रचनात्मक कार्यों के लिए समय दान

November 1965

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छोटे दुर्बल बालक को उँगली पकड़ कर खड़ा करना और गोदी में लेकर चलाना परिवार के समर्थ लोगों का कर्तव्य होता है। पिछड़ापन तभी दूर होता है जब उस क्षेत्र के समर्थ लोग अपने से दुर्बलों की सहायता करने को उदारता दिखावें। अपना देश अनेक दृष्टियों से पिछड़ा हुआ है, इसी से उसे अंतर्कलह और बाह्य आक्रमण का बार-बार शिकार बनना पड़ता है। यदि ऐसी बात न होती तो रूस, अमेरिका की तरह भारत भी अपनी अगणित विशेषताओं के कारण संसार के अग्रणी राष्ट्रों में गिना जाता। इस पिछड़ेपन को मिटाने के लिए हम में से प्रत्येक प्रबुद्ध, समृद्ध एवं संस्कृत व्यक्ति को बहुत कुछ करना चाहिए। घर के बड़े लोग अपनी सुविधाओं में कमी करके छोटे बालकों, बीमारों एवं वयोवृद्धों की सुविधा जुटाते हैं, वैसी ही उदारता हमें भी दिखानी चाहिए। इस मार्ग पर चलने से ही राष्ट्रीय सशक्तता उत्पन्न की जा सकेगी।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों ने प्रतिदिन नव-निर्माण के लिए एक घण्टा समय लगाते रहने का व्रत लिया है। इस समय को संगठनात्मक एवं रचनात्मक कार्यों से लगाते रहने के लिए पूरे-पूरे उत्साह के साथ कार्य आरम्भ कर देना चाहिए। संगठन इस युग की सबसे बड़ी शक्ति है। इस अस्त्र को हाथ में लिए बिना न व्यक्तिगत उत्कर्ष हो सकता है, न सामाजिक प्रगति हो सकती है, न धर्म एवं संस्कृति का पुनरुत्थान हो सकता है और न सुरक्षा प्रयत्न सफल हो सकते हैं। राष्ट्र की सर्वतोमुखी समर्थता के लिए सज्जनों का सदुद्देश्य के लिए प्रयत्न अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य जहाँ कहीं भी जितने भी हैं वे एक संगठन बना लें। जहाँ युग-निर्माण शाखायें अभी नहीं हैं वहाँ तुरन्त बन जानी चाहिये। इन संगठनों द्वारा उस क्षेत्र में षोडश संस्कार मनाने के लिये हर घर में प्रेरणा देना चाहिये, जहाँ संभव हो सके आयोजन करने चाहिये। परिवारों को नैतिक एवं सामाजिक दृष्टि से प्रशिक्षित करने का यह बड़ा ही प्रभावशाली तरीका है। उसी प्रकार पर्व-त्यौहारों को सामूहिक रूप से मनाया जाय जिससे इन महान अवसरों में सामाजिक उत्कर्ष के जो महान सूत्र संदेश छिपे पड़े हैं उन्हें फिर भारतीय जनता अपना सके और सच्चे अर्थों में सबल एवं समृद्ध बन सके। पर्व और संस्कारों के विधि विधान की छोटी-बड़ी पुस्तकें छप चुकी हैं और उनका साँगोपाँग प्रशिक्षण गायत्री तपोभूमि में हो भी रहा है। हर शाखा से एक-एक प्रतिनिधि इसमें शिक्षण प्राप्त करने के लिये भेजा जाना चाहिये।

पुस्तकालय, प्रौढ़ पाठशालाओं और व्यायामशालाओं की स्थापना हर जगह होनी चाहिये। कोई जगह ऐसी न रहे जहाँ यह रचनात्मक प्रवृत्तियां चल न रही हों।

समाज सुधार के लिये विवाहोन्माद विरोधी आन्दोलन चलाया जाना चाहिये। आदर्श विवाहों की परम्परा आरम्भ करनी चाहिये। इसके लिये टोलियाँ बनाकर प्रबुद्ध कार्यकर्ताओं को घर-घर, गाँव-गाँव और स्कूल-स्कूल में घूमना चाहिये। विवाहों में नेग-जोग, अपव्यय की हानियाँ समझानी चाहिये और जो सहमत हो जाय उनसे विवाहोन्माद की घृणित प्रथा का बहिष्कार करने की प्रतिज्ञायें करानी चाहिये।

माँसाहार, नशेबाजी, जुआ, जाति और लिंगगत असमानता, पर्दा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, गन्दगी, आलस, अन्ध विश्वास, बेईमानी, फैशनपरस्ती, उद्दंडता, अशिष्टता, अश्लीलता आदि दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन के लिये भी युद्ध स्तर पर योजना बनानी चाहिये। यह दुष्ट प्रवृत्तियां भी देशद्रोही, पंचभागी, शत्रु के छत्री-सैनिकों से कम भयंकर नहीं है। इनका उन्मूलन करने के लिये हमें कम से कम एक घंटा और अधिक से अधिक जितना संभव हो अपना समय नियमित रूप से निष्ठापूर्वक देते रहना चाहिये।

जिन आदर्शों को हम उपयुक्त मानते हैं, अब उन्हें कार्यान्वित करने का समय आ गया । हमें कर्मवीर बनना होगा। (1) विजय व्रत (2) शक्ति पुरश्चरण (3) जन जागरण (4) समय दान, यह चारों ही कार्य परिजनों के लिये उनकी निष्ठा की कसौटी के रूप में सामने प्रस्तुत हैं। इनसे विमुख नहीं होना चाहिये।


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