किसी भी मनुष्य अथवा समाज की उन्नति का लक्षण है-सुख-शान्ति और सम्पन्नता। ये तीनों बातें एक दूसरे पर उसी प्रकार निर्भर है जिस प्रकार किरणें सूर्य पर और सूर्य किरणों पर निर्भर है। जिस प्रकार किरणों के अभाव में सूर्य का अस्तित्व नहीं और सूर्य के अभाव में किरणों का अस्तित्व नहीं, उसी प्रकार बिना सुख-शान्ति के सम्पन्नता की सम्भावना नहीं और बिना सम्पन्नता के सुख-शान्ति का अभाव रहता है।
यदि गम्भीर-दृष्टि से देखा जाये तो पता चलेगा कि आरामदेह जीवन की सुविधायें सुख-शान्ति का कारण नहीं हैं बल्कि निर्विघ्न तथा निर्द्वन्द्व जीवन प्रवाह की स्निग्ध गति ही सुख-शान्ति का हेतु है। जिसका जीवन एक स्निग्ध तथा स्वाभाविक गति से बहता जा रहा है सुख-शान्ति उसी को प्राप्त होती है। इसके विपरीत जो अस्वाभाविक एवं उद्वेगपूर्ण जीवन-यापन करता है वह दुःखी तथा अशान्त रहता है। विविध प्रकार के कष्ट और क्लेश उसे घेरे रहते हैं। ऐसा व्यक्ति एक क्षण को भी सुख चैन के लिये कलपता रहता है। कभी उसे शारीरिक व्याधियाँ व्यस्त करती हैं तो कभी वह मानसिक यातनाओं से पीड़ित होता है।
जो बेचैन है, अशान्त है, पीड़ित है, वह सम्पन्नता उपार्जित करने के साधन जुटा ही नहीं सकता। उसे यातनाओं से संघर्ष करने से अवकाश ही नहीं मिलेगा। फिर भला वह सम्पन्नता का स्वप्न किस प्रकार पूर्ण कर सकता है। जो शान्त है, स्थिर है, निर्द्वन्द्व है वही कुछ कर सकने में समर्थ हो सकता है। यदि परिस्थितिवश अथवा संयोगवश किसी को सम्पन्नता प्राप्त भी हो जाये तो अशान्त एवं व्यग्र व्यक्ति के लिये उसका कोई उपयोग नहीं। जिस वस्तु का जीवन में कोई उपयोग नहीं, जो वस्तु किसी के काम नहीं आती, उसका होना भी उसके लिये न होने के समान ही है! अस्तु, सम्पन्नता प्राप्त करने के लिये शान्तिपूर्ण परिस्थितियों की आवश्यकता है और सुख-शान्ति के लिये सम्पन्नता की अपेक्षा है।
इस सम्पन्नता का अर्थ बहुत अधिक धन दौलत से न होने पर भी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति से तो है ही। जो नितान्त निर्धन है, दरिद्री है, वह सुख-शान्ति के लिये कितना ही मानसिक उद्योग क्यों न करे, उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जब भूख लगेगी तब वह किसी साधन, समाधि अथवा भजन-पूजन से दूर न होगी। उसके लिये तो भोजन की आवश्यकता होगी। क्षुधित मनुष्य कब तक अपना मानसिक संतुलन बनाये रखेगा, कब तक उसका विवेक उसे विकल होने से बचा सकेगा? एक सीमा के बाद प्रज्ञावान से प्रज्ञावान शक्ति भी विचलित हो उठेगा। उपयुक्त आवश्यकताओं की समुचित पूर्ति और मनुष्य का अपना संतोष दोनों मिल कर किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के लिये सम्पन्नता ही है। जो निःस्वार्थ, निर्लोभ और अलोलुप है, वही वास्तव में सम्पन्न है। इसके विपरीत जो लालची है, अतिकाम है, लिप्सालु है, वह धनवान होने पर भी दरिद्र है, असम्पन्न है।
उन्नत जीवन के लिये जिस सुख-शान्ति एवं सम्पन्नता की आवश्यकता है, उसे प्राप्त करने के लिये मनुष्य को प्राकृतिक अनुशासन में रह कर ही क्रियाशील होना पड़ेगा। मनुष्य जीवन की तुलना में यदि हम प्रकृति के जीवन, उसके अस्तित्व को देखें तो पता चलेगा कि जड़ होते हुए भी प्रकृति कितनी हरी भरी और फल-फूलों से सम्पन्न है। किन्तु मनुष्य सचेतन प्राणी होते हुए भी कितना दीन और दुःखी है।
इसका मूल कारण है प्रकृति का निश्चित नियमों के अंतर्गत अनुशासित हो कर चलना। समस्त नक्षत्र, तारा तथा ग्रह-उपग्रह एक सुनिश्चित व्यवस्था तथा विधान के अनुसार ही क्रियाशील रहते हैं। वे अपने निश्चित विधान का व्यतिक्रम नहीं करते। कोई लाख प्रयत्न क्यों न करे कोई भी ग्रह अथवा उपग्रह अपने उदय, अस्त तथा परिभ्रमण की गति-विधि में कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। लाख घड़ा से सींचने पर भी कोई पेड़ पौधा बिना ऋतु के फल-फूल उत्पन्न न करेगा।
