आकस्मिक लाभ का वरदान

March 1966

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धरती कुछ और कहती पर इसका अवसर दिये बिना ही लक्ष्मी जी ने अपना रथ बढ़ा दिया। वे जिधर से भी निकलीं उधर से ही वरदान बरसा देखते-देखते लोगों के घर सोने, चाँदी से भर गये। अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए लोग उल्लास भरे उत्सव मनाने लगे। विपुल धन पाकर उन्होंने आमोद-प्रमोद के अनेक साधन जमा कर लिए। श्रम की ओर अब कौन ध्यान देता? वर्षा आई, कोई खेतों को जोतने न गया। आमोद-प्रमोद से फुरसत ही किसे थी। न बीज बोया गया और न उन्न उपजा। खेतों में खर-पतवार जम गये और घरों में भरे अन्न भंडार की इतिश्री हो गई। भूख से व्याकुल लोग सोना-चाँदी लिए इधर-उधर फिरने लगे। श्रम का अभ्यास छूट चुका था दुर्भिक्ष ने विकराल रूप धारण किया। छाती से सोने की इट बाँधे क्षुधार्त लोग जहाँ-तहाँ तड़प-तड़प कर प्राण त्यागने लगे।

धरती की आँखों में आँसू आ गये। उसने बचे-खुचे पुत्रों से कहा—आकस्मिक लाभ का वरदान वस्तुतः अभिशाप जैसा दुर्भाग्य जनक ही होता है।


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