सन्त सुकरात

November 1965

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यूनान के महान दार्शनिक महात्मा सुकरात को आज संसार में कौन नहीं जानता। वे विचारों से दार्शनिक तथा आचार से संत थे। उनका जन्म यूनान के एथेन्स नगर में 469 ई॰ पू0 हुआ था। इनके पिता एक साधारण शिल्पी थे और छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाकर बेचा करते थे। उनके परिवार का गुजर-बसर बड़ी कठिनता से होता था।

कुछ सयाने होने पर वे अपने पिता के काम में हाथ बँटाने लगे। काम से फुरसत पाकर वे एकान्त में चले जाते और घण्टों बैठकर जीवन, जगत और अमीरी-गरीबी पर विचार करते रहते थे। गरीबी के कारण उन्हें पढ़ने-लिखने का अवसर न मिल सका था, किन्तु निरन्तर चिन्तन करते-करते उनके मस्तिष्क के सूक्ष्म से सूक्ष्म तन्तु खुलने लगे और वे हर विषय पर गहराई से विचार कर सकने में समर्थ हो गये।

इसी बीच यौवन में प्रवेश करते ही यूनान के राज नियम के अनुसार उन्हें फौज में भरती होना पड़ा। कोई दार्शनिक विचारधारा वाला यदि सैनिकों के कठिन तथा कठोर जीवन में पहुँच जाये तो उसकी क्या दुर्गति हो सकती है उसका अनुमान लगा सकना कोई कठिन बात नहीं है। कहाँ विचारों की उड़ान और कहाँ अस्त्र-शस्त्रों की कर्कश आवाज।

किन्तु सुकरात थोथी विचारधारा के दार्शनिक नहीं थे। वे कर्म और कर्तव्य की महत्ता को जानते थे और यह भी जानते थे कि संसार में कभी भावनाओं के उद्यान से निकल कर यथार्थ के तत्व मरुस्थल में भी कदम रखना पड़ता है। जो सच्चा विचारक है, वास्तविक दार्शनिक है, वह हर स्थिति में समान रूप से प्रसन्न तथा क्रियाशील रहता है। दार्शनिकता का सच्चा अर्थ है भी यही कि जीवन के किसी भी संयोग को आवश्यकता की दृष्टि से देखे। हर दशा में धैर्यवान तथा आत्मवान् बना रहे।

सेना में भर्ती होकर सुकरात ने एक सच्चे सैनिक की भाँति अपना कर्तव्य-पालन किया। स्वभाव के सर्वथा विपरीत वातावरण में वे न तो एक क्षण को कभी उदास हुये और न उन्होंने निराशा का अनुभव किया। सेना में रहकर भी उन्होंने जीवन के उस मृत्युमय अंश का भी गम्भीरता से अध्ययन किया और उनके आवश्यक निष्कर्ष निकाले। हर स्थिति में सम- भाव से रहना सुकरात के चरित्र की एक प्रमुख विशेषता थी। धैर्य उनका मित्र तथा अक्रोध उनका सहायक बन्धु था। किसी भी दशा में विचलित होना तो वे जानते ही न थे।

किसी में यह विशेषतायें जन्मजात हो सकती हैं, किन्तु सन्त सुकरात ने यह गुण अपने में प्रयत्नपूर्वक विकसित किये थे। वे निर्धन थे, उनके पिता गरीब थे। यहाँ तक कि रोटी भी कठिनता से मिल पाती थी। सुकरात ने अपनी इस गरीबी को दुःख का नहीं, चिन्तन का विषय बनाया और उसे अपने धैर्य की कसौटी समझकर प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। क्षुधा का आक्रमण होने पर वे चुपचाप एक ओर बैठ जाते और अपने पर उसकी क्रिया प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करते। इस प्रकार अध्ययन करते-करते वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य में जहाँ भूख, प्यास की पीड़ा अनुभव करने वाला एक अंश हैं वहाँ एक अंश ऐसा भी है जिस पर इन सब बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और यदि मनुष्य अपने उस प्रभाव-शून्य अंश के साथ मित्रता रख कर रहे तो उसे संसार का कोई भी दुःख पीड़ा नहीं पहुँचा सकता। वह हर दशा में पूर्ण प्रसन्न तथा सन्तुष्ट रह सकता है। स्पष्ट है मनुष्य के ये दोनों अंश शरीर और आत्मा हैं। शरीर आवश्यकताओं की पीड़ा अनुभव करता हैं, दुःख की अनुभूति करता है, किन्तु आत्मा सदैव ही एक रस निर्विवाद रहा करती है। अपनी इस आत्मा का मित्र बनकर रहने वाला मनुष्य दुःखों के बीच भी सुख का ही अनुभव करता हैं।

