दुःख का एक कारण है अज्ञान। अज्ञान-अर्थात् किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप को न जानना। वास्तविक का ज्ञान न होने से ही मनुष्य गलती करता है और दंड पाता है। यही दुःख का स्वरूप है अन्यथा परमात्मा न किसी को दुःख देता है न सुख। वह निर्विकार है, उसकी किसी से शत्रुता नहीं जो किसी को कष्ट दे, दंड दे।
प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है, इसलिये वह उपासनीय है। परमात्मा प्रकाश रूप में, ज्ञान रूप में ही सर्वत्र व्याप्त है। जो उसे इस रूप में जानते और भजन करते है, उनका अज्ञान दूर होता है। अज्ञान दूर होने से मनोविकार मिटते है, दोषपूर्ण कार्य नहीं होते, फल स्वरूप उन्हें किसी प्रकार की यातना भी नहीं भुगतनी पड़ती। ज्ञानवान परमात्मा की सृष्टि को मंगलमय रूप में देखता है। उसके लिए इस सृष्टि में आनन्द ही आनन्द होता है।
भारतीय-संस्कृति में दीपक का जो असाधारण महत्व है, वह इसी दृष्टि से है। दीपक जीवन के ऊर्ध्वगामी होने, ऊँचे उठने और अन्धकार को मिटा डालने की प्रेरणा देता है। कार्य में प्रतिष्ठित होता है। भावार्थ यह है कि मनुष्य इसलिये वह प्रत्येक मंगल प्रकाश की व्याख्या को समझे। संसार में जो अंतर्निहित ज्ञान है, उसे अपने हृदय में प्रवेश होने दे। जब तक मनुष्य के लिये यह सत्य प्रकट नहीं होता तब तक उसके जीवन का कुछ मूल्य नहीं होता। दीपक कहता है कि तुम्हारे अन्दर जो प्राण जलता है, जो सत, चित और आनन्दमय है, तुम उसे ढूँढ़ो जानो और अपने जीवन के अभावों को दूर कर लो। प्रकाश में सब कुछ साफ और स्पष्ट दिखाई देता है। भय नहीं लगता। ज्ञान से मनोविकार शान्त होते हैं और साँसारिक शूल मिटते हैं। इसलिये जब यह कहा जाता है कि दीपक की उपासना करो तो उसका संकेत ज्ञान की उपासना ही होती है। ज्ञान-अर्थात् प्रकाश ही परमात्मा का दिग्दर्शक स्वरूप है इसलिये प्रकाश की पूजा परमात्मा की ही पूजा हुई।
प्रकाश ही एक तत्व है जो विभक्त होकर दृश्य और दृष्टा बन गया है। वह परमात्मा भी है और मनुष्य शरीर में प्रतिष्ठित आत्म चेतना भी। ऋग्वेद का मन्त्र-द्रष्टा लिखता है-
अयं कविरकविषु प्रचेता-
मतेप्वग्निरमृतो नि धायि।
समानो अत्र जुहुरः सहस्वः
सदा त्वे सुमनसः स्याम॥
-ऋग्वेद 7। 4। 4
अर्थात्-हे प्रकाश रूप परमात्मन्! तुम अकवियों कवि होकर, मृत्यों में अमृत बनकर निवास करते हो। हे प्रकाश स्वरूप! तुम से हमारा यह जीवन दुःख न पाये। हम सदैव सुखी बने रहें।
विश्व में व्याप्त परम-तेज की गाथा ऋषि दार्शनिकों ने पग-पग पर की है। माण्डूक्य उपनिषद् में सृष्टि और तेज दोनों को कार्य और कारण माना है। सृष्टि फल है तो प्रकाश उसका बीज। दोनों एक दूसरे में लिपटे हुये हैं। न प्रकाश से संसार विलग है, न संसार से प्रकाश अलग है। दोनों प्रेम और परमात्मा की तरह दो दिखाई देते हुये भी एक रूप है।
पर हम उस पूर्ण प्रकाश को देख नहीं पाते, क्यों? इसलिये कि हमारा गमन अन्धकार की ओर है। अन्धकार अज्ञान का वैसा ही प्रतीक है जैसे ज्ञान का प्रकाश। वाह्य जीवन में बुरी तरह भटके होने का नाम अज्ञान है। आन्तरिक सत्य को न ढूँढ़ कर भौतिक सुखों से चिपटे हुये हैं। उन्हें छोड़ने का जी नहीं करता वह अन्धकार की ओर बढ़ना हुआ। अँधियारे में साफ नहीं सूझता। कहीं पत्थर से टकरा जाते हैं, कहीं ऊँचे-नीचे में लड़खड़ा जाते हैं। पाँव को काँटा चुभ जाता हैं तो कहीं फिसल कर गिर पड़ते हैं। अन्धकार के गर्भ में दुःख ही दुःख भरा है, इसलिये वह अवाँछनीय है, घृणित और त्याग देने योग्य है।
अग्नि में यह शक्ति है कि वह लोहे के किसी भी टुकड़े को पिघला कर टुकड़ा-टुकड़ा कर दे या अनेक टुकड़ों को जोड़कर एक कर दे। कण कण में जीवन बिखेरने या उन्हें समेट कर एक कर देने का कार्य प्रकाश द्वारा होता है।
वह वाह्य और अन्तरंग दोनों कक्षाओं में प्रतिष्ठित हैं पर उसका बाह्य स्वरूप स्थूल और भ्रामक है। इसलिये वह अन्धकार कहलाया और उससे बचकर चलने की प्रेरणा दी गई। इसमें वस्तुओं का स्वरूप बदलता रहता है, स्थिरता नहीं होती पर आकर्षण होता है। इसलिये मनुष्य उसकी ओर जल्दी खिंच जाता है, पर जब उसका रूप बदल जाता है तो उसे दुःख का अनुभव होता है। किन्तु जो आन्तरिक स्वरूप हैं वह अपरिवर्तनशील और चिर सत्य हैं। उसे ढूंढ़ने से परