सुख और दुःख दृष्टिकोण मात्र हैं।

March 1966

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सब कुछ साधन सम्पन्न और सूक्ष्म होने पर भी एक नहीं असंख्यों व्यक्ति संसार में चिन्तित और उद्विग्न दिखाई देते हैं। यदि और अधिक गहराई से देखा जाये तो जो जितना साधन सम्पन्न और सुविधाओं से भरा-पूरा है वह उतना ही व्यग्र चिन्तित और विकल दिखाई देगा। इसके विपरीत कम साधनों और अभाव वाले व्यक्ति मस्त और मनमौजी दिखाई देंगे।

जो साधन सम्पन्न है, सुविधाओं से भरा पूरा है उसके अधिक चिन्तित रहने का कारण यह रहता है कि वह व्यक्ति अपनी सम्पन्नता के अभिमान में संसार के सारे सुख अपने लिए चाहता रहता है। वह हर समय प्रसन्न रहने और हँसी खुशी पाने के लिए लालायित रहा करता है। बहुत कुछ सम्पन्नता के बावजूद भी जब वह अप्रिय परिस्थिति के बीच पहुँचता है तो उसका रोम-रोम दुखी हो उठता है। वह सोचने लगता है कि इतना सब कुछ सम्पन्न होने पर भी वह जो दुखी है, वह उसके भाग्य का ही दोष है। उसका सारा ध्यान पूर्व जन्म के पापों का काल्पनिक चिन्तन करने में लग जाता है। इससे उसका पूरा जीवन दुःखी की क्रीड़ास्थली बन जाता है।

दूसरा व्यक्ति अभावग्रस्त होने पर भी बहुत कुछ निश्चिन्त एवं प्रसन्न दीखता है। न उसे अभाव सताता है और न सम्पन्नता की कामना ही क्लेश दे पाती है! भोजन, वस्त्र और निवास की घोर समस्या होने पर भी उसके प्रसन्न रहने का एक कारण उसका सन्तोष है। इसके साथ अनेकों व्यक्ति अभाव और विपन्नता का रोना रोते देखे जाते हैं। उन्हें भोजन, वस्त्र और निवास आदि की समस्याएं घुलाया करती हैं।

एक-सी परिस्थिति के दो व्यक्तियों में से एक को दुखी और एक को प्रसन्न देखकर यही समझ में आता है कि परिस्थितियाँ मात्र ही दुःख-सुख का कारण नहीं हैं। यह मनुष्य का अपना दृष्टिकोण तथा मनोभूमि का स्तर है जो उन्हें दुखी किया करता है।

जिस व्यक्ति को किसी बात के अन्धेरे पक्ष को ही देखने का अभ्यास हो गया है, वह अच्छी से अच्छी बात में भी दुःख चिन्ता का कारण निकाल लेता है और उसी को लेकर सोच-सोच कर दुखी हुआ करता है। दृष्टि दोष के कारण ही किसी वस्तु में दुःख का दर्शन होता है। संयोग के समय जो चन्द्रमा मनोहर दीखता है, वही वियोग के समय कष्टदायक बन जाता है। यदि वास्तव में सुख या दुःख का जन्म चन्द्रमा से ही होता तो क्या संयोगिन और क्या विरहिणी वह दोनों को एक समान ही सुख या दुःख दायक न होता?

सम्पत्ति के लिए रोने और चिन्तित होने वाला व्यक्ति यदि यह सोच ले कि अधिक सम्पत्ति उपार्जन के लिए मनुष्य को उचित एवं अनुचित साधनों का प्रयोग करना पड़ता है जिससे उनकी बुद्धि कलुषित और आत्मा पतित होती है। साथ ही धन सम्पत्ति पा जाने पर उसकी रक्षा करने और बढ़ाने की इच्छा चिन्ता बनकर साथ लग जाती है। तब ऐसी दशा में सुख कहाँ? अभाव के प्रति यदि इस प्रकार सोच लिया जाये कि यह ईश्वर की एक कृपापूर्ण प्रसन्नता है, जिसके कारण वह सम्पत्ति एवं धन दौलत के कारण उत्पन्न होने वाले झंझटों से बच जाता है। संपत्ति को बढ़ाने उसकी रक्षा करने आदि की चिन्ता उसके पास नहीं फटकती। वह निश्चिन्त एवं निर्द्वन्द्व जीवन व्यतीत करता है। सम्पत्ति एवं सम्पन्नता जन्य दोषों से वह सहज ही बचा रहता है। जिससे उसका मन मस्तिष्क तथा शरीर अधिकतर स्वस्थ ही रहता है, और उसके पास दुखी अथवा व्यग्र होने का कोई कारण नहीं रह जाता! सम्पन्नता अथवा विपन्नता मनुष्य के सुख-दुःख का हेतु नहीं होती, हेतु है उसका दृष्टिकोण, सोचने का ढंग और मानसिक स्तर।

जीवन में निश्चिन्त एवं निर्द्वन्द्व रहने के लिए मनुष्य को सुख साधन जुटाने से पूर्व अपनी मनोभूमि को स्वच्छ एवं समुन्नत बनाना चाहिए। इसके बिना वह किसी भी परिस्थिति में सन्तुष्ट नहीं रह सकता। हर समय उसे दुखंद भावनाएं ही घेरे रहेंगी।

