देवी जोन आफ आर्क

November 1965

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पन्द्रहवीं शताब्दी का प्रथम चरण था। फ्राँस पराधीन था। अंग्रेज जाति का अत्याचारी शासन उस पर चल रहा था। फ्राँस की जनता त्राहि-त्राहि करती हुई रक्षा के लिये प्रभु से प्रार्थना कर रही थी। चारों ओर अन्धकार तथा निराशा का वातावरण छाया हुआ था। हर व्यक्ति अरक्षित तथा अशान्त था।

अंग्रेज जहाँ जिस गाँव में जाते, वहाँ की जनता पर अत्याचार करते। घरों में घुस जाते ओर माल असबाब के साथ स्त्रियों की इज्जत भी लूटते। अंग्रेज सैनिकों के आगमन का समाचार सुनकर लोग घर-बार छोड़कर जंगलों में छिप जाते और जब उद्धत सैनिक मनमानी करके चले जाते तो जंगलों से निकल कर आते और उनके बिगाड़े हुये को बनाते। फ्राँस की जनता का यह एक साधारण कार्यक्रम बन गया था। प्रजा सोचती थी उसका कोई रक्षक राजा नहीं और राजा सोचता था कि उसकी कोई राजभक्त प्रजा नहीं। बड़ा भयंकर तथा वीभत्स समय था। फ्राँस की जनता के लिये एक ईश्वर को छोड़कर अन्य कोई सहारा न रह गया था।

फ्राँस की देवी जोन आफ आर्क का जन्म ऐसे ही संक्रामक समय में हुआ था। कुछ तो अंग्रेजों के स्थायी आतंक और कुछ अपने स्वभाव के कारण जोन के माता-पिता नित्य प्रति भगवान का भजन तथा प्रार्थना किया करते थे। वे दोनों अधिक से अधिक पवित्र रहने का प्रयत्न किया करते थे। जोन की माता तो एक प्रकार से भगवद्भक्ति की जीती-जागती प्रतिमा ही थी।

देवी जोन जब कुछ सयानी हुई तब वह प्रार्थना पूजा के समय अपनी माता के पास बैठती और बड़े ध्यान से पूजा देखती तथा प्रार्थना सुनती। वह धीरे-धीरे माता का अनुकरण करती हुई स्वयं भी उन जैसा क्रिया-कलाप करती और अस्फुट भाषा में प्रार्थना गुनगुनाती। बेटी की यह क्रियायें देखकर माता बड़ी प्रसन्न होती और अपने पास बिठाकर उसे बाइबिल सुनाती और महापुरुषों तथा बलिदानी वीरों के चरित्र सुनाती।

माता के इन्हीं कार्यक्रमों के साथ देवी जोन ने बाल्यकाल की पौरि पार की। अब वह न केवल बाइबिल ओर कथायें सुनती ही थी अपितु उनकी प्रतिक्रिया से संचालित होती। वह बलिदान की कथायें सुनकर कभी रोमाँचित होती तो कभी आँसू बहाती।

किशोरावस्था में आते ही देवी जोन सब कुछ देख, सुनने तथा समझने लगी। लारेन्स प्रान्त के छोटे से गाँव डुमरिम में कोई शिक्षा का प्रबन्ध न होने से जोन की पढ़ाई लिखाई न हो सकी। उसकी माता ने अपनी योग्यतानुसार ही उसे इतना अवश्य पढ़ा दिया था कि अब वह आप ही बाइबिल तथा अन्य वीरों तथा वीर बालाओं की गाथायें पढ़ लेती थी।

अंग्रेजों के अत्याचार की कहानियाँ देवी जोन कानों में भी आने लगीं, जिन पर विचार करते-करते वह आंसू बहाने, रोने लगती और देशवासियों के उद्धार के लिए परमात्मा से प्रार्थना करने लगती। देवी जोन का अधिकाँश समय देशवासियों के उद्धार के लिये ईश्वर की प्रार्थना करने में ही व्यतीत होता। वह खेत पर पिता को भोजन पहुँचाने तथा घर के काम में माता का हाथ बटाने के बाद जो भी समय बचता उसे देशोद्धार की चिन्ता तथा प्रार्थना में ही लगाती।

देशोद्धार तथा मानवता की कल्याण कामना से दिन रात प्रभु चिन्तन में लगे रहने से जोन की आत्मा प्रकाशित हो उठी जिसकी चमक उसके भोले मुख पर एक विलक्षण सौंदर्य बनकर दमकने लगी जिससे वह साकार रूप देवी की तरह आकर्षक हो उठी। उसका पवित्र हृदय प्रसाद, प्रसन्नता बनकर उसके अंग-प्रत्यंग में स्फुरित होने लगा।

देवी जोन के माता-पिता की हार्दिक इच्छा थी कि अपना विवाह कर ले और सुख-चैन का जीवन बिताये, किन्तु जिसके हृदय में देशोद्धार की आग लग चुकी है, जिसके कानों में पीड़ित मानवता की पुकार समा चुकी है, उसे विवाह जैसे सामान्य तथा साधारण संयोगों में सुख-शान्ति कहाँ? उसे सुख-शान्ति तो उसी मार्ग में मिल सकती है जिस पर चलते हुए बलिदान वीरों के चरण घायल करने के लिये मानवता के शत्रुओं ने काँटे बिछा रखे हों। उसे शान्ति तो उसी बलिवेदी पर मिल सकती है जिस पर से कहे हुये उसके अन्तिम शब्द मानवोद्धार के ऐसे मन्त्र बन कर गूंजे जो पीड़ितों को प्रकाश बनकर आततायियों के हृदय में विनाश का विश्वास बन कर ठहर जायें। उसके लिये दाम्पत्य जीवन की सुख सेज पर चैन कहाँ? उसका सुख-चैन तो दीन-दुखियों के उन आँसुओं में निवास करता है जिनको वह उनकी आँखों से अपनी आँखों में भर ले।

देवी जोन के दिव्यतामय रूप लावण्य की प्रशंसा सुन कर अनेकों युवक उससे प्रणय याचना करने आये किन्तु सबको निराश होकर लौटना पड़ा। उसने अपने माता-पिता से स्पष्ट बतला दिया कि वह ‘वर्जिन मेरी’ की तरह आजीवन कुमारी रहकर भगवान के भरोसे मातृ-भूमि का उद्धार करने का प्रयत्न करेगी।

एक तो यों ही देवी जोन अंग्रेजों के अत्याचार की कहानियाँ सुन-सुनकर दुःखी हो रही थी कि तब तक एक अंग्रेज सैनिक टुकड़ी ने जोन के गाँव पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने घर लूटे, जलाये और नारियों को अपमानित किया। अंग्रेजों का अत्याचार देखकर देवी जोन का करुण हृदय द्रवीभूत होकर शत-शत धाराओं में वह उठा। उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की कि, ‘हे करुणाकर भगवान! या तो मुझे अत्याचार मिटाने की शक्ति दे अथवा इस पृथ्वी पर से उठा ले।’ मुझ से मानवता की यह दुर्दशा देखी नहीं जाती।

इस प्रकार देवी जोन घण्टों एकान्त में बैठ कर देशोद्धार के लिये परमात्मा से प्रार्थना करती, आँसू बहाती और आहें भरती। वह बहुत कुछ करना चाहती पर साधनहीन अबला होने से कुछ करते न बनता। एक मात्र, साधन, सम्बल और सामर्थ्य जो कुछ भी देवी जोन के पास था वह था ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ विश्वास। वह अपने अखण्ड विश्वास के साथ प्रभु प्रार्थना तथा उसकी उपासना में लगी रहती।

ज्यों-ज्यों देवी जोन ईश्वर में लीन होती त्यों-त्यों उनमें एक शक्ति आती जाती। ज्यों-ज्यों वे प्रभु का स्मरण करतीं, त्यों-त्यों उनकी आत्मा में एक ध्वनि उठती जाती। धीरे-धीरे उनकी वह आन्तरिक आवाज उन्हें स्पष्ट सुनाई देने लगी। उन्हें ऐसा आभास होने लगा मानो कोई आकाशवाणी उनसे कह रही है-’जोन! तू आचरणवती रहकर ईश्वर पर भरोसा रख।’ उसकी स्वयं की भावनायें देवदूतों का रूप रखकर उसके सामने प्रकट होकर कहने लगीं-’जोन! डीफन की सहायता के लिये युद्ध में प्रवृत्त हो और पतित देश का उद्धार कर।’ जोन ने अबला होने तथा युद्ध कला से अनभिज्ञता प्रकट करते हुये कहा-”एक युद्ध कला अनभिज्ञ अबला किस प्रकार युद्ध कर सकती है?” इस शंका का समाधान करते हुये उसकी अन्तरात्मा ने उत्तर दिया- स्त्री अबला नहीं, वह एक जीवन्त ज्वाला है। जब तक वह अपने स्वरूप से अनभिज्ञ रहती हैं अबला और भीरु बनी रहती हैं। पर ज्यों ही वह अपना स्वरूप पहचानती है, शक्ति की साकार प्रतिमा बन जाती है। अब समय आ गया है, उठ और अपने शक्तिवान स्वरूप को पहचान कर फ्राँस के उद्धार के लिये आगे बढ़ और आतताइयों को संसार से मार भगा। तेरे आगे बढ़ते ही पूरा फ्राँस तेरी सहायता के लिये उठ खड़ा होगा। तू अपने कर्त्तव्य-पथ पर आगे बढ़, देवता तेरी सहायता करेंगे।

देवी जोन को विश्वास हो गया कि फ्राँस के उद्धार के लिये उसे ईश्वरीय आदेश प्राप्त हुआ हैं। ईश्वरीय आदेश की भावना आते ही उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसकी लवंग वल्लरी-सी सुकुमार देहयष्टि में शक्ति का विद्युत प्रवाह बहने लगा। वह उठी और उस सर्वशक्तिमान को नमस्कार करके कर्त्तव्य कर्म में प्रवृत्त होने का संकल्प किया।

जोन ने अपने आत्मालाप को अद्भुत अनुभव की तरह माता-पिता को सुनाया और देशोद्धार की आज्ञा माँगी। अपनी पन्द्रह वर्ष की बेटी के मुख से ऐसी बातें सुनकर माता ने तो विश्वास कर लिया किन्तु पिता ने उसे उसका भ्रम बतलाते हुये घर रहने के लिये प्रेरित किया।

किन्तु जोन को लगन लग चुकी थी, उसका विश्वास अटल हो चुका था। अब घर ठहरना उसके लिये असम्भव था। वह अपनी बीमार चाची की सेवा-सुश्रूषा करने के बहाने पिता से आज्ञा लेकर अपने चाचा के पास वेकुलियर्स चली गई। वहाँ चाचा की सहायता से अनेक अधिकारियों तथा शासनकर्त्ताओं से सहायता पाकर वह ड्यूक आफ लारेन्स तथा चीन जाकर राजा डफिन से मिली। राजा डफिन तथा ड्यूक दोनों ही उसके दिव्य व्यक्तित्व से प्रभावित हुये और परीक्षा लेने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कुमारी जोन अवश्य ही देवी है और उसका यह कथन सर्वथा ठीक है कि फ्राँस का उद्धार करने के लिये उसे ईश्वरीय आदेश प्राप्त हुआ हैं। तपस्या पूर्ण जीवन में वास्तव में एक ऐसा दिव्य चमत्कार आ ही जाता है कि जो भी उसके संपर्क में आता है, वह प्रभावित हुये बिना नहीं रहता।

