशीभूत हो जायेंगे, उसी दिन से उनका पतन प्रारम्भ हो जायेगा।

इसलिए क्या व्यक्ति और क्या राष्ट्र जो भी अपनी उन्नति चाहता है और अपनी वर्तमान उपलब्धियों को भविष्य में सुरक्षित रखना चाहता है, वह अविरत परिश्रम का महामन्त्र अपना कर आलस्य एवं प्रमाद के अभिशाप से सदा दूर रहे।

कहना न होगा कि जिस प्रकार भारतवासियों ने अविरत संघर्ष के बल पर सदियों बाद जिस स्वाधीनता को उपलब्ध किया है उसे सुरक्षित रखने और समृद्धि का रूप देने के लिये उन्हें अखण्ड पुरुषार्थ करना ही होगा। अन्यथा न तो स्वतन्त्रता की रक्षा कर पायेंगे और न समृद्धि के शुभ-दर्शन कर पायेंगे।


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