भारतीय गणतंत्र का जब संविधान बना था तो नीति निर्देशक तत्वों में “मद्यपान बहिष्कार” का संकल्प भी संयुक्त किया गया था। आजादी के पूरे 17 वर्ष बीत गये, किन्तु हमारा संकल्प पूरा होना तो दूर उलटे इन दुष्ट व्यसनों का प्रसार और भी बढ़ गया। शराब, सुलफा, गाँजा, भाँग, अफीम, बीड़ी, सिगरेट, चाय-काफी आदि का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इतनी अधिक बढ़ी कि उसके लिये न जाने कितने उद्योग-धन्धे खोलने पड़े। उद्योगों की बढ़ोत्तरी से विज्ञापन बढ़ा और नशार्थियों का एक नियमित प्रशिक्षण ही होता चला आया। यह समस्या अब इतनी जटिल हो गई है कि उससे जन-स्वास्थ्य को भारी खतरा उत्पन्न हो गया। क्या पढ़े, क्या अनपढ़ जनता, नेता, समाज सुधारक सबके सब इन व्यसनों में जकड़े पड़े हैं और आने वाली पीढ़ी का गलत मार्ग-दर्शन करने में लगे हुये हैं। यह इस देश के नाम पर बहुत बड़ा कलंक है।
नशा कोई भी हो यह अनिष्टकारी और त्याज्य ही होता है, किन्तु शराब तो आर्थिक, सामाजिक तथा नैतिक बुराइयों की जड़ ही है। पढ़े लिखे लोग भी इसका प्रयोग करते हैं। इसे मानवीय सभ्यता के विनाश की पूतना ही समझना चाहिये। महात्मा गाँधी नशाबन्दी तथा मद्य-निषेध के कट्टर समर्थक थे। वे कहा करते थे-”यदि मुझे कुछ घण्टों के लिये ही भारत का राज्य चलाने को मिल जाय तो मैं पहला काम यह करूंगा कि सारे देश में शराब-बन्दी हो जाय और शराब का व्यवसाय सदा के लिये बन्द कर दिया जाय। “ महात्मा गाँधी शराब से होने वाली अनैतिकता को खूब भली- प्रकार समझते थे। इसीलिये सत्याग्रह आन्दोलनों में उन्होंने शराब की दुकानों में धरना देने और लोगों को शराब न पीने की बात समझाने की भी व्यवस्था की थी।
नशे का सीधा प्रभाव मनुष्य के शरीर और मन पर पड़ता है जिससे लोगों का स्वास्थ्य उसी समय से गिरने लगता है, जीवन तत्व नष्ट होता है, आयु घटने लगती है। नशा खाने या पीने से जो शरीर के खून में एकाएक तेज उत्तेजना आती है उससे कुछ देर के लिये खून की नाड़ियों में तथा हृदय में तीव्र हलचल पैदा होती है। यह प्रतिक्रिया उस तूफान की तरह होती है जो सारे वातावरण को उखाड़-पछाड़ कर रख देती हैं। इस प्रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली गैस ही मस्तिष्क में भरकर मदहोशी, उन्माद तथा मानसिक कमजोरी का रूप धारण करती है। जब नशा उतर जाता है तो सारी नस-नाड़ियाँ शिथिल पड़ जाती हैं। खून का प्रवाह मन्द पड़ जाता हैं और उसके विषैले तत्व उमड़ आते है और सारे शरीर को रोग और दुर्बलता का अड्डा बना लेते हैं।
पाचन संस्थान पर नशों का हानिकारक प्रभाव पड़ता है। मंदाग्नि हो जाती है। भोजन में अरुचि उत्पन्न होने लगती है जिससे शरीर के लिये पोषण प्राप्त करने का द्वार धीरे-धीरे बन्द होने लगता है। शरीर दिनों-दिन दुर्बल होता जाता है।
मन पर होने वाला आघात शारीरिक आघात से बढ़कर है। नशेबाजी से मन विषयोँ की ओर बढ़ता है। व्यसन और वासना का घनिष्ठतम सम्बन्ध है। अतः एक ओर नशे को तीव्र प्रतिक्रिया से जहाँ शारीरिक शिथिलता उत्पन्न होती है वहाँ मनोविकार जड़ जमाते हैं और मनुष्य को बुराइयों की ओर प्रेरित करते हैं। लोग इस कुप्रभाव में आकर वीर्य जैसी शारीरिक शक्ति को बरबाद करते हैं ओर स्वास्थ्य को खोखला बनाते हैं। जन-संख्या बढ़ने का एक प्रबल कारण यह नशा भी है जिसके कारण अधिकाँश लोग काम वासनाओं में घिरे रहते हैं।
हर प्रकार का नशा मनुष्य शरीर के लिये हानिकारक है। उसके कारण न केवल मनुष्य शरीर के साथ, बल्कि मानव-आत्मा के साथ भी भारी द्रोह होता है। जिस राज्य या राष्ट्र के नागरिक नाना प्रकार के व्यसनों में डूबे रहते है। उसका जीवन न सिर्फ अपने लिये, वरन् समूचे समाज और राष्ट्र के लिये भी भार-रूप बन जाता है। वे स्वयं तो अपने नागरिक धर्म और कर्त्तव्य का पालन करने में असमर्थ हो ही जाते हैं पर इसके साथ ही इस असमर्थता का बोझ परिवार, समाज और राष्ट्र को लम्बे-समय तक ढोना पड़ता है। नशाखोर आदमी के जीवन में जिन अनेकानेक दुर्गुणों, दोषों और दुराचरणों का प्रवेश होता है, उनके कारण समाज को कई प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ती है और राष्ट्र को समाज की सुव्यवस्था तथा सुरक्षा के लिये भारी खर्च उठाना पड़ता है। इसका बोझ लौटकर नागरिकों पर ही पड़ता है। इस दोहरी मार के कारण समाज और शासन के स्वस्थ विकास की गति कुँठित होती रहती है और जिन आयोजनों से राष्ट्र का विकास हो सकता था उन्हें रोक देना पड़ता है।
