नारी का सुयोग्य होना आवश्यक है।

March 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

नारी पुरुष की ही अर्धांगिनी नहीं, समाज का भी अर्धांग है। जिस प्रकार पुरुष के पारिवारिक जीवन में वह सुख-दुःख की सहयोगिनी है, उसी प्रकार समाज के उत्थान पतन में भी उसका हाथ रहता है।

किसी समाज का केवल पुरुष वर्ग ही शिक्षित, सभ्य और चेतना सम्पन्न हो जाये और नारी वर्ग अशिक्षित, असंस्कृत एवं मूढ़ बना रहे तो क्या उस समाज को उन्नत समाज कहा जा सकेगा? ठीक-ठीक उन्नत समाज वही कहा जा सकता है, जिसके स्त्री पुरुष दोनों वर्ग समान रूप से शिक्षित, सुसंस्कृत एवं चेतना सम्पन्न हों।

केवल पुरुषों के सुयोग्य बन जाने से कोई भी काम नहीं चल सकता । उसका अपना पारिवारिक जीवन तक सुरुचिपूर्ण नहीं रह सकता, तब सामाजिक जीवन की सुचारुता की सम्भावना कैसे की जा सकती? पुरुष अपनी योग्यता से जो कुछ सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ पैदा करेगा, उसे घर की गंवार नारी बिगाड़ देगी। किसी गाड़ी की समगति के लिये जिस प्रकार उसके दोनों पहियों का समान होना आवश्यक है, उसी प्रकार क्या पारिवारिक और क्या सामाजिक दोनों जीवनों के लिए नारी-पुरुष का समान रूप से सुयोग्य होना आवश्यक है।

किसी भी समाज, देश अथवा राष्ट्र की उन्नति तभी सम्भव है,जब उसमें शिक्षा, उद्योग,परिश्रम,पुरुषार्थ जैसे गुणों का विकास हो। इन गुणों के अभाव में कोई भी देश अथवा समाज उन्नति नहीं कर सकता। यदि इन गुणों को केवल पुरुष वर्ग में ही विकसित करके नारी को अज्ञानावस्था में ही छोड़ दिया जायेगा तो केवल पुरुष का गुणी होना किसी राष्ट्र अथवा समाज की उन्नति का हेतु नहीं बन सकता। पुरुष प्रगतिशील हो और नारी प्रति गामिनी, पुरुष बुद्धिमान हो और नारी मूर्ख, तो भला किसी समाज राष्ट्र अथवा परिवार का काम सुचारु रूप से किस प्रकार चल सकता है? और जिन समाजों में ऐसा होता है वे समस्त संसार में पिछड़े हुए ही रह जाते हैं। जिन परिवारों में पुरुष बुद्धिमान, विचारशील और विद्वान् रहे हैं और नारी अशिक्षिता और गँवार रही है, उन परिवारों की सुख-शान्ति कभी भी सुरक्षित नहीं रह सकी है। अकेले पुरुष की गुणज्ञता कभी भी सुख-शान्ति को स्थायी नहीं बना सकती। स्त्री-पुरुष के सम्मिलन से बने परिवार एवं समाज की उन्नति एवं सुख-शाँति तभी सुरक्षित रह सकती है, जब उसके दोनों घटक समान रूप से सुशिक्षित एवं कर्तव्य विज्ञ हों। ऐसे कलहपूर्ण परिवारों की समाज में आज भी कमी नहीं है, जिनके पुरुषवर्ग बड़े ही विद्वान एवं कर्तव्य-परायण हैं। टालस्टाय, गोर्की, अब्राहम लिंकन, सुकरात आदि न जाने संसार के कितने विद्वान् महापुरुषों के पारिवारिक-जीवन केवल अशिक्षित एवं कर्तव्य-ज्ञान से शून्य नारियों के कारण ही नरक बने रहे।

बड़े-बड़े सम्पन्न और उन्नत परिवार केवल घर की मूर्ख नारियों के कारण बर्बाद हुए हैं और होते रहते हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में नारी का एक महत्वपूर्ण एवं अडिग, अक्षय तथा अनिवार्य स्थान है। उसे जीवन से हटा कर संसार का काम चलाया ही नहीं जा सकता। ऐसी दशा में जब अशिक्षित, मूर्ख एवं कर्तव्यहीन नारियों की बहुतायत होगी तो उनको ही उनके आवश्यक स्थान पर लाना पड़ेगा। ऐसी दशा में क्लेश-कलह का जो सुनिश्चित परिणाम होता है, वह होगा ही। इसके विपरीत जब योग्य नारियाँ समाज में अपना स्थान ग्रहण करेंगी, तब क्लेश-कलह का प्रश्न ही नहीं उठता।

समाज में नारी का बहुत महत्वपूर्ण कर्तव्य एवं स्थान है। सन्तान-रचना से लेकर पुरुष का आश्रय स्थान, घर की सुख-शाँति बहुत कुछ नारी पर ही निर्भर करती है और पारिवारिक सुख-शान्ति पर पुरुष का विकास निर्भर रहता है। इसलिए इस प्रकार के महत्वपूर्ण स्थान की पूर्ति सुयोग्य नारी द्वारा ही होना आवश्यक है।

