खिन्न नहीं, प्रफुल्ल रहा कीजिए

November 1965

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खिन्नता एक मानसिक संताप है जो मनुष्य को हर समय जलाया करता है। खिन्नता के कारण न कुछ अच्छा लगता है, न कोई काम करने को जी करता हैं। बात करने में अरुचि होती है, किसी के पास बैठने को जी नहीं चाहता। हर समय मन में एक संभार बना रहता हैं। एक रोष, क्षोभ और तनाव बना रहता है, जिससे सारा जीवन जड़ बन कर म्रियमाण-सा बन जाता है। खिन्न व्यक्ति का कहीं चित्त नहीं लगता। घर में बाल-बच्चों का कोलाहल अखरता है, बाहर दुनिया काटने को दौड़ती है। शून्य एकान्त में श्मशान जैसी भयानकता अनुभव होती है। पढ़ने में जी नहीं लगता, घूमने, फिरने में थकान आती है।

खिन्न-मना व्यक्ति क्षण-क्षण पर घर से बाहर जाता है, बाहर से घर आता है। एक काम छोड़कर दूसरा काम करना चाहता है, किन्तु उसका मन नहीं लगता। उसे न कहीं विश्राम मिलता है और न चैन। सुख-शान्ति तो उसके लिये आकाश-कुसुम हो जाती है। यदि उसका मन लगता है केवल एक बात में कि दुनिया से लुक-छिप कर कहीं बैठ जाये और अपनी मानसिक जलन में तिल-तिल जलकर जीवन की आहुति देता रहे। न उसे कोई काम करना पड़े और न संसार का कोई व्यवहार निभाना पड़े।

खिन्न मन व्यक्ति जब कोई काम करता है तो उसकी ऐसी बेगार टालता है कि काम बनने के बजाय बिगड़ जाता है। जब किसी से बात करता है तब मानों या तो रोता है या लड़ता है। दूसरे का मधुर कथन कटु लगता है और स्वयं की मधुर बात को भी कडुआ करके व्यक्त करता है। खिन्नता, कटुता एवं अरुचिता की जननी है ऐसे व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन ही नीरस और तिक्त बन जाता है। उसकी हर बात और हर काम या तो निर्जीवों जैसा होगा अथवा विक्षिप्तों जैसा। वह मानसिक विक्षेप के वशीभूत होकर किसी काम के योग्य नहीं रहता। यह है खिन्न-मना मनुष्य की दशा।

संसार में खिन्नता के एक नहीं, हजार कारण हो सकते हैं। कोई नुकसान हो सकता है। कोई कुछ कह सकता है, स्वाभिमान को ठेस लग सकती है। कोई परिजन बीमार हो सकता है। पैसे की कमी पड़ सकती है। कोई धोखा दे सकता है, चोरी कर सकता है, निराश कर सकता है, रोग या रंज हो सकता है। इस अनन्त भीड़-भाड़ और विविधताओं से भरी दुनिया में पग-पग पर खिन्नता के कारण सामने आ सकते हैं। कोई भी उनसे नहीं बच सकता।

संसार की विषम परिस्थितियाँ सबके लिये एक जैसी हैं। किसी को भी खिन्नता अथवा विषाद घेर सकता है। सभी लोगों को निराशा एवं प्रतिकूलताओं के बीच से गुजरना पड़ता है। किन्तु संसार के सारे आदमी खिन्न और व्यग्र नहीं दिखाई देते। लोग हँसते, बोलते और उत्साहपूर्वक काम करते हैं। यही नहीं खिन्नता के कारणों के बीच में रहते हुये भी अनेक लोग प्रसन्न दिखाई देते हैं। यदि परिस्थिति के प्रभाव से संसार के सभी व्यक्ति खिन्न रहने लगें तो क्या यह संसार एक पल को भी चल सकता है? प्रत्येक व्यक्ति अपना काम छोड़कर एकान्त में बैठ जाये और खिन्नता की जलन का स्वाद लिया करे। व्यग्रता, खिन्नता निराशा और अप्रियता आदि सबको साथ लेकर चलना ही पड़ता हैं। संसार के सारे काम करने की पड़ते हैं। यदि खिन्नता आते ही सब विरक्ति एवं वेदनापूर्ण स्थिति ग्रहण कर लें तो दूसरे ही क्षण संसार की सारी गतिविधियाँ रुक जायें और यह चलता हुआ, आगे बढ़ता हुआ संसार जड़ होकर जहाँ का तहाँ रुक जाये और नष्ट हो जाये।

संसार कर्मभूमि है। यहाँ सबको कार्य करना ही पड़ता है। बिना काम किसी का गुजारा नहीं हो सकता। आदमी प्रसन्न है तब भी काम करना होगा और खिन्न है, तब भी कार्य से नहीं बच सकता। संसार का सारा विधान ही काम पर निर्भर रहता है। जो जितना कर्मठ है, वह उतना ही आगे बढ़ता है और जो जितना काम से मुँह चुराता है, वह उतना ही असफल रहा करता है। सफलता मिले अथवा असफलता, मनुष्य को काम तो करना ही पड़ेगा। जब तक श्वास चलती है तब तक काम करना पड़ता है। यदि शारीरिक काम बन्द हो जाता हैं तो मानसिक क्रिया-कलाप शुरू हो जाता है। क्या सफल और क्या असफल, क्या प्रसन्न और क्या खिन्न, काम से कोई नहीं बच सकता-संसार के व्यवहार से विरत नहीं रह सकता।