हमारे देश में पहले ही बहुत निर्धनता है। अपनी विकास-समस्याओं के लिये उसे दूसरों से कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में इस आन्तरिक कमजोरी को बढ़ाना एक प्रकार से राष्ट्र-द्रोह ही माना जायगा। यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारी आय इतनी कमजोर होते हुये भी केवल नशेबाजी की पूर्ति के लिये विदेशों से बढ़िया किस्म की महँगी शराब मँगाई जाती हैं। जिस राष्ट्र में इस तरह के व्यसनी नागरिक हों, उसका विकास संतोषजनक नहीं माना जाता क्योंकि उनमें कर्त्तव्यनिष्ठा का अभाव होना ही समझा जाता है।
नशा स्वास्थ्य को गिराता है, मन को अनैतिक बुराइयों की ओर प्रोत्साहित करता है। इससे भी बड़ी बुराई यह है कि इस से आलस्य और प्रमाद बढ़ता है तथा समय का भारों अपव्यय होता है। कार्यक्षमता पर समय नष्ट करने का बुरा प्रभाव पड़ता है। जितने समय में लोग कोई आर्थिक धन्धा कर सकते थे, उसे प्रमाद में या मूर्छित अवस्था में बिगाड़ते रहते हैं। यही कारण है कि केन्द्रीय शासन के योजना आयोग ने नशाखोरी की गम्भीर समस्या पर पूरी तरह से सोच-विचार करके यह तय किया कि पंचवर्षीय योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाने के लिये नशा-बन्दी पर पूरा, अमल किया जाय। बिना इसके कार्य-क्षमता न बढ़ेगी। इस सम्बन्ध में राज्यों के नाम केन्द्र से अनेक आश्वासन भी दिये गये किन्तु यह समस्या घटने के स्थान पर दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है और उसके कारण राष्ट्रीय चेतना को जबर्दस्त धक्का लग रहा है।
इस अव्यवस्था को अधिक काल तक चलते रहने दिया गया तो जिस औसत से उसका प्रशिक्षण और उद्योग बंद रहा है, उससे लगता हैं कि आने वाले भारत का प्रत्येक नागरिक व्यसनी होगा। कम से कम धूम्रपान की आदत तो सभी में होगी। इस तरह यदि हमारा आर्थिक ढाँचा किसी तरह से संतुलित हो भी जाय तो चारित्रिक दृढ़ता की बात पूरी न हो पायेगी। दुर्बल और बाह्य अनुकरण के विचारों वाले लोग कितना ही धन सम्पन्न क्यों न हो जायँ, वे आन्तरिक दृष्टि से सुदृढ़ न रह सकेंगे ओर उनकी भी ऐसी ही अवस्था बन जायेगी जैसी आज दूसरे धन-सम्पन्न योरोपीय देशों में हो रही है। हमारी नासमझी पर हमारी भावी सन्तानें ही हमें कोसेंगी और बुरा भला कहेंगी।
हम यदि उस व्यसन से दूर हैं तो यह नहीं सोचना चाहिये कि दूसरा यदि कुटेबों में ग्रसित है तो हमें उससे क्या प्रयोजन? वरन् हम समाज से इस तरह सम्बद्ध हैं कि उसकी किसी भी बुराई से हम अछूते नहीं बच पाते। बीड़ी-सिगरेट का छोड़ा हुआ धुँआ प्रत्यक्ष न सही अप्रत्यक्ष रूप से हमारे पेट के अन्दर पहुँचता है और कम ज्यादा प्रभाव तो डालता ही है। दुर्व्यसनों से होने वाली नैतिक भ्रष्टता से हम और हमारे परिवार बचे रहेंगे ऐसी कोई गारन्टी नहीं है। बदमाश के लिये सब एक से है बुराई अवसर पाने पर हर किसी को धौंसती हैं। वह कभी भले या नेक व्यक्ति का विचार नहीं करती।
अतः प्रत्येक विचारवान व्यक्ति का यह व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है कि वह नशे की बुराइयों को समझ कर उनसे दूर भी रहे और साथ-साथ जो इनके शिकार हो चुके हैं, उन्हें भी उनसे निकालने का प्रयत्न करे। सामाजिक आचरण में पवित्रता लाने के लिये सरकार का मुँह कब तक ताकेंगे? यह कार्य अब नागरिक स्तर से ही शुरू किया जाना चाहिये। हमें यह आन्दोलन अपने आप, परिजनों एवं पड़ौसियों से ही उठाना चाहिये कि नशा आत्म द्रोह है। उससे बचने में ही अपना, समाज और राष्ट्र का कल्याण है।