आदर्शवादिता की प्रतिमूर्ति-श्री लाल बहादुर शास्त्री

March 1966

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चार-पाँच वर्ष पूर्व जब पण्डित नेहरू के उत्तराधिकारी का प्रश्न उठना शुरू हुआ था, तब लोग इस विषय में अनेक प्रकार की अटकलें लगाने लगे थे। कोई किसी के विषय में सोचता था, तो कोई किसी के विषय में कहता था। बहुतों के मुँह से बहुतों के नाम सुने जाते रहे। किन्तु समय आने पर जब पं. नेहरू के उत्तराधिकारी का चुनाव हुआ,तब एक ऐसा आदमी भारत का प्रधान मन्त्री बना, जिसकी किसी को आशा न थी।

पं. नेहरू के सहयोगियों में होने के कारण उनके बाद प्रधान मन्त्री पद के लिये जिन नामों का अनुमानित उल्लेख किया जाता रहा है। उस सूची में श्री लालबहादुर शास्त्री का स्थान सदा ही पाँचवें-छठे नम्बर पर ही रहा है, सो भी यों ही गौण रूप से। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र का नायकत्व, सो भी पं. नेहरू जैसे प्रतिभा एवं प्रभाव सम्पन्न व्यक्ति के उत्तराधिकारी के रूप में कभी लालबहादुर शास्त्री जैसा साधारण, सादा और अविशेष प्रतिभा का व्यक्ति प्राप्त कर सकेगा? यह बात लोगों की कल्पना से परे थी। किन्तु यह असम्भाव्य जैसी लगने वाली बात सम्भव हुई और पं. नेहरू के निधन के बाद श्री लालबहादुर शास्त्री ने उनका आसन ग्रहण कर संसार को आश्चर्य में डाल दिया। उनकी इस अप्रत्याशित उपलब्धि का रहस्य विचारशील लोगों की खोज का विषय बन गया।

असाधारण राजनीतिक प्रेक्षकों, नीति विशारदों और राजनीतिक भविष्य सूचकों एवं निकटवर्ती सूत्रों को अपने अनुमान की असफलता और शास्त्री जी की सफलता पर इतना अधिक आश्चर्य हुआ कि वे इसको वर्तमान युग की कसौटियों के लिये एक चुनौती मानने लगे। बड़े-बड़े अनुमान आदेशक विस्मय के साथ विचार करने लगे कि यह प्रदर्शन हीन साधारण तम कोटि का व्यक्तित्व रहित व्यक्ति भारत मन्त्री पद के लिये किस प्रकार निर्वाचित हो सका? जबकि अन्य आकाँक्षी प्रति योगियों की तुलना में वह उन सभी विशेषताओं एवं विशिष्टताओं से वंचित हैं, जो उनमें उससे अधिक हैं। शास्त्री की पृष्ठभूमि में न कोई पारिवारिक प्रतिष्ठा है और न मित्रों अथवा परिचितों का प्रयत्न।

आज के अनादर्शवादी युग में सफलता प्राप्त करने के लिये जिन साधनों को आधुनिक ही नहीं, बल्कि आवश्यक एवं अनिवार्य माना जाता है, श्री लालबहादुर शास्त्री के पास उनका सर्वथा अभाव था। कुटिलता, दलबन्दी, छल-छद्म महान् कुल, सम्पन्न परिवार, असाधारण प्रतिभा, प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व, ऊँची शिक्षा एवं विघटन-कुशलता आदिक बातों से उनका दूर का भी सम्बन्ध नहीं था। इसके विपरीत वे पूर्ण आदर्शवादी, ईमानदार, सत्य-निष्ठा एवं सरल-साधारण प्रतिभा के व्यक्ति थे।