शरीर के विषय में भी उनका निष्कर्ष था कि उसकी आवश्यकतायें बहुत कम होती हैं। मनुष्य उन्हें स्वयं हठ पूर्वक बढ़ा लिया करता है। यदि मनुष्य केवल शरीर रक्षा भर की ही आवश्यकताओं को महत्व दे तो वह न तो कभी करीब हो सकता है और न अभावग्रस्त।

सैनिक जीवन का त्याग कर देने के बाद सन्त सुकरात का चिन्तन और भी गहरा तथा यथार्थपरक हो गया।

सुकरात एक दार्शनिक थे, चिन्तक थे, किन्तु अपने लिये ही नहीं। उनका दर्शन, चिन्तन तथा ज्ञान जन-साधारण के लिये था। वे एथेन्स की गली गली में घूमते और जहाँ भी चार-छः आदमियों को इकट्ठा देखते वहीं अपने विचार प्रकट करने लगते। वे गहरे से गहरे विचार इस प्रकार साधारण बातचीत के रूप में रखते थे कि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी उसे दैनिक व्यवहार के रूप में ग्रहण कर लेता था। इस प्रकार वे वास्तव में जनता को उपदेश नहीं देते थे बल्कि एक शिल्पी की तरह जन-जन का निर्माण करते घूमते थे। वे स्त्री, पुरुष धनी और निर्धन तथा ऊँच और नीच से समान रूप से बातचीत किया करते थे।

सन्त सुकरात देखने में बड़े कुरूप थे, नाटा कद, मोटा पेट और चेचक के निशानों से भरा कुरूप चेहरा, तिस पर वेश-भूषा और भी विचित्र। एक फटे पुराने लम्बे से कोट से पूरा शरीर ढंके नंगे सिर और नंगे पैर एथेन्स की गली-कूचों में ज्ञान का भंडार बाँटते घूमते थे। उनके फटे पुराने मैले कुचैले कपड़े तथा कुरूप चेहरे तथा भौंड़े शरीर को देख कर कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि वे ज्ञान की चलती फिरती निधि थे। वे बच्चों के लिये एक तमाशा और सयानों के लिये देवता थे। वे जिज्ञासु भक्तों से घिरे परमहंस सिद्ध जैसे अपने को भूले हुये जन-साधारण को उपदेश दिया करते थे। एथेन्स के मात्र मानव ही नहीं गली, कूचों के कुत्ते-बिल्ली तक उनसे परिचित थे। ज्ञान गौरव से परिपूर्ण वह सरलता की प्रतिमूर्ति सन्त जब एथेन्स की सड़कों पर घूमता होगा तब न जाने कैसा लगता होगा? जिस समय वह किसी चौराहे पर घिरा हुआ मनुष्यों के प्रश्नों का उत्तर देता, उनकी शंकायें समाधान करता और ज्ञान के घूँट बाँटता होगा तब अवश्य ही उसके चारों ओर का वातावरण ऐसा हो जाता होगा, मानो इस पृथ्वी का वह भाग संसार से भिन्न किसी आत्मलोक का कोना है। आत्मीयता का आगार और सहानुभूति की वह चलती-फिरती तस्वीर यद्यपि आज संसार में नहीं है, किन्तु उनके उपदेशों की निधि जाता हुआ अतीत आते हुये भविष्य को देकर उन्हें सदा वर्तमान रखता है और जब तक संसार में ज्ञान की जिज्ञासा बनी रहेगी, मानवता पूर्णता का प्रयत्न करती रहेगी, सन्त सुकरात अपने कथनों के रूप में सदैव अमर रहेंगे।

उनके उपदेश अलौकिकता की अनबूझ पहेलियाँ नहीं होती थीं और न कोई स्वर्गीय सन्देश। उनकी एक-एक बात, एक-एक शब्द केवल मानवता के हिमायती और संसार को सुन्दर बनाने के सूत्र होते थे।

सुकरात सद्गुणों, सत्य तथा निर्भयता के उपासक थे। अपने उपदेशों में वे मनुष्यों को अपने में सद्गुण उपजाकर श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा दिया करते थे और कहा करते थे- श्रेष्ठता कोई ऐसा अलौकिक दान नहीं है जो किसी को भाग्यवश अथवा संयोगवश मिलता हो। श्रेष्ठता एक राजमहल की तरह है जिसका निर्माण सद्गुणों के उपकरणों से किया जाता है जिसका निर्माण सद्गुणों के उपकरणों से किया जाता हैं। अपने में सद्गुणों का विकास करने से कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठ बन सकता हैं। संसार में एक ही पाप है और वह हैं अज्ञान। ज्ञान पुण्य है और उसको प्राप्त किये बिना कोई भी श्रेष्ठ नहीं हो सकता। केवल किसी अच्छे कुल अथवा धनवान घर में जन्म लेने से ही कोई प्रतिष्ठा का पात्र नहीं हो जाता। सच्ची प्रतिष्ठा तो मनुष्य को अपने गुणों से ही मिलती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118