सुखी जीवन का मूलाधार, सदाचार

November 1965

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प्राचीन भारतीय साहित्य सदाचार पूर्ण जीवन बिताने की आवश्यकता तथा उपयोगिता के उल्लेखों से भरा पड़ा है। नैतिक व्यवस्था के देवता वरुण की प्रार्थना अत्यन्त विनम्र शब्दों में इस उद्देश्य से की जाती थी कि वह निष्ठापूर्वक सत्य तथा माँगलिकता से पूर्ण जीवन बिताने में मनुष्य की सहायता कर सके । ऋषि ने बताया-

दृते दृœहमा मित्रस्य मा चक्षुषा

सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।

मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे॥

यजु0 36। 18

हे परमेश्वर! हम सम्पूर्ण प्राणियों में अपना ही आत्मा समाया हुआ देखें, किसी से द्वेष न करें और जिस प्रकार एकत्रित एक मित्र दूसरे मित्र का आदर करता है वैसे ही हम भी सदैव सभी का सत्कार करें।

सद्जीवन की व्याख्या स्वरूप महाभारत के वन-पर्व में विचारपूर्ण विवरण मिलता है। महाराज युधिष्ठिर से एक यक्ष पूछता है। ‘भगवन्! दिशा क्या है?” इस पर युधिष्ठिर ने बड़ा ही उद्देश्यपूर्ण उत्तर दिया है कि “जो शुभ है वहीं दिशा है”। अर्थात् मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही सदाचार है और सद्जीवन जीते हुये बिना किसी कष्टसाध्य साधनों के वह जीवनमुक्ति प्राप्त कर सकता है। जिसके व्यवहार, क्रिया और सम्भाषण आदि में मधुरता होती है, उन्हें इस संसार के सुखोपभोग की भी कमी नहीं रहती।

सदाचार का अर्थ है, मानव मात्र की भलाई की भावना रखना। सब के हित को अपना हित समझकर तद्नुकूल आचरण करना। शास्त्रकार के शब्दों में :-

सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत॥

अर्थात्- इस संसार में सबकी सबके प्रति सद्भावना रहे। यह विचार रखना चाहिये कि सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी आत्म-कल्याण को प्राप्त करें और किसी को दुःख न हो। यह शुभ कामनायें ही सद्जीवन का मूल है। इसमें प्राणि मात्र का हित समाया हुआ है।

सदाचार घाटे का सौदा नहीं। कर्त्ता की भावना के अनुरूप सदाचारिता का लाभ मिलता अवश्य है। सहयोग, सहानुभूति, स्नेह, आत्मीयता तथा मैत्री की उसे कमी नहीं रहती जिसके जीवन में सब के कल्याण की भावनायें आई हुई हों। इसके विपरीत जिनके जीवन दुराचरणपूर्ण रहे हैं, उन्हें उसका दण्ड भी अवश्यमेव भोगना पड़ा है। रावण अपने असंख्य पुत्र-पौत्रों समेत मारा गया। दुराचारी दुर्योधन की अनेक अक्षोहिणी सेना भी उसे विजय न दिला सकी। अनियन्त्रित वासना के शिकार हुये विश्वामित्र को अपनी दीर्घकालीन तपश्चर्या के फल से वंचित होना पड़ा। वाजिश्रवा का प्रमाद उसी की पराजय का कारण बना। वसिष्ठ के पुत्र प्रचेता का क्रोध उन्हें ही खा गया। इतिहास के पन्ने-पन्ने में ऐसे असंख्यों उदाहरण मौजूद हैं जिनसे विदित होता है कि पाप और दुराचार मनुष्य की दुर्गति का ही कारण बनता है। उसे जहाँ आत्म-असंतोष बना रहता है वहाँ दूसरे लोग भी उलटा होकर प्रतिकार करने के लिये तैयार बने रहते हैं। दुराचार का दुष्परिणाम कर्त्ता के पास स्वयं ही लौट आता है।

धन मनुष्य को सुखी नहीं रख सकता, क्योंकि वह जहाँ भी रहेगा। वहाँ ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, भय, असन्तोष, विषय और वासनायें भी जरूर होंगी। इनसे मनुष्य के अन्तःकरण में सदैव खिन्नता बनी रहेगी। शारीरिक शक्ति, पद या अन्य कोई भौतिक समृद्धि एक निश्चित सीमा तक ही सुख दे सकती है, किन्तु सदाचारी का आत्मा तो सदैव ही प्रफुल्ल रहता है। वह निडर और निर्भीक होता है। श्रेष्ठ पुरुष दूसरे पापाचारी प्राणियों के पाप को ग्रहण नहीं करता। उन्हें अपराधी मान कर उनसे बदला भी लेना नहीं चाहता मन की रक्षा सदाचार स्वयं ही करता है। क्योंकि सदाचार ही मनुष्य का सच्चा साथी और सत्पुरुषों का भूषण होता है।

सदाचारी के लिये औरों को नेकी की राह पर चलाने के लिये प्रवचन या उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। उनकी निष्ठा ही औरों को प्रेरित करती आर सन्मार्ग की ओर अग्रसर करती है। आचरण विहीन व्यक्तियों द्वारा लाखों उपदेशों का भी कोई महत्व नहीं होता। कौत्स के लिये कुबेर से भी युद्ध करने वाले रघुवंशी दिलीप की दान भावना युग-युगान्तरों तक अक्षुण्ण रहेगी और उससे अनेकों औरों को भी दान करने की प्रेरणा निरन्तर मिलती रहेगी। पितृ-भक्ति, त्याग और आत्म-संयम का जो उदाहरण भीष्म पितामह ने दिखाया उससे अनेकों दलित आत्माओं को भी प्रकाश मिलता रहेगा। महात्मा गांधी की देश भक्ति अब अनेकों देशवासियों के दिलों में घुसकर काम कर रही है। सदाचार सदैव ही अमिट रहता है और निष्ठा के अनुरूप बहुत काल तक लोगों का आन्तरिक और प्रभावशाली मार्ग दर्शन करता रहता है।

सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धियों की प्राप्ति सदाचार से ही सम्भव है। तप, त्याग, कष्टसहिष्णुता, दान, दया, संयम आदि से ही आन्तरिक शक्तियों का जागरण होता है। यह सारे सदाचार के ही विभिन्न अंग हैं। संसार के समस्त धर्मों का उद्देश्य मनुष्य को सदाचार की शिक्षा ही है। परमात्मा की उपासना भले ही न करे पर यदि कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों के साथ आत्मीयता, दया, करुणा, शुचिता और सच्चरित्रता का व्यवहार करता है तो वह किसी उपासना से कम फलदायक न होगा। सद्गुणों के द्वारा सुख और ईश्वर की प्राप्ति यह एक अचल दैवी विधान है। इसे कोई मिटा नहीं सकता।

धार्मिक संगठनों की रचना चरित्र शुद्धि के आधार पर होती है। अमुक प्रकार की आध्यात्मिक योग्यता होने पर ही व्यक्ति उच्च श्रेणी में आ सकता है। कर्त्तव्य की दृष्टि से संकुचित होने पर व्यक्ति और समाज सभी की व्यवस्था में गड़बड़ी फैलती है। इसलिये धर्म सबको सदाचार और स्थिरता का सन्देश देता है। मनुष्य जब अपने स्वार्थ के लिये जात-पाँत, वेष-भूषा, सम्प्रदाय या वाह्य क्रियाकाण्ड को महत्व देने लगता है, तब वह अपने लक्ष्य से गिर जाता है। सदाचार का अर्थ है व्यक्तिगत विकास और सामाजिक व्यवस्था। इससे भिन्न और कोई रास्ता नहीं हैं जिसमें चलकर मनुष्य पूर्णतया सुखी जीवन का रसास्वादन कर सके। धार्मिक संगठनों का उद्देश्य सद्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देना ही है इसलिये धर्म को मानव की मूल प्रकृति के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया गया है।

अपना विकास, अपनी प्रगति और केवल अपने लिये ही सुख की आकाँक्षा किया जाना स्वार्थ वृद्धि है। सबकी भलाई हो यह एक उद्दात्त भावना है। यह मनुष्य की महानता का प्रतीक है कि उसकी भावनायें कितनी ऊर्ध्वगामी है। अब लोगों की ममत्व अथवा अपनत्व की भावनायें बहुत ही संकीर्ण हो गई है इसीलिये एक दूसरे के दुःख और असुविधा का अनुभव नहीं कर पाते। अपना काम बने दूसरों का कितना ही अहित क्यों न हो इस आत्मप्रवंचना के कारण ही लोगों का आत्म विकास रुका पड़ा है।


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