वे सीधे-सादे ग्रामीण-जन थे, नवीं-दसवीं कक्षा तक पढ़े थे और घर के बहुत ही गरीब आदमी थे। उन्होंने न तो कभी विदेश-यात्रा की और न राजनीति के क्षेत्र में खुल कर खेले ही थे। लम्बी-चौड़ी प्रपंच पूर्ण बातें करना और अन्य लोगों पर अपनी छाप छोड़ने की कला से वे सर्वथा अनभिज्ञ ही थे। उनके पिता साधारण अध्यापक थे, जो उन्हें शैशव-काल में ही अठारह माह का छोड़कर स्वर्ग सिधार गये थे। उनका लालन-पालन विधवा माता ने घोर अभाव-ग्रस्त परिस्थितियों में अपने पिता के सहारे किया था। उन्होंने अपना विद्यार्थी जीवन ढाई रुपये माह के खर्च में खाने में खाने कपड़े से लेकर स्कूल की फीस तक देकर चलाया था। उनका कोई सम्बन्धी इस योग्य न था, जो उनकी शिक्षा अथवा जीवन-विकास में सहायता दे पाता। वे पढ़ने के लिये सात-आठ मील पैदल चलकर जाया करते थे।

ऐसे निचले धरातल से उठकर भारत के सर्वोच्च राजनीतिक पद पर पहुँच जाने में शास्त्री जी के अपने आन्तरिक गुण तथा आदर्शवादी विचारधारा ही सहायक हुई है। शास्त्री जी ने अपनी महान उपलब्धि से सिद्ध कर दिखाया कि संसार में उन्नति करने के लिये जो अनीति एवं अनादर्श को आवश्यक बतलाते हैं, वे भूल में हैं। यह मनुष्य की परिश्रमशीलता, सत्य-निष्ठा, ईमानदारी, सदाचार एवं सद्व्यवहार ही है, जो उसे उच्चतम पद पर पहुंचा देते हैं। यदि किसी के तिकड़म सफल होकर यदि उच्च पद तक पहुंचा सकते हैं,और दूसरे का आदर्श चरित्र भी ऐसा कर सकने में समर्थ हो, तब क्या आवश्यक है कि मनुष्य निम्न आचरण का सहारा लेकर अपनी उन्नति का प्रयत्न करें? क्यों न वह उदात्त आचरण को ही अपनाये, जिससे कि उसे उन्नति, यश, लोक-प्रियता, पुण्य एवं आत्म-सन्तोष की स्थायी सफलतायें प्राप्त हों।

श्री लालबहादुर शास्त्री ने अपने आदर्श जीवन एवं महान चारित्रिक बल पर ही इतनी सफलता पाई है। जानकर लोगों में उनके आदर्शवादी व्यक्तित्व के विषय में दो मत नहीं हो सकते। उन्होंने बिना किसी के सहारे स्वावलम्बन एवं परिश्रम के बल पर ही अपना रास्ता आप बनाया है, अपनी उपलब्धियाँ स्वयं उपार्जित की हैं, वे ईमानदारी से बिना किसी महत्वाकाँक्षा के ठोस काम करते हुए कदम व कदम आगे बढ़े हैं। उन्होंने सदैव ही अपने साथियों एवं सहयोगियों की गणना में अपने को पश्चात् पंक्ति में ही रखा है और काम के समय सबसे आगे रक्खा है। उनके मस्तिष्क में नेतृत्व की कमजोरी कभी नहीं रही, उन्होंने आजीवन अपने को एक स्वयं-सेवक ही माना है और उसी भावना से किसी पर अपने बड़प्पन की छाप छोड़ना वे जानते ही न थे। नाम से बचते हुए काम करना ही उनके जीवन का मूलमन्त्र था।