चीन के शासक ने एक घोषणा पत्र निकाल कर जन-साधारण को देवी जोन, उसके चरित्र, व्यक्तित्व तथा मन्तव्य से परिचित करा दिया। देवी जोन के विषय में जानकारी पाकर जनता में उसके प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ी और वह स्वतन्त्रता संग्राम में उसके साथ पूरा सहयोग करने को कटिबद्ध हो उठी।

चीन में रहकर देवी जोन ने कुछ समय युद्ध-शिक्षा ली और शीघ्र ही उसमें पारंगत होकर, सैनिकों के वीर-वेष में एक काले घोड़े पर सवार होकर ब्लोइन्स नगर की ओर चल पड़ी। वहाँ की जनता ने उत्साहित होकर उसका अभूतपूर्व स्वागत किया और स्वतन्त्रता की देवी कहकर उसे सिर नवाया।

अनन्तर देवी जोन ने आर्लिन्स नगर के उद्धार से फ्राँस की स्वतन्त्रता का संग्राम छेड़ा। आर्लिन्स नगर में प्रवेश करते समय अंग्रेजों ने उसका विरोध नहीं किया, किन्तु जब उसने नगर प्रवेश के बाद अंग्रेजों को इस आशय का पत्र लिखा कि वह रक्तपात को पाप समझती है और इसी लिये अंग्रेजी से अनुरोध करती है कि वे हम फ्राँसीसियों का देश छोड़कर अपने देश चले जायें-तब उनमें युद्ध की उत्तेजना फैल गई। देवी जोन ने ईश्वरीय इच्छा समझ-कर युद्ध प्रारम्भ किया और कुछ ही समय में नगर पर अधिकार कर लिया। नगर के विजय-उत्सव में देवी जोन ने एक सामूहिक प्रार्थना सभा का आयोजन किया और ईश्वर को धन्यवाद दिया।

अनन्तर देवी जोन ने रीम्स, जार्गो, वर्गेसी तथा पेटे आदि नगरों तथा किलों पर अधिकार कर लिया, जिससे देवी जोन की कीर्ति पताका सारे फ्राँस में फहराने लगी। उसने रीम्स के प्राचीन धर्म मन्दिर में राजा डफिन को चार्ल्स सप्तम के नाम से फ्राँस के सम्राट पद पर स्वयं अभिषिक्त किया।

इस प्रकार फ्राँस की स्वतन्त्रता निश्चित करके देवी जोन ने अनुभव किया कि उसका कर्तव्य पूरा हो चुका था। अस्तु उसने चार्ल्स सप्तम से अपने गाँव जाने तथा माता-पिता के पास रहने की अनुमति माँगी। किन्तु चार्ल्स ने उसे अनुमति न दी और पेरिस पर आक्रमण करने की प्रार्थना की। देवी जोन सम्राट के उस अनुरोध को अस्वीकार न कर सकी।

देवी जोन ने इसे भी ईश्वर की इच्छा समझकर और यह विश्वास करके पेरिस के लिये प्रस्थान किया कि परमात्मा अब स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर उसका बलिदान चाहता है।

देवी जोन घायल होकर गिरफ्तार हो गई। एक वर्ष तक कारागार की भयानक यातनायें देने के बाद अंग्रेजों ने उस पर मुकदमा चलाया और कोई भी अपराध सिद्ध न होने पर भी आतताइयों ने उसे 29 मई को रायन नगर के एक पुराने बाजार के चौराहें पर जिन्दा जला का फ्राँस ही नहीं मानवता के महान इतिहास में अमर कर दिया।

देवी जोन के बलिदान के छब्बीस वर्ष बाद फ्राँस में जन क्राँति हुई और जहाँ देवी जोन को जलाया गया था, वहाँ फ्राँस की जनता ने उसकी एक प्रतिमा बनाकर स्वतन्त्रता की देवी की उपाधि दी। आज भी उधर से आते जाते नागरिक उस देवी को अनन्त श्रद्धा के साथ अभिवादन करते हैं।


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