मनुष्य का यह हठ कि वह जिस प्रकार की अवस्थायें एवं परिस्थितियां अपने लिये चाहता है उसके विपरीत स्थिति उसके सामने न आवे—उसके दुःखों का एक विशेष कारण है। संसार का निर्माण किसी एक व्यक्ति के लिये तो हुआ नहीं, जिससे वह उसकी इच्छा के अनुसार ही गतिशील रहे। केवल वे ही परिस्थितियाँ सामने लावे जिन्हें वह चाहता है। संसार का निर्माण तो जीवमात्र के लिये हुआ है। सभी प्राणी समान रूप से सुख के अधिकारी हैं। आज की जो परिस्थिति हमारे लिये सुखदायक है, वह किसी अन्य के लिये दुःखदायक हो सकती है। ऐसी अवस्था में उसका बदलना अनिवार्य है। क्योंकि जब तक वह बदलेगी नहीं, दुःखी रहने वाला व्यक्ति सुखी न हो सकेगा। हो सकता है कि जिस परिस्थिति में हमें दुःख का अनुभव होता है वह किसी दूसरे के लिये सुख देने वाली हो। ऐसी दशा में उसका आना बहुत आवश्यक है। सुख-दुःख का क्रमिक आवागमन संसार का शाश्वत विधान है। ऐसी दशा में केवल अपने मनोनुकूल परिस्थितियों का आग्रह न केवल स्वार्थ अपितु ईश्वरीय विधान के प्रति अस्वीकृति है, जो एक प्रकार से नास्तिकता, ईश्वर द्रोह एवं भयंकर पाप है।

सुख-दुःख के प्रति यदि मनुष्य का दृष्टिकोण सम हो जाये तो उसके लिये चिन्ता, शोक, व्यग्रता तथा विकलता के सारे ही कारण समाप्त हो जायें। अपने प्रति सुखद परिस्थितियाँ पाकर जहाँ कोई प्रसन्न होता है, वहाँ प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे और न कुछ इसी विचार से प्रसन्न होना चाहिए जो परिस्थितियाँ मेरे लिए दुःख का हेतु बनी हुई हैं उनमें कहीं न कहीं हमारा कोई दूसरा मानव-बन्धु सुख का अनुभव प्राप्त कर रहा है।

निःसन्देह वह मनुष्य बहुत ही दयनीय है जो सुख में तो प्रसन्न और अप्रिय परिस्थिति में आँसू बहाता है। वह प्रकृति के इस मोटे से विधान को नहीं समझ पाता कि जब उसे प्रसन्नता प्राप्त हुई है उससे पहले वह प्रतिकूल परिस्थितियों से परेशान था। दुःख के कारण दूर हुए और उसे सुख प्राप्त हुआ। आज जब वह दुखंद परिस्थितियों में है तो क्यों रोता है। दुःख के पीछे सुख और सुख के पीछे दुःख संसार का एक अविकल नियम है,न तो यह कभी बदला है और न बदला जा सकता है। तब फिर निरर्थक द्वन्द्वात्मक स्थिति को क्यों स्वीकार किया जाये। बड़ी से बड़ी आपत्ति और भयानक से भयानक दुःख आने पर मनुष्य उससे अभिभूत रहता हुआ भी किसी न किसी समय क्षण-भर को उसे भूल ही जाता है और एक शान्तिपूर्ण स्वाभाविक अवस्था में आ जाता है तब क्या कारण है कि शान्ति के उस क्षणिक समय को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता ।

वास्तविक बात तो यह है कि न तो दुःख हमें हर समय पकड़े रहता है और न उसमें ऐसी कोई शक्ति होती है कि हमारे अनचाहे वह हमें अप्रसन्न अथवा विषादग्रस्त बनाये रहें। यदि ऐसा होता तो एक बार आये हुये दुःख से मनुष्य कभी न छूट पाता। आठों याम जीवन-भर वह एक ही दुखंद स्थिति में तड़पता रहता। किन्तु ऐसा कभी होता नहीं। दुःखद परिस्थितियाँ आती हैं—मनुष्य परेशान होता है—और फिर एक दो दिन में वह स्थिति समाप्त हो जाती है। इसका ठीक-ठीक अर्थ यही है कि दुःख-सुख का अपना कोई अस्तित्व अथवा प्रभाव नहीं है। उसकी वेदना हमारे स्वीकृति, अस्वीकृति पर निर्भर करती है। जिन परिस्थितियों को हम दुःखद स्वीकृत कर लेते हैं वे हमें दुःख और जिन परिस्थितियों को हम सुखद स्वीकार कर लेते हैं वे हमें सुख देने लगती हैं।

मनुष्य की यह स्वीकृति, अस्वीकृति एक मात्र उसके दृष्टिकोण तथा मानसिक स्तक पर निर्भर करती है। यदि हमारा मानसिक स्तर गिरा हुआ है। हममें मनुष्योचित धीरता गम्भीरता और सहिष्णुता की कमी है तो अवश्य ही हम जरा-जरा-सी प्रतिकूलताओं में दुःखी होकर रोते कलपते रहेंगे। इसके विपरीत यदि हम अन्दर से गम्भीर आत्मा से ऊँचे हैं तो कोई भी परिस्थिति हमें प्रभावित नहीं कर सकती। हम सुख-दुःख मय इस नियति-नाटिका को उत्साहपूर्वक देखते हुए जीवन यापन करते रहेंगे। ऐसी स्थिति में तो हमें क्या दुःख और क्या सुख कोई भी विक्षुब्ध न बना पायेंगे।


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