कर्मों की सफलता ही जीवन की सफलता है। कर्मों का विस्तार ही अभ्युदय है और इनकी आधार शिला हैं मानसिक प्रसन्नता। खिन्न मन रहकर कोई भी कार्य कुशलतापूर्वक नहीं किया जा सकता और जब तक कार्य कुशलता की सिद्धि नहीं होती, जीवन की सफलता की कोई आशा नहीं की जा सकती। अस्तु, जीवन में सफलता का श्रेय पाने के लिये मानसिक प्रसन्नता को अक्षुण्ण बनाए रखना बहुत आवश्यक है।

खिन्न व्यक्ति हर समय मन ही मन कुढ़ता, रोता और विषाद करता रहता है। उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता है। जीवन में कोई आशा नहीं रहती। चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखलाई देता है।

संसार में सभी को कभी न कभी खिन्न होना ही पड़ता है, साथ ही उसे उससे छूटकर फिर अपनी स्थिति में आना पड़ता है। बिना खिन्नता से छूटे किसी का काम नहीं चल सकता। निरन्तर खिन्नता की स्थिति में रहने वाला व्यक्ति एक प्रकार से निर्जीव ही हो जाता हैं। जिस जीवन में उल्लास नहीं, उत्साह और प्रसन्नता नहीं, वह मृत ही माना जायेगा। जीवन का अर्थ हैं हँसी-खुशी से जीना और उत्साहपूर्वक काम करना।

जब खिन्नता से छूटे बिना मनुष्य का काम नहीं चल सकता तो फिर उसे जीवन में एक क्षण को भी क्यों अवसर दिया जाय? मनुष्य के मन में जितनी देर भी खिन्नता का विक्षेप रहता है उतनी देर ही वह एक भीषण आग में जलता रहता है, जिससे जीवन का बहुत-सा तत्व नष्ट हो जाता है। खिन्नता एक दिन में जितना जीवन तत्व जला देती है उतना जीवन तत्व एक महीने में भी प्राप्त होना कठिन है। जितना समय खिन्नता में व्यर्थ चला जाता है। उसका उपयोग एक अच्छा काम करने में किया जा सकता है।

किसी प्रतिकूलता अथवा अप्रियता के प्रभाव से खिन्न होकर बैठ रहना उससे छूटने का उपाय नहीं है। किसी बीती घटना की याद करना, उसके लिये रोना, कल्पना या चिन्ता करना ठीक नहीं। भूतकाल की किसी अप्रिय घटना से त्रस्त होकर बैठ जाने और उसके चिन्तन में समय खराब करने का अर्थ है आप अपने उज्ज्वल भविष्य के लिये भी अन्धकार का प्रबन्ध कर रहे हैं। जितनी देर आप बैठकर खिन्नता की क्रिया-प्रतिक्रियाओं को सहन करते और पीड़ित होते हैं, उतनी देर यदि प्रसन्न चित्त रहकर काम करें तो जीवन में अनेक सफल कदम आगे बढ़ सकते हैं।

जीवन को सुखी और सफल बनाने का एक ही उपाय है कि आप एक क्षण को भी खिन्नता के वशीभूत न हों। अप्रिय परिस्थिति उत्पन्न होने पर भी प्रसन्न चित्त रहिये। संसार के प्रति अपना दृष्टिकोण इस प्रकार का बनाइये कि आप को प्रतिकूलताओं में भी सफलता और समुन्नति के पद-चिह्न दिखाई दें। अपना मानसिक स्तर इतना ऊँचा उठाइये कि संसार की छोटी-बड़ी कोई भी प्रतिकूलता आप का मानसिक संतुलन अस्त-व्यस्त न कर सके। प्रतिकूलताओं में भी हँसिये, कठिनाइयों में मुस्कुराइये और असफलता में सफलता की सम्भावना देखिये। विरोध को विरोध के रूप में न लेकर उसे प्रेरणा के रूप में स्वीकार कीजिये। कटुता का उत्तर मधुरता में दीजिये। हानि-लाभ सुख-दुःख, उत्कर्ष और अपकर्ष में तटस्थ रहिये। इनसे उस सीमा तक प्रभावित न होइये कि आप के लिये विषाद, निराशा, निरुत्साह अथवा व्यग्रता का कारण बन जाये। सामने आई हुई द्विविधाओं को संसार का सहज घटना चक्र समझकर निर्विकार भाव से सहन कीजिये और तब देखिये कि बड़े से बड़ा कारण आने पर भी आप खिन्न नहीं होंगे।

खिन्नता हर तरह के शोक-संतापों की जड़ है। इसको आश्रय देते ही सम्पूर्ण जीवन-दुःखों का भंडार बन जायेगा। खिन्नता कायर मन की अभिव्यक्ति है। वीर वह है जो संसार के सारे दुःख-द्वंद्वों को तटस्थ भाव से सहन करता हुआ सदा प्रसन्न रहता है।


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