जो विश्व-विधान समस्त सृष्टि पर लागू है, उसका एक अंश होने से वही विश्व-विधान मनुष्य पर भी लागू है। जिस प्रकार निश्चित नियम का उल्लंघन करते हो सितारे टूट पड़ते हैं, धरती हिल उठती है, उसी प्रकार अपने नैतिक नियमों का उल्लंघन करने पर मनुष्य का सारा जीवन ही अस्त-व्यस्त हो जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है, मानसिक शान्ति समाप्त हो जाती है और आत्मा का अधःपतन हो जाता है। मनुष्य सुख-शान्ति का पात्र बनने के स्थान पर दुःख-दर्द और कष्ट-क्लेशों का भण्डार बन जाता है।
मनुष्य को सृष्टि एवं साधन के रूप में जो कुछ मिला है वह समुचित उपयोग के लिये ही मिला हैं। वह सब इस लिये है कि इसकी सहायता से मनुष्य जीवन को अधिकाधिक समुन्नत तथा सुन्दर बनाये। सुख-शान्ति पूर्वक अपनी पूरी आयु का उपयोग करे। मनुष्य जीवन अल्पायु अथवा अपरूपता के लिये नहीं मिला है। वह अपने में सत्यं-शिवं सुन्दरम् की उपलब्धि करने के लिये ही प्राप्त हुआ है। नियामक ने मनुष्य को विवेक शक्ति देकर अवश्य ही यह अपेक्षा की होगी कि वह संसार का सब से स्वस्थ सुन्दर और शक्ति सम्पन्न प्रतीक बने। वह अपने कर्त्तव्य से संसार को सुंदरतम बनाये और निर्माता का सच्चा प्रतिनिधित्व करे। किन्तु मनुष्य का स्वरूप तथा उसका कार्य-कलाप इस अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत दृष्टिगोचर होता है। यह दिन-दिन अस्वस्थ, असुन्दर और अस्त-व्यस्त होता जा रहा है।
यह निर्विवाद सत्य है कि मनुष्य जब तक नियति-नियमों के अनुशासन में हो कर नहीं चलेगा तब तक दिन-दिन उसका पतन ही होता जायेगा। वह दिन-दिन और अधिक विपन्नता पूर्ण अशान्ति से घिरता जायेगा। वह यों ही रोयेगा, चिल्लायेगा और पग-पग पर नारकीय यातना पाता हुआ कीड़े मकोड़े की तरह मरता रहेगा।
जब सृष्टि के सारे साधन, सारे उपकरण और समस्त सम्पदायें सुख साधन करने के लिये ही मिली हैं तो क्या कारण है कि उनके बीच रहते उनका उपयोग करते हुए भी मनुष्य दीनता दयनीयता और दुःख को प्राप्त होता जा रहा है। जो दूध, दही, घी, अन्न आदि पदार्थ मनुष्य को बच्चे से बड़ा कर, जवान कर स्वास्थ्य एवं सुन्दरता प्रदान करते है एक दिन मनुष्य उन्हीं का उपयोग करता करता रोगी बन जाता है, क्षीण हो जाता है और सारी शक्ति खो देता है।
इसका कारण है मनुष्य का असंयम एवं नियति नियमों के प्रति विद्रोह। जो विद्युत शक्ति मनुष्य के बड़े-बड़े कार्य सम्पादित करती है, वही बिजली अनियमपूर्वक छूने अथवा अनियमित रूप से उपयोग करने पर विनाश का कारण बन जाती है। जो अन्न मनुष्य को जीवन देता है, उसका प्राण कहा जाता है? उसका अनियमित उपयोग प्राणों का संकट बन जाता है।
नियम-नियमनों के अनुकूल चलने और नैसर्गिक अनुशासन मानने पर ही मनुष्य उन्नति एवं समृद्धि की दिशा में अग्रसर हो सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसा कोई अन्य उपाय नहीं है, जो मनुष्य को सुखी अथवा शान्त बना सके।
मनुष्य की केवल दो ही गतियाँ हैं। या तो वह ऊपर चढ़ेगा या नीचे गिरेगा। उसके लिये बीच का कोई मार्ग नहीं हैं। मनुष्य जीवन को यह छूट नहीं हैं कि वह कुछ अनुशासन में रह कर और कुछ अनुशासनहीन होकर बिना विशेष कष्ट क्लेशों के चुपचाप मध्य मार्ग से निकल जाये। मनुष्य जीवन या तो उत्कृष्ट ही होगा अथवा निकृष्ट। जो उत्कृष्ट नहीं है वह अवश्य ही निकृष्ट है। उत्कृष्टता और निकृष्टता के बीच उसकी कोई स्थिति नहीं है।
जब मनुष्य जीवन का उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट ही होना निश्चित है तो उत्कृष्टता प्राप्त करने को बुद्धिमत्ता कहा जायेगा। ऐसा कौन अभागा होगा जो सहज सुलभ उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट जीवनों में से उत्कृष्ट जीवन कौन चुने।
उत्कृष्ट जीवन प्राप्त करने के लिये मनुष्य को नियति-चक्र का अनुसरण और नैतिक नियमों का पालन करना ही होगा। इसके अतिरिक्त उसके सामने कोई उपाय नहीं है। मनुष्य को चाहिये कि वह शुभ संकल्पी, शुभदर्शी और शुभाचार वाला बने। अतिचार तथा अत्याचार को त्याग कर परोपकारी, परिश्रमी तथा पुरुषार्थी बने। जो आचरण शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा अध्यात्मिक हानि करे उसे छोड़ कर ऐसे आचार विचार अपनाने चाहिये जिससे इन चारों तथ्यों का विकास हो।
महान मानव-