घर से गरीब होने और कठिनतम परिस्थितियों में रहते हुए भी उन्होंने जीवन के लिये सुख-सुविधा की अवस्थाओं को उपार्जित करने के प्रयत्न को देश की स्वतन्त्रता पर न्यौछावर कर दिया। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन का आह्वान सुनकर अपने बाल्य-काल में ही श्री शास्त्री जी दीन दुनिया को भूल और पढ़ाई को तिलाँजलि देकर एक साधारण स्वयंसेवक के रूप में कर्म-क्षेत्र में उतर पड़े। उन्होंने कठोर मानसिक एवं शारीरिक अनुशासन के साथ असहयोग आन्दोलन का प्रचार किया, जिसके लिये उन्हें कठोर कारावास का दण्ड भोगना पड़ा। उन्होंने तत्कालीन स्वयंसेवक शिविरों में इतनी लगन एवं परिश्रमशीलता से काम किया कि लाला लाजपतरात राय और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जैसे महान नेताओं का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुए बिना न रह सका, जिसके फलस्वरूप उन्होंने उन्हें स्वयं स्थापित “सर्वेण्ट आफ पीपुल्स सोसाइटी” की सदस्यता देकर ही सन्तोष किया।

इस प्रारम्भिक सफलता एवं सम्मान से प्रभावित होकर शास्त्री जी में कोई अभिमान नहीं आया, बल्कि वे और भी अधिक लगन एवं अनुशासन से काम करने लगे, अपने साथ काम करने वालों से आगे बढ़ जाने पर भी उन्होंने कभी नायकत्व की भावना का प्रदर्शन नहीं किया।

शास्त्री जी के सह-जेल-यात्री श्री सादिक अली ने अपने व्यक्तिगत अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर लिखा है कि “वे एक गम्भीर एवं निष्ठावान व्यक्ति थे। उन्होंने अपने द्वारा जीवन के क्षण-अनुक्षण का अपना मानसिक बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास करने में उपयोग किया। उनकी बौद्धिक रुचियों का क्षेत्र बहुत विस्तृत था। हम लोग तब अन्य प्रकार से अपना सारा जीवन-यापन करने में लगे रहते थे, तब शास्त्री जी निरन्तर अध्ययन में ही व्यस्त रहा करते थे। उन्होंने अपनी दिनचर्या बड़ी सावधानी से बना रक्खी थी और पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही अपना काम किया थे। वे अपने विचार एवं कार्यों में कभी उलझन पैदा न होने देते थे। उनके मस्तिष्क में यह बात हमेशा साफ रहती थी कि हमें अपने कारा-जीवन के कठिन दिनों का अधिक से अधिक उपयोग किस प्रकार करना चाहिए?”

श्री शास्त्री जी नैतिक शुद्धि का बहुत विचार रखते थे और गाँधी जी के निर्देशानुसार आत्मा के विकास के प्रयत्न और उसकी कमियों एवं खामियों को दूर करने के लिये न केवल जागरूक ही रखते थे, बल्कि प्रयत्न किया करते थे।”

धर्म-प्राण व्यक्ति होने पर भी शास्त्री जी में पुरातन पन्थियों की कट्टरता न थी। वे धर्म के मूल तत्वों पर अडिग निष्ठा रखते हुए सामयिक समन्वय में समर्थ थे स्वयं आचार-विचार, नियम-संयम से रहते हुए भी दूसरों की उस जीवन-पद्धति में जरा भी दखल न देते थे, जोकि उनकी पद्धति में बाधक न बनती थी।

अपने इन्हीं विशाल गुणों के कारण शास्त्री जी न पंडित जवाहरलाल जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को प्रभावित किया और उन्होंने उन्हें गम्भीर से गम्भीर तर जिम्मेवारियाँ सौंपते हुये उनकी उन क्षमताओं की परीक्षा ली जो उनकी आत्मा में निवास करती थीं, उनके कार्यों में झलक मारती थीं किन्तु कभी मुखरता न पाती थीं।

