हृदय शुद्धि के आवश्यक संस्कार

November 1965

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परमात्मा की शरणागति और आन्तरिक सामर्थ्य के विकास की अनिवार्य प्रक्रियाओं में से हृदय शुद्धि प्रमुख है। ध्यान, धारणा, ब्रह्मचर्य, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि सबका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आन्तरिक शुद्धि से ही सम्बन्ध है। परमात्मा पूर्ण शुद्ध है, सात्विक है। उससे मिलने के लिये आत्म-गति भी वैसी ही होनी चाहिये।

भावनाओं का निवास हृदय में माना जाता है। आत्मा का ब्रह्म तत्व में प्रवेश भी भावनाओं के माध्यम से होता है। भावनायें शुद्ध हों, इसके लिये यह आवश्यक हैं कि उनका मूल स्रोत भी शुद्ध हो। शुद्ध अन्तःकरण से प्रस्फुटित भावनायें ही शुद्ध हो सकती हैं और वे ही शाश्वत आनन्द की प्राप्ति करा सकती हैं।

हृदय की शुद्धि असंभव वस्तु नहीं है। प्राकृतिक नियम के अनुसार सर्वांश में किसी भी व्यक्ति में असमर्थता नहीं होती। कुछ नियम पालन करने से हृदय शुद्धि की समस्या हल हो सकती है। सामर्थ्य का दुरुपयोग न किया जाय तो हृदय शुद्धि स्वतः होने लगती है। इसलिये साधना की वह सभी अन्तरंग क्रियायें अनिवार्य हैं जिनसे सामर्थ्य का विकास होता है।

इन क्रियाओं को मूलतः दो भागों में बाँटते हैं-1. शारीरिक सामर्थ्य का विकास 2. संकल्प। प्रथक का मनुष्य के स्थूल रहन-सहन, आहार-बिहार आदि से सम्बन्ध है और दूसरा विचार और भावना पर आधारित है। जहाँ इन दोनों का मिलाप हो जाता हैं वहीं पूर्णता की स्थिति बन जाती है।

हृदय का सम्बन्ध शरीर की प्रकृति से है, इसलिये शारीरिक शुद्धता और शक्ति का विकास भी आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि अन्नमय कोश के परिमार्जन के साधनों को छोड़कर आत्म-कल्याण की साधना संभव नहीं हो सकती।

प्राणायाम का हृदय की शुद्धि से सम्बन्ध है। उससे प्राणबल बढ़ता है और हृदय में दृढ़ता आती है। स्नायु-मंडल, रक्त शुद्धि, कोष्ठ शुद्धि आदि अनेकों शुद्धियों का सीधा सम्बन्ध प्राण साधना से हैं।

प्रत्याहार, उपवास का सम्बन्ध भी आन्तरिक सफाई और शुद्धता से है, इसलिए कोई व्यक्ति आहार में अनियमितता रखकर हृदय शुद्धि नहीं कर सकता। यह भी आवश्यक क्रियायें हैं उनका पालन भी जरूरी है।

शौच शुद्धि, स्नान, वस्त्रों की सफाई, व्यायाम, आसन आदि क्रियायें जिनका शरीर की प्राकृतिक शुद्धि और उसके सामर्थ्य विकास से कम या ज्यादा संबंध है, उनमें से कोई भी अग्रहणीय नहीं। छोटी-छोटी साधनायें मिलकर ही शरीर शुद्धि, हृदय की शुद्धि में सहायक होती हैं। इसलिए यह सभी ईश्वर प्राप्ति के उपयोगी तत्व हैं। जीवात्मा के ऊपर यह प्रकृति का आवरण चढ़ा हुआ है। उसका भेदन किये बिना कोई व्यक्ति केवल भावनाओं द्वारा ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि प्रकृति शुद्ध हुये बिना हृदय से प्रस्फुटित होने वाले विचार पूर्ण एकाकी नहीं हो सकते कामनायें और वासनायें शान्त नहीं हो सकतीं। इच्छाओं के रहते हुए ब्रह्म की ओर प्रयाण कर पाना संभव भी नहीं हैं।

यद्यपि यह साधनायें भी संकल्प पर ही आधारित हैं, पर वे इतनी कठोर नहीं हैं जितना विचारधाराओं का प्रवाह मोड़ना कठिन होता है। इसलिए इन्हें आवश्यकता और स्थिति के अनुसार घटाया, बढ़ाया भी जा सकता हैं। ये साधनायें व्रत कहलाती हैं। व्रत यद्यपि संकल्प का ही रूप है, पर वह अपेक्षाकृत छोटा और कोमल होता है। उसमें परिवर्तन भी किया जा सकता है।

पर भावनाओं में किसी प्रकार की त्रुटि रखने से ईश्वर प्राप्ति में कठिनता आती है। उसके लिए मनुष्य का हृदय शुद्ध होना ही चाहिए। हृदय की शुद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक वस्तु है पूर्ण सत्यनिष्ठा। अपने भीतर छल, कपट नहीं होना चाहिए। विचार और वाणी, क्रिया और भावना में असंगति नहीं होना चाहिए। जो सत्य है उसे हृदय स्वीकार करे और साथ ही आचरण भी। सिद्धान्त जब तक व्यवहार रूप में प्रकट नहीं होते तब तक उनका कोई महत्व नहीं। भीतर बाहर एक जैसी स्थिति होनी चाहिए आदर्श कुछ और व्यवहार कुछ, इससे न भगवान प्रसन्न हो सकते हैं न आत्मा। अपने आप से, भगवान से कोई लुकाव-छिपाव न रखकर अपनी गतिविधियों में सीधी और उद्देश्यपूर्ण नजर रखनी चाहिये।

