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November 1965

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शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में ठूँस दिया गया है और जो आत्मसात हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो जीवन-निर्माण, ‘मनुष्य’-निर्माण तथा चरित्र-निर्माण में सहायक हों। यदि आप केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हैं, तो आप एक पूरे ग्रन्थालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हैं।”

-विवेकानन्द

भारतीय विचारधारा के इस प्रभाव का कारण जहाँ रोमाँ-रोलाँ की निष्पक्ष ज्ञान-जिज्ञासा थी वहाँ भारतीय विचारधारा की सार्वभौमिकता तथा पूर्णता को भी कम श्रेय नहीं हैं। वेद, शास्त्र, उपनिषद् तथा गीता का ज्ञान ही कुछ ऐसा चमत्कारिक है कि जो भी सच्चे हृदय से इसके संपर्क में आयेगा उसकी संकीर्ण सीमाएं टूटे बिना न रहेंगी और अवश्य ही वह सम्पूर्ण संसार को अपना घर मानने लगेगा। सारी मानवता उसकी अपनी आत्मा बन जायेगी। भारतीय विचारधारा के इसी पुण्य प्रसाद से रोमाँ-रोलाँ आज संसार-भर के अपने नागरिक माने जाते हैं।

रोमाँ-रोलाँ की महत्वपूर्ण साहित्यिक रचनाओं में उनकी नोबुल पुरस्कार प्राप्त पुस्तक ‘जाँ क्रिस्तफ’ के अतिरिक्त उनके वे पत्र भी हैं जो उन्होंने समय-समय पर संसार के कोने-कोने से आये पत्रों के उत्तर में लिखे थे। उनके पत्र निराशों में आशा, और जीवन के प्रति हताश व्यक्तियों में प्राण फूँकने वाले मन्त्रों से भरे रहते थे। विश्व-विख्यात तथा पराकाष्ठा तक व्यस्त रहने वाले विद्वान रोमाँ-रोलाँ को अभिमान छू तक नहीं गया था। ज्यों ही किसी का पत्र उनके पास आया नहीं कि उन्होंने सारा कार्य छोड़कर उसका उत्तर दिया नहीं। रोमाँ-रोलाँ के पास अधिकतर ऐसे व्यक्तियों के ही पत्र आते थे जो जीवन-संघर्ष से ऊब कर अन्धकार में भटकते होते थे। लोग अपनी वैयक्तिक समस्याओं का हल रोमाँ-रोलाँ से माँगा करते थे। हजारों युवक उनमें अपनी स्थिति तथा परिस्थिति के अनुरूप उनसे मार्ग पूछते और प्रकाश माँगा करते थे।

रोमाँ-रोलाँ ने कभी भी पत्रोत्तर में विलम्ब कर कभी किसी को निराश नहीं किया। वे जानते थे कि लोग उन पर तथा उनके परामर्श पर विश्वास करते हैं और आशा करते हैं कि वे उनकी समस्याओं को हल कर सकते हैं। लोगों के इस विश्वास की रक्षा में रोमाँ-रोलाँ ने कभी कोई कसर उठा रखी। क्योंकि वे जानते थे कि किसी आतुर व्यक्ति के विषय में उपेक्षा बरतने का अर्थ है उसे अन्धकार से और भी अधिक गम्भीर तथा सघन अंधकार में ढकेल देना। व्यथित तथा व्यग्र व्यक्तियों को सान्त्वना देने में उन्होंने कभी भी अपने बहुमूल्य समय का अपव्यय नहीं माना। अपने पत्रों द्वारा रोमाँ-रोलाँ ने मानवता की जितनी सेवा की है उतनी सेवा कदाचित ही कोई अपने तन-मन से कर सका हो।

रोमाँ-रोलाँ की प्रतिज्ञा थी कि जो भी व्यक्ति संकट के समय मुझ से सहायता तथा परामर्श माँगेगा, वह उसे तत्काल हजार काम छोड़कर और अपनी बड़ी से बड़ी हानि करके उसकी सेवा करेंगे। किसी भी कलाकार का प्रथम कर्तव्य है कि वह किसी भी आत्मा की पुकार पर उसे हर प्रकार से सहायता करने के लिये कटिबद्ध रहना चाहिये। अपने को साहित्यकार कहने वाला यदि किसी की करुण पुकार पर सहायता के लिये दौड़ नहीं पड़ता तो वह वास्तव में सच्चा साहित्यकार नहीं है। वह भावनाओं का ठग तथा शब्दों का व्यवसायी है।

साहित्य सेवा के अतिरिक्त रोमाँ-रोलाँ उन मानववादियों में थे जो क्या फ्राँस, क्या इटली, क्या इंग्लैंड और क्या भारत जहाँ भी अत्याचार की गूँज- सुनते थे, मानवता की सेवा के लिये दौड़े जाते थे। वे अपने, पराये के संकीर्ण भाव से सर्वथा मुक्त एक महामानव थे।


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