अपने जीवन में प्रकृति को प्रवेश होने दीजिये।

March 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“मैं एक गरीब किसान हूँ। हमारी दुनिया हमारा गाँव, हमारे खेत है। मैंने अपनी सारी जिन्दगी खेतों में ही बिताई है। मुझे छत के नीचे नींद नहीं आती। बरसात में भी कभी-कभी ही मैं छप्पर के नीचे सोता हूँ। हजारों की कमायी मैंने कठोर श्रम द्वारा कमाई है। बचपन में पका भोजन नहीं नसीब हुआ सो कच्चा अन्न खाने की मेरी आदत पड़ गई है। आज भी सभी चीजें कच्ची ही खाता हूँ। जानवरों से मुझे प्रेम है। मैं माँस नहीं खाता। कुरान में शराब की मनाही है। मैंने भी कभी शराब नहीं पी। बकरी का दूध पीता हूँ। आठ घण्टे परिश्रम करता हूँ। पहाड़ियों पर चढ़ने,तैरने, कुएं खोदने में मुझे आनन्द आता है। 6 घंटे की नींद मुझे पर्याप्त है। दोनों समय नहाता हूँ। भगवान का भजन करता हूँ। मेरा जीवन पूर्ण सुखी है।”

उपरोक्त शब्द मिश्र के गाजियाना गाँव के व्यक्ति श्री “रजा बका” के हैं, जिनके स्वास्थ्य को इस युग में आश्चर्य की दृष्टि से देखा जाता है। स्वीडन से लेकर केलिफोर्निया तक के अनेक स्वास्थ्य विशेषज्ञ पिछले कई वर्षों से उनके स्वास्थ्य का गम्भीर अध्ययन करने में लगे हुये हैं। डा. लेसरनेस, फ्राँसीसी सरजन जनरल वेताँ रोशे तथा अनेक स्वीडिश आरोग्य शास्त्रियों ने बका के स्वास्थ्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। रजा बका का वजन 123 पौण्ड, ऊँचाई 5 फुट 8 इंच,उम्र 107 वर्ष। शरीर में कहीं झुर्री नहीं, पूरे दाँत, सीधी कमर,तीव्र नेत्र दृष्टि। 107 वर्ष की आयु में वह पूरे नवयुवक से दिखाई देते हैं। स्वास्थ्य की दुर्बलता, रोग या बुढ़ापे का कोई चिह्न इस व्यक्ति के शरीर में नहीं है।

इस “स्वास्थ्य-वैचित्र्य” पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ व आरोग्य शास्त्रियों ने अपने-अपने ढंग के अनेक मन्तव्य निकाले हैं पर प्रायः सबके सब इस बात पर एक मत हैं कि रजा बका के स्वास्थ्य को चिरस्थायी रखने वाली वस्तु है—प्राकृतिक जीवन पद्धति। बका के उपरोक्त कथन से भी यह बात प्रकट हो जाती है कि उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक अंग में प्रकृति को प्रवेश होने दिया है। सौ वर्ष तक पूर्ण स्वास्थ्य और बलिष्ठ बनाये रखने की क्षमता प्रकृति में है। प्रकृति के बीच रहने, प्राकृतिक आहार विहार रखने, प्राकृतिक जीवन जीने से मनुष्य अपनी पूर्ण-आयु प्राप्त कर सकता है। मृत्युपर्यन्त स्वास्थ्य और आरोग्य का सुखोपभोग कर सकता हैं। इसमें राई-रत्ती भर भी शंका की बात नहीं है।

विचारपूर्वक—देखा जाय तो प्रकृति हमारा पालन-पोषण ठीक ऐसे ही करती है जैसे कोई माता अपने बेटे का। आहार जुटाने से लेकर शारीरिक सफाई तक का प्रत्येक कार्य प्रकृति पूरी तत्परता के साथ निभाती है। वह इस कार्य में गुमराह बन जाय तो मनुष्य का जीना भी कठिन हो जाय। प्रकृति से अलग रहने, बनावटी जीवन जीने में मनुष्य का कल्याण नहीं है। स्वास्थ्य तथा आरोग्य का वरदान भी वह प्रकृति माता की गोद में रहकर ही प्राप्त कर सकता है। हम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये पेड़-पौधों वनस्पतियों,वायु जल, आकाश आदि प्राकृतिक साधनों पर निर्भर हैं। इनकी समीपता में रहने से स्वास्थ्य की मौलिकता बनाये रख सकते हैं। पर लापरवाही के साथ उनकी बर्बादी करने में अपने भविष्य या वंशजों का जरा भी खयाल नहीं करते। प्राकृतिक जीवन तथा प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने के कारण रोग और शारीरिक दुर्बलता का शिकार होना पड़ता है। आश्चर्य होता है कि यह रोग आया कहाँ से? किसी न किसी वस्तु पर दोषारोपण कर या दैव को दोषी ठहराकर संतोष भले ही कर लिया जाय पर सच यही है कि नितान्त अप्राकृतिक जीवन पद्धति के कारण ही मनुष्य के स्वास्थ्य की यह विषम समस्या खड़ी हुई है। इसका उपचार भी एक ही है और वह यह है कि प्राकृतिक जीवन की ओर पुनः लौटा जाय, उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समाविष्ट होने दिया जाय।