अब जब सत्यनिष्ठा आ जाय तो आत्म-दान की कक्षा में प्रवेश करना चाहिये। हृदय की शुद्धि में अहंकार का शेष रहना अपनी साधना को दूषित करना हैं। “मैं” ओर “मेरे” का भाव जब तक रहता है, तब तक आत्मोत्सर्ग की भावना दृढ़ नहीं होती। ईश्वर उपासक को “मेरा कुछ नहीं जो कुछ है सब तेरा है” की धारणा अपनानी पड़ती है। यह धारणा जितनी बलवती होती है, उतनी ही विनम्रता आती है। यह स्थिति बन जाती है तो विश्वास आदि भाव सहज रूप से उठने लगते हैं और आनन्द की अनुभूति होने लगती है। फिर अन्य कोई ऐसी शक्ति नहीं जो साधक को आसानी से लक्ष्य-विमुख कर सके या उसकी शक्ति को घटा सकें। आत्म-दान की स्थिति का क्षणिक सुख भी इतना मनमोहक होता है कि जिसे उसकी अनुभूति हो जाती है, उसे साँसारिक सुख नीरस प्रतीत होने लगते हैं और भोगों से अरुचि होने लगती है।

मनुष्य को जब तक यह भाव रहता हैं कि मैं तपस्या कर रहा हूँ, मुझ में तत्परता है तो बस कठिनाई का यही स्थल है। मनुष्य की अपनी शक्ति बहुत स्वल्प है वह कोई भी उत्तरदायित्व अपने आप पूर्ण करने में समर्थ नहीं है। यदि वह अपने आपको पूर्णतः ईश्वरीय सत्ता के हाथ सौंप देता है तो उसका साहस बहुत चौड़ा हो जाता है और फिर साधना का सम्पूर्ण भार ईश्वर पर आ जाता है। यह अभ्यास करते हुए साधक भी ईश्वर-बोध की स्थिति तक सरलतापूर्वक पहुँच जाता है।

मनुष्य की स्थिति यथार्थतया परमात्मा से भिन्न नहीं है, किन्तु चूँकि उसका अहंकार प्रबल होता है इसलिए यह क्षुद्र और संकीर्ण बना रहता है। ईश्वर अनुभूति के इस “अहंभाव” को नष्ट करना ही हृदय शुद्धि का उद्देश्य है। मनुष्य को यह अनुभव होना चाहिए कि कर्त्ता वह स्वयं नहीं है। प्रेरणायें अन्यत्र से आती है। वह क्रियाशील है, पर कर्म की प्रेरणा कहीं दूर से आती है। इतनी-सी भेद की बात है उसे ही समझना साधना का मुख्य उद्देश्य हैं।

जहाँ हम यह समझते है, आत्मोत्सर्ग से हमारा लक्ष्य, हमारा परमात्मा हमारे सामने रहता है, वहाँ यह भी जानना अनिवार्य है कि अपनी महत्वाकांक्षायें, मिथ्याभिमान भी अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के साथ साधक के अन्तस्तल को अस्त-व्यस्त कर डालने के यत्न में लगे रहते हैं। आपका उद्देश्य धर्म तत्व से कुछ पाने का या आध्यात्मिक पुरुष बनने का हो तो गुह्य आध्यात्मिक शक्तियों का आवाहन करो, किन्तु इस उद्देश्य के पीछे ताँत्रिक, रहस्यमय, योग विद्या के अभिमान की बात नहीं आनी चाहिए। यही भावनात्मक परिशुद्धि को दूषित करने वाले हैं। अन्य कामनायें अशेष रहती हैं तो भी इस प्रकार की महत्वाकांक्षा अंतर्मन में प्रसुप्त पड़ी रहती है और वह बार-बार छलती रहती है। हृदय शुद्धि का उद्देश्य है इस महत्वाकांक्षा को कुचल डालना और अतिशय आनन्द की प्राप्ति के संकल्प को भीतर ही भीतर प्रोत्साहित करते रहना, यह दोहरी प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। एक ओर शुद्धि का कार्य चले और दूसरी ओर सजावट का तो फिर लक्ष्य सिद्धि भी असंदिग्ध हो जाती है।

इन दोनों स्थितियों का सन्तुलन रखने का एक तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है, आत्मालोचन। “शुद्धि और सामर्थ्य विकास” की प्रत्येक क्रिया पर सीधी नजर रखना। हम प्रत्येक नियम का पालन दृढ़तापूर्वक करते हैं या नहीं यह आत्मालोचन का उद्देश्य हैं। हम अपने मार्ग से हटते तो नहीं, उद्देश्य तो नहीं भूल रहे यह बात भी आत्मालोचन द्वारा ही निर्दिष्ट रहती है। दो घोड़ों को जिस तरह एक हाथ की रास सम्हालती है, उसी प्रकार इन परिस्थितियों से साधक का बचाव रखने के लिए यह आवश्यक है कि समय-समय पर उनका गम्भीरतापूर्वक अध्ययन होता रहे। हृदय शुद्धि के संस्कारों में इसलिए अन्य साधनों के साथ सच्चाई पूर्वक अपने आपको परखते रहने का कार्य भी चलते रहना चाहिए तभी शुद्धि और सामर्थ्य विकास की उभयनिष्ठ साधना सफल हो सकती और परमात्मा की शरणागति प्राप्त हो सकती है।


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