उत्तर प्रदेश के पार्लियामेण्टरी सेक्रेटरी के लघु पद पर प्रशासनिक योग्यता दिखलाकर वे अखिल भारतीय काँग्रेस कामेटी के जनरल सेक्रेटरी बने और सार्वजनिक चुनावों में काँग्रेस दल के चुनाव नेता के दायित्वपूर्ण कार्य में कुशलता पूर्ण सफलता का परिचय देकर रेल मंत्री तथा गृहमन्त्री का पद प्रतिष्ठित किया। अपने इन दायित्वपूर्ण पदों पर उन्होंने जो मौन महानता पूर्ण अपनी योग्यता का परिचय दिया उसने देश के सर्वोच्च लोकप्रिय एवं प्रभावशाली नेता, शासक एवं राजनीतिज्ञ को इस गहराई तक प्रभावित किया कि उन्हें श्री शास्त्री जी की ठोस क्षमताओं को मान्यता देनी पड़ी।

इन्हीं अपने गुणों एवं अग्निपरीक्षाओं में सफलता के कारण श्री शास्त्री जी नेहरू जी के निधन के बाद अप्रत्याशित रूप से उनके उत्तराधिकारी चुने गये और अठारह माह की अवधि में ही उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि किसी की सादगी, सरलता, अथवा बाह्याकार से किसी की क्षमताओं का गलत अन्दाज लगाना अदूरदर्शिता है।

कहना न होगा कि शास्त्री जी की सफलतायें वास्तव में भारतीय आदर्शों की सफलता है। उन्होंने सिद्ध कर दिखाया यदि आलीशान इमारतें, कुलीनतायें, सम्पन्नतायें, उपाधियाँ अथवा प्रचण्ड व्यक्तित्व किसी को सफल एवं महान बना सकते हैं तो सच्ची सरलता, सादगी, साधुता और सामान्यता भी किसी को सफल बना सकने में सर्वथा समर्थ है। शास्त्री जी की सफलता एवं उन्नति का उदाहरण निःसन्देह उन हजारों लाखों व्यक्तियों के लिये एक प्रेरक प्रसाद है जो जीवन में उन्नति करना चाहते हैं किन्तु अपनी साधनहीन एवं कठिन परिस्थितियों को देखकर हिम्मत हार कर यथा स्थान बैठे रहते हैं।

कहना न होगा कि शास्त्री जी की सफलतायें वास्तव में भारतीय आदर्शों की सफलता है। उन्होंने सिद्ध कर दिखाया यदि आलीशान इमारतें, कुलीनतायें, सम्पन्नतायें, उपाधियाँ अथवा प्रचण्ड व्यक्तित्व किसी को सफल एवं महान बना सकते हैं तो सच्ची सरलता, सादगी, साधुता और सामान्यता भी किसी को सफल बना सकने में सर्वथा समर्थ है। शास्त्री जी की सफलता एवं उन्नति का उदाहरण निःसन्देह उन हजारों लाखों व्यक्तियों के लिये एक प्रेरक प्रसाद है जो जीवन में उन्नति करना चाहते हैं किन्तु अपनी साधनहीन एवं कठिन परिस्थितियों को देखकर हिम्मत हार कर यथा स्थान बैठे रहते हैं।

कहना न होगा कि शास्त्री जी की सफलतायें वास्तव में भारतीय आदर्शों की सफलता है। उन्होंने सिद्ध कर दिखाया यदि आलीशान इमारतें, कुलीनतायें, सम्पन्नतायें, उपाधियाँ अथवा प्रचण्ड व्यक्तित्व किसी को सफल एवं महान बना सकते हैं तो सच्ची सरलता, सादगी, साधुता और सामान्यता भी किसी को सफल बना सकने में सर्वथा समर्थ है। शास्त्री जी की सफलता एवं उन्नति का उदाहरण निःसन्देह उन हजारों लाखों व्यक्तियों के लिये एक प्रेरक प्रसाद है जो जीवन में उन्नति करना चाहते हैं किन्तु अपनी साधनहीन एवं कठिन परिस्थितियों को देखकर हिम्मत हार कर यथा स्थान बैठे रहते हैं।


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