पेड़-पौधे हमारे जीवन की रक्षा करते हैं। मनुष्य की पैदा की हुई गन्दी वायु कार्बन-डाई-आक्साइड आदि दूषित तत्व बेचारे वृक्ष ही खाते हैं और बदले में आक्सीजन तत्व जो जीवन रक्षा का प्रमुख साधन है हमारे लिये बराबर देते रहते हैं। फल, तरकारियाँ, फूल, औषधियाँ आदि भी प्रकृति से ही उपलब्ध हैं। वर्षा का कारण तथा वायु की तीव्रता आदि से बचाव भी यही करते हैं। प्रकृति हमारी जीवन-रक्षक है उसकी सान्निध्यता में रहकर हम यह जीवन स्वर्ग-तुल्य बना सकते हैं।

पर मनुष्य अब इस सिद्धान्त से दूर हटता जा रहा है। पेड़-पौधे, बाग आदि लगाने का शौक घट रहा है उलटे वनों का निर्ममता से सफाया किया जा रहा है। मकानों की दूषित वायु में शहरों की गन्दगी में ही रहने का जितना मनुष्य आदी होता जा रहा है उतना ही उसकी उम्र भी कम होती जा रही है। इसके विपरीत अभी भी ऐसे उदाहरण हैं जबकि लोग प्रकृति के संपर्क में रहने के कारण अधिक आयु, स्वास्थ्य शरीर तथा आरोग्य रक्षा के पूर्ण लाभ प्राप्त करते हैं। मनुष्य इस संसार में अन्योन्याश्रित जीवों के एक अंग के रूप में ही रह सकता है। भिन्न रूपधारी प्राणियों के साथ एक भाग में ही रहने में उसकी कुशल है। प्रकृति पर नियंत्रण करने, उसे नष्ट कर डालने से उसका जीवन खतरे में पड़ सकता है, इसके ठोस प्रमाण आज बढ़ती हुई बीमारियों के रूप में सर्वत्र दिखाई पड़ रहे हैं।

प्रकृति के अनुकूल चलने में मनुष्य सुखी, स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रह सकता है। प्रतिकूल चलने में अनेक शारीरिक तथा मानसिक रोगों का प्रादुर्भाव होता है। जीवन की सरसता के लिये प्रकृति-प्रेम अत्यन्त उपयोगी है। इससे जीवन में सन्तोष, उत्साह, उमंग, शान्ति एवं तेजस्विता प्राप्त होती है। प्रातःकाल उन्मुक्त प्रकृति में परिभ्रमण से शारीरिक और मानसिक बल बढ़ता है, चैतन्यता आती है, स्फूर्ति बढ़ती है। प्रकृति मन को प्रफुल्लित रखने और शान्ति प्रदान करने में बड़ी सहायक है। ऋषियों का आवास इसी दृष्टि से सदैव घने जंगलों में रहा है। पक्षियों के कलरव, झरनों की कल कल, फूलों की महक से शरीर और मन को बड़ा सुख मिलता है। प्राण और जीवन तत्व बढ़ता है। सद्प्रवृत्तियों का अन्तःकरण में विकास होता है।

पं. जवाहरलाल जी ने लिखा है—”प्रकृति के इस सुनसान रूप में मुझे अजीब सन्तोष मिला है। एक ऐसा उत्साह और उमंग का तूफान दिल में आया जो पहले कभी नहीं आया था। प्रकृति में दिमागी बल देने की ताकत है।”

प्रकृति का सामीप्य उदासीनता, मानसिक परेशानी तथा नीरसता को दूर करता है। इससे मनुष्य के मस्तिष्क में सुव्यवस्थित जीवन जीने की सूझ पैदा होती है। घर के रहन-सहन में सफाई तथा सजावट की प्रेरणा प्रकृति प्रेम पर आधारित है। कला विकास व चारित्रिक दृढ़ता को प्रभावित करने की अलौकिक शक्ति प्रकृति में है।

रहन-सहन की तरह आहार भी प्राकृतिक रहना स्वस्थ जीवन का मूलमन्त्र है। कच्चे-फल, तरकारियाँ, गाजर, मूली, सकरकंद जैसे पदार्थों में शरीर सुरक्षा तथा अभिवृद्धि के सब तत्व मौजूद होते हैं। रोग बाहर से नहीं आते वरन् वे शरीर के भीतर अप्राकृतिक ढंग के आहार से उत्पन्न विजातीय द्रव्य के कारण ही पैदा होते हैं। प्राकृतिक पद्धति का बुनियादी सिद्धान्त यह है कि रोग अपने को निरोग करने का शरीर की ओर से किया हुआ प्रयत्न है। शरीर अपने को स्वस्थ रखने के लिए ही रोग प्रस्तुत करता है। विजातीय पदार्थ का बढ़ना कम हो तो रोग के आघात भी कम हों इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक आहार ही लाभदायक होता है। शरीर में मल की मात्रा बढ़ने का एक मात्र कारण अप्राकृतिक आहार है।

स्वास्थ्य और आनन्द का जीवन जीने का यह अचूक सिद्धान्त है कि हमारे जीवन की प्रत्येक गतिविधि में प्रकृति का समावेश हो। गाजियाना के रजाबका की घटना इस देश के लिए सामान्य बात रही है किन्तु वह तब थी जब प्रकृति हमारे जीवन का आधार थी। आज इसे भुला देने से स्वास्थ्य की समस्या ने इतना विकराल रूप बनाया है। हम पुनः प्रकृति का आश्रय ग्रहण करें तो कोई कारण नहीं कि हमारा भी जीवन सौ वर्ष से कम हो। प्रकृति हमारी जीवन रक्षा का आधार है हमें उसकी गोद में से हटना नहीं चाहिए। उसकी शरण में बने रहकर सुख, स्वास्थ्य और धन प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118