सम्पन्नता की परिस्थिति में जब अयोग्य नारी जीवन को कंटकाकीर्ण बना देती है, तब विपत्ति और विपन्नता के समय वह पुरुष का क्या हाथ बँटा सकती है? बल्कि उस समय तो वह और भी एक भारी विपत्ति बन जाती है। मध्यकाल में विदेशी आक्रमणों के समय यही तो हुआ। उस समय नारियाँ अन्तःपुर की शोभा मात्र बनी हुई घर में बन्द रहा करती थीं। वे समय की गतिविधि से एकदम अपरिचित यहाँ तक कि द्वार पर आई हुई विपत्ति के समय भी वे उससे अनभिज्ञ रहा करती थीं। आपत्ति के समय होना तो यह चाहिये कि बढ़कर उससे मोर्चा लिया जाय। साहस और बुद्धिमत्तापूर्वक उसका मुकाबला किया जाय, किन्तु होता यह था कि किसी आक्रमण अथवा विपत्ति का अवसर आने पर वे आत्मघात करके अपनी इज्जत बचाती थीं।

इसके विपरीत यदि शिक्षा एवं सामाजिकता के साथ नारी का ठीक-ठीक विकास किया जाता रहा होता तो वह भी हर आपत्ति की सम्भावना से परिचित रहती, उससे बचने और उसका प्रतिकार करने के योग्य होती तब पुरुष को शत्रु से लड़ने और नारी की रक्षा करने का दोहरा दायित्व न निभाना पड़ता। उनकी शक्ति दो भागों में न बँट कर केवल शत्रु से लोहा लेने में ही लगती और तब ऐसी दशा में दुश्मन की दाल इतनी आसानी से नहीं गल पाती। बुद्धिमती एवं वीर नारियाँ न केवल अपनी ही रक्षा में समर्थ रहतीं, बल्कि पुरुष का भी साहस बढ़ाती और हाथ बंटाती।

इतिहास साक्षी है कि जिन-जिन स्थानों की नारियों ने उस समय आपत्ति काल में साहस दिखाया और प्रतिगामिनी के स्थान पर प्रगतिशीलता एवं बुद्धिमत्ता का परिचय दिया, उन-उन स्थानों पर आक्रान्ताओं को अधिकतर पराजित ही होना पड़ा, किन्तु यह रहा अपवाद के रूप में ही। यदि समाज का सारा नारी वर्ग सुशिक्षित एवं जागरूक होता और वह आई हुई अथवा आने वाली विपत्तियों का ज्ञान रख रहा होता तो कोई कारण नहीं कि समाज शत्रुओं का प्रतिरोध पूरी तरह कर सकने में सफल न होता।

मध्य-युग के राजपूत काल में एक से एक वीर योद्धा और बलिदानी हुए हैं, जिनकी तलवार के जौहर और साहस के कार्य आज तक इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे हुए हैं। इसका एक मात्र कारण यही था कि उस समय माताएं अपने पुत्रों को पालने में ही वीरता एवं बलिदान का पाठ पढ़ाया करती थीं। यही कारण था कि माता के पाये संस्कारों के बल पर एक-एक राजपूत योद्धा सैकड़ों शत्रुओं से जूझ जाया करता था। किंतु उस समय माता का यह पाठ परम्परा की तरह ही था। सन्तान को मरने और जूझने की शिक्षा देने की एक प्रथा-सी बनी हुई थी। माताएं केवल यही एक मंत्र जानती थीं। इस परम्परागत पाठ के स्थान पर यदि वे ठीक-ठीक शिक्षित, सावधान और समय व समाज की गतिविधि परख सकने योग्य रही होतीं तो वे अपनी संतान को देश काल के अनुसार वीरता और उत्कृष्टता दोनों गुणों की शिक्षा दे सकतीं। जहाँ वे शत्रु से जूझने का मंत्र सन्तानों के संस्कारों में फूंकती, वहाँ आपस में संगठित रहने, सहिष्णु बनने और मिल-जुलकर करने, सुरा सुन्दरी से बचे रहने, क्रूर और नृशंस न बनने का भी पाठ पढ़ाती, किन्तु ऐसा न हो सका। माताओं के पास विद्या की कमी होने से उनमें प्रत्युत्पन्न बुद्धि की सदैव कमी रही, इससे प्रथा के अनुसार वे सन्तान को वीर तो अवश्य बना सकीं, किंतु मानवीय उत्कृष्टता, महापुरुषों जैसी प्रतिभा उत्पन्न न कर सकीं। देश काल तथा समाज की, राष्ट्र की परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं का ज्ञान तो उनको तभी हो सकता था, जब उनका ठीक-ठीक मानसिक एवं बौद्धिक विकास होता और यह तभी सम्भव था, जब उनकी शिक्षा एवं सामाजिकता के अधिकार देकर इस योग्य बनाया गया होता।

आज का संसार पहले से भी भयानक हो गया है। हर समाज एवं राष्ट्र अपनी सुरक्षा एवं स्वतन्त्रता के लिये जी-जान से जुटा हुआ है। ऐसी दशा में यदि भारतीय समाज ने अपने नारी-वर्ग को समयानुकूल विकसित एवं जागरूक न किया तो किसी समय राष्ट्रीय आपत्ति काल में उनसे सहायता सहयोग मिलना तो दूर उनकी चेतना-शून्यता एक दूसरी विपत्ति बन जायेगी। यदि राष्ट्रीय उत्थान कार्य में योग्य बना कर नारी को भी संलग्न किया जाये तो राष्ट्र की प्रगति तो दोहरी हो ही जायेगी, साथ ही वर्तमान एवं भविष्य दोनों सुरक्षित एवं निरापद बन जायेंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles