महान मानवतावादी-रोमाँ-रोलाँ

November 1965

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विश्व-साहित्य में जिनकी रचनायें तारों की तरह जगमगाती हैं, जिनके वाक्य आज संसार में सूत्रों की तरह माने जाते हैं और जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य के माध्यम से मानवता का उपकार, उद्धार तथा सेवा करने में लगा दिया उन रोमाँ-रोलाँ का जन्म 29 जनवरी 1866 को क्लामेंसी में हुआ।

वे एक सुप्रसिद्ध वकील के पुत्र थे और बड़े प्यार से पाले गये थे। उनके पिता की हार्दिक इच्छा थी कि वे उन्हीं की तरह पढ़-लिखकर एक अच्छे वकील बनें और अधिक से अधिक पैसा कमाकर संसार के बहुत बड़े धनवान बनें। किन्तु रोमाँ-रोलाँ के विचार इसके विपरीत थे। वे साधारण अवस्था में रहकर अपनी विचार सम्पत्ति से संसार को सम्पन्न बनाना चाहते थे और लेखनी द्वारा मानवता की सेवा करना चाहते थे।

कुछ समय तक अपने जन्म-स्थान क्लामेंसी के स्कूलों में पढ़ने के बाद उन्होंने पेरिस जाकर विद्याध्ययन करने का विचार प्रकट किया। उनके माता-पिता उनके विचारों से तथा उनके जीवन ध्येय से पूरी तरह परिचित हो चुके थे और यह भी जान चुके थे कि यदि उसका विरोध किया गया तो अपनी लगन का पक्का उनका पुत्र हाथ-बेहाथ हो सकता है। जन-सेवा के जिस मार्ग का निर्धारण वह कर चुका है, उसे बदल सकना असम्भव है। अस्तु वे लोग रोमाँ-रोलाँ को लेकर पेरिस चले गये।

पेरिस आकर रोमाँ-रोलाँ ने नार्मल स्कूल में प्रवेश लिया। किन्तु संगीत से रुचि हो जाने से वे उसके ही अभ्यास में दिन-रात लगे रहने लगे जिसके फलस्वरूप वे नार्मल की प्रवेशिका परीक्षा में दो वर्ष तक असफल रहे। अपनी इस असफलता पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। किन्तु वे न तो निराश हुये और न हतोत्साह। उन्होंने अपनी असफलता पर गम्भीरता से विचार किया और और पाया कि उन्होंने अपने विद्याध्ययन के लक्ष्य को संगीत के शौक में बदल दिया और इसी बिखरी हुई लगन तथा ध्येयहीनता के कारण उन्हें असफलता का मुँह देखना पड़ा है। तीसरी बार उन्होंने पुनः परीक्षा की तैयारी की और अब की बार उन्होंने एक मात्र अध्ययन के और किसी प्रकार की रुचि को अपने पास फटकने तक नहीं दिया जिसके परिणामस्वरूप अब की बार वे न केवल उत्तीर्ण ही हुये बल्कि प्रथम श्रेणी में स्थान पाया। इस प्रकार उन्होंने अपनी दो साल की असफलता का सारा मूल्य अपने अध्यवसाय के बल पर प्रथम स्थान पाकर वसूल कर लिया।

चूँकि उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य एक सच्चा साहित्यकार बनना बनाया था इसलिये उसकी प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण तन-मन से विद्याध्ययन में जुट गये। अध्ययन की तन्मयता ने उन्हें इतना प्रखर बुद्धि बना दिया कि वे विद्यालय के एक जगमगाते हुये छात्र गिने जाने लगे और शिक्षकों को उनकी प्रतिभा पर बड़ा विश्वास होने लगा।

अपने तीन साल के छात्र जीवन में ही रोमाँ-रोलाँ ने अपनी योग्यता का सिक्का जमा दिया और उनको रोम के ऐतिहासिक अन्वेषण का कार्य सौंपा गया और उसके लिये पर्याप्त छात्रवृत्ति भी दी गई। अपने विषय का सच्चा तथा पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये रोमाँ-रोलाँ से सम्पूर्ण इटली का भ्रमण किया और बड़े-बड़े, ऐतिहासिक महत्व के रहस्य खोज निकाले। इटली की इस ऐतिहासिक यात्रा ने जहाँ उनको अपने अन्वेषण कार्य में मदद की वहाँ इटली के सुन्दर दृश्यों ने उनके साहित्यकार को भी उद्बुद्ध किया।

अपना भ्रमण तथा कार्य समाप्त करने के बाद, पेरिस में उन्होंने अपने शिक्षा संस्थान नार्मल स्कूल में गान विद्या के इतिहास के शिक्षक का स्थान ग्रहण किया। कुछ वर्षों तक शिक्षक का कार्य निष्ठापूर्वक करने के बाद वे सौर्बोन विद्यालय में बुला लिये गये जहाँ उनकी योग्यतापूर्ण परिश्रमी वृत्ति से प्रभावित होकर भाषा विज्ञान के अध्यापक श्री माइकेल ब्रील ने उनसे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।

जिस समय रोमाँ-रोला ने निश्चिन्त होकर साहित्य सृजन की ओर ध्यान दिया, उसी समय फ्राँस में राजनीतिक उथल-पुथल प्रारम्भ हो गई। फ्राँस की जनता ने निरंकुश राजतन्त्र के विरुद्ध आवाज उठाई। ऐसी दशा में जनता की आवाज की उपेक्षा करके रोमाँ-रोलाँ एकाकी रहकर किस प्रकार साहित्य साधना कर सकते थे? जनता की न्यायपूर्ण आवाज का समर्थन न करके, उस समय किसी अन्य प्रकार के साहित्य का सृजन करना स्वयं एक अन्याय होता। अतएव उन्होंने जन आन्दोलनों में सक्रिय भाग लेना अपना परम कर्तव्य समझा। इसके साथ ही उन्होंने अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर एक पत्रिका भी निकाली जिसके लिये लेख वे स्वयं ही लिखा करते थे। उनके तथ्यपूर्ण लेखों से अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाली जनता को बड़ा बल मिला। अपनी पत्रिका द्वारा रोमाँ-रोलाँ ने जनता का जो हित सम्पादन किया, वह किसी को अच्छे से अच्छे साहित्यिक कार्य से किसी प्रकार भी कम न था।

अपनी इस पत्रिका द्वारा रोमाँ-रोलाँ ने फ्राँसीसी नवयुवकों को जीवन की सच्ची दिशा दी। अपने अधिकार तथा कर्तव्यों के प्रति जागरुक किया। उनकी व्यसन वृत्ति को कम करके उनमें चारित्रिक चेतना जागृत की और पारस्परिक सहयोग तथा सहायता का भाव पैदा किया।

जहाँ एक ओर रोमाँ-रोलाँ के प्रज्ज्वलित लेखों ने फ्राँस की कोटि-कोटि जनता को प्रकाश दिया वहाँ प्रतिक्रियावादी तथा वामपक्षियों को ही नहीं शत्रु बना दिया बल्कि अपना भी शत्रु बना लिया। निदान, जन-विरोधियों ने रोमाँ-रोलाँ को तरह-तरह से परेशान करना तथा सताना शुरू किया। यद्यपि ध्येय के धनी रोमाँ-रोलाँ जन-जागरण के अपने पथ पर अविचल रहे तथापि उनके साथी विरोधियों के अत्याचारों की गर्मी नहीं सह सके और पत्रिका से सर्वथा विमुख हो गये। फलतः सहयोग के अभाव में उस जनवादी पत्रिका का अस्तित्व समाप्त हो गया।

रोमाँ-रोलाँ इस दुःख से निवृत्त न हो पाये थे कि उनकी पत्नी ने अपने पति के राजद्रोह की ओर बढ़ने के भ्रम में पड़कर विवाह विच्छेद करा लिया। पत्नी के इस व्यवहार की चोट भी उनके हृदय पर कुछ कम न लगी तथापि उन्होंने हिम्मत न हारी, और एक प्रकार से विवाह-विच्छेद को अपनी मुक्ति मानकर स्वच्छन्दता की श्वाँस लेकर मन ही मन पूर्ण रूपेण साहित्य सेवी बन जाने का संकल्प कर लिया।

रोमाँ-रोलाँ एक ऐसे विद्वान थे, जो अपनी विद्या का उपयोग मानवता की एकता के लिये किया करते थे। वे किसी देश अथवा राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं को मानवता के विभाजन की रेखा न मानते थे और न वे किसी विशिष्ट सभ्यता अथवा संस्कृति के हिमायती थे। वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के हामी और एक मानव सभ्यता के समर्थक थे। उन्होंने संसार की प्रायः समस्त विचार-धाराओं का अध्ययन किया और जिन विचारधाराओं से प्रभावित हुये उनमें भारतीय विचार धारा का प्रमुख स्थान हैं, जिसकी अभिव्यक्ति उन्होंने रामकृष्ण परमहंस तथा महात्मा गाँधी के जीवन चरित्र लिख कर की। कवीन्द्र-रवीन्द्र तथा योगी अरविन्द के तो वे एक प्रकार से भक्त ही थे।


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