मनुष्य की अनेक विशेषताओं में एक विशेषता यह भी कि उसे मलीनता से घृणा और स्वच्छता से प्रेम है। जहाँ साफ सुथरा दिखाई देता है, साफ-स्वच्छ वस्तुयें दिखाई देती हैं वहाँ स्वभावतः सभी आकर्षित होते हैं, पर यदि आँखों के आगे कोई गन्दी वस्तु आ जाय तो तुरन्त उस तरफ से मुँह फेर लेते हैं। कोई दुर्गन्ध आये तो तुरन्त वहाँ से हट कर दूर भाग जाने का प्रयत्न करते हैं। शरीर की हो या कपड़ों की, घर की हो या मुहल्ले की, गन्दगी किसी को भी पसन्द नहीं, सब उससे दूर भागने का ही प्रयत्न करते हैं।
इस बात से यह मालूम होता है कि स्वच्छता और सौंदर्य आत्मा का गुण है। इससे उसे विशेष आत्म-सन्तोष मिलता है। आत्म-विकास के लिये जिन सद्गुणों की आवश्यकता बताई जाती है स्वच्छता उन सब का मूल-मंत्र है। यही कारण है कि यहाँ प्रत्येक कार्य, प्रत्येक धर्मानुष्ठान में स्वच्छता को प्रमुख माना गया है, इसके बिना अपेक्षित पवित्रता का वातावरण बन नहीं पाता। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये हमें इस ईश्वर-प्रदत्त गुण का अधिकाधिक विकास और सदुपयोग करना चाहिये।
स्वास्थ्य—आरोग्य को नष्ट करने वाले जितने भी कारण हैं गन्दगी उनमें सर्वप्रमुख है। शरीर की सफाई का समुचित ध्यान नहीं दिया जाता और इन्द्रिय छिद्रों की पूरी तरह सफाई नहीं की जाती तो शरीर में दाद, खाज, फोड़े, फुँसी, बिवाई आदि बीमारियाँ बनी रहती हैं। वस्त्र साफ नहीं होते और उनमें मिट्टी, तेल, पसीने आदि की दुर्गन्ध उड़ती रहती है तो इस दोषयुक्त वायु से खून की सफाई भी ठीक तरह नहीं हो पाती और भीतरी स्वास्थ्य संस्थान में मल-विक्षेप जमा होने लगता है। इसी प्रकार जिन घरों के आस-पास गन्दी नालियाँ, पेशाब दान, नाव दान, कूड़ा कचरा तथा गन्दगी का ढेर सड़ता रहता है उनके निवासी भी प्रायः किसी न किसी बीमारी में ग्रस्त ही बने रहते हैं।
गन्दगी चाहे शरीर की हो चाहे निवास स्थान की उसका स्वास्थ्य पर सदैव ही बुरा असर पड़ता है। इससे भी अधिक दुष्प्रभाव मनुष्य की मानसिक स्थिति पर भी पड़ता है। गन्दा व्यक्ति कभी बुद्धिमान नहीं हो सकता, उसके कार्य भी गन्दे और फूहड़पन से भरे हुये होंगे। गन्दे व्यक्तियों में ही अक्सर आलस्य का दुर्गुण पाया जाता है। ऐसे व्यक्तियों के प्रति स्वच्छ मस्तिष्क के व्यक्तियों में भी घृणा और अविश्वास की भावना पैदा होती है। किसी भी समाज के लिये यह बहुत अशोभनीय बात है कि वहाँ के नागरिक इस प्रकार गन्दगी के कारण स्वयं भी कष्ट पा रहे हों और दूसरों के लिये भी परेशानी का कारण बन रहे हों।
दुर्भाग्य से भारतीय समाज जितना अन्धविश्वासी, रूढ़िवादी तथा हानिकारक सामाजिक कुरीतियों से ग्रसित है वहाँ एक बात यह भी है कि उसका स्वच्छता और सफाई का स्तर भी बहुत गिरा हुआ है। कुछ दिन पूर्व यहाँ एक विदेशी पर्यटक आया था। स्वदेश लौटने से बाद भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर उसने जो कुछ लिखा वह सन्तोषजनक था पर पर्यटक की कलम से निकले हुये कुछ शब्द ऐसे थे जिनसे भारतीय समाज का एक अत्यन्त भोंड़ा रूप प्रकट होता है। उसने लिखा है कि—”भारतवर्ष में रात में भी लोग भटक नहीं सकते। कदाचित किसी के सामने ऐसी स्थिति आ जाय कि उसे गाँव पहुँचने का रास्ता न मिल रहा हो और अन्धकार के कारण मार्ग भी साफ न सूझ रहा हो तो उसे किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होकर चारों ओर की गन्ध लेनी चाहिये। जिस तरफ से उसे दुर्गन्ध आती जान पड़ रही हो उधर ही चल पड़े तो निश्चय है कि वह जल्दी ही किसी आबादी वाले गाँव में पहुँच जायगा।”
वस्तुतः भारतीय समाज की स्थिति ठीक ऐसी ही है। महात्मा गान्धी गन्दगी को “भारतीय समाज का क्षय रोग“ कहा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये उन्होंने विधिवत् सफाई आन्दोलन चलाने का विचार किया था। बापू जी इस देश में भंगी-मुक्त समाज की रचना करना चाहते थे किन्तु यह दोष इतना बढ़ चुका है कि उन्हें सार्वजनिक स्थानों की सफाई की व्यवस्था से ही छुटकारा न मिला।
अभी कुछ दिन पूर्व ही सर्वोदयी कार्यकर्त्ता बाबू जयप्रकाश नारायण ने कहा था—”दुनिया के सभी देशों में हिन्दुस्तान ही सबसे अधिक गंदा देश है।” इस बात को अस्वीकार करने के कारण भी नहीं हैं। घने बसे, सीलन और सड़न भरे, धुआँ, शोर और तनाव से ग्रसित शहरों का तो कहना ही क्या है—गाँवों में जहाँ लोग अधिक चौड़े में रहते हैं—मल, मूत्र, घूरे, घर आदि सफाई रहित और गंदगी से ग्रसित रहते हैं। इसका कुप्रभाव भी उनके जीवन में देखने को मिल जाता है। आर्थिक साधनों की पर्याप्त व्यवस्था होते हुये भी उनका जीवन स्तर बहुत गिरा हुआ होता है और इसका कारण अधिकाँश यही है कि वे गन्दे रहते हैं और इसके कारण आये दिन बीमारियों से पीड़ित बने रहते हैं। स्वास्थ्य की खराबी के कारण एक ओर आर्थिक अपव्यय होता है, तो दूसरी और उनकी कार्य क्षमता भी घटती है फलस्वरूप जीवन स्तर में सुधार की कोई समस्या हल नहीं होती।
शहरों में, जहाँ कि अधिकाँश जनता शिक्षित होती है वहाँ भी गन्दगी का बोलबाला कम नहीं है। टट्टी और पाखानों की व्यवस्था होते हुये भी लोग गली की नलियाँ के किनारे बच्चों को टट्टी और पखाने के लिये बैठा देते हैं। सार्वजनिक स्थानों की दुर्दशा का तो कहना ही क्या? लोग धुँधलके में टट्टियों की बदबू से बचने के लिये पार्कों के किनारे पाखाना फिर आते हैं और उन स्थानों को भी गन्दा कर देते हैं।
रास्ते चलते खाते जाना और मूँगफली, केले अथवा सिंगाड़ों के छिलके सड़क पर बिखेरते जाने में यहाँ के लोग कोई विशेष हानि अनुभव नहीं करते। किसी भी स्थान में थूक देने या नाक साफ कर देने के दुष्परिणामों पर लोगों ने विचार किया होता तो आज जो शहरों में स्थान-स्थान पर कूड़ा करकट बिखरा दिखाई देता है वह न रहा होता और उनकी सफाई के लिये जितनी व्यवस्था नगरपालिकाएं बनाती हैं उतने से ही काम चल गया होता। पर कठिनाई यह है कि लोग अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीन बने रहते हैं फलस्वरूप गन्दगी को बढ़ते रहने का पूरा अवसर मिलता रहता है।
शरीर, वस्त्र, घर, सामान, सार्वजनिक स्थान इन सभी क्षेत्रों में जो मलीनता पाई जाती है उसका कारण कोई भौतिक कठिनाई नहीं है, मनुष्य का घटिया व्यक्तित्व ही एक मात्र कारण होता है। फुरसत न मिलना नौकर न होना, घर के अन्य लोगों का ध्यान न देना आदि बहाने हो सकते हैं पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं। अपने उन कार्यों को पूरा करने के बाद, जो अपनी आजीविका या व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं, लोगों को इतना समय मिल जाता है जितने से वे अपनी ऐसी आवश्यकता बड़े आराम से पूरा कर सकते हैं। स्नान के लिये सभी लोग कुछ न कुछ समय निकालते हैं, पर इसे जो लोग केवल दो लोटे पानी से शरीर को गीला कर लेना मानते हैं वह उनकी बड़ी भूल है थोड़ा-सा और ध्यान दे लें और शरीर को रगड़ कर साफ कर लें तो सामान्य समय की अपेक्षा अधिक से अधिक पाँच मिनट का ही समय और ज्यादा लगेगा। इतना समय न तो किसी के लिये आपत्तिजनक हो सकता है और न ही इसके लिये किसी प्रकार का बहाना किया जा सकता है।
आँख के आगे कूड़ा-करकट का ढेर लगा रहता है पर वह खटकता नहीं। सामने की नाली में मल और मूत्र सड़ता रहता है पर वह अखरता नहीं। कपड़े गन्दे हो जाते हैं पर उसमें कोई बुराई नहीं जान पड़ती। सामान अस्त-व्यस्त और बिखरा हुआ पड़ा रहता है पर उसे ठीक-ठीक तरह से सजाकर रखने की बात नहीं सूझ पड़ती लोगों का जैसा ढर्रा चलता रहता है उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन करना उन्हें अच्छा नहीं लगता। इस प्रकार घटिया मानसिक स्तर ही गन्दगी का कारण है। यदि अपना उद्देश्य स्वच्छता और सफाई को विकसित करना हो तो यह कोई बड़ी कठिन बात नहीं कि वह पूरा न हो सके। सुरुचि जागृत हो जाय तो सब वस्तुयें स्वच्छ सुव्यवस्थित और साफ रखी जा सकती हैं और उससे मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा भी आसानी से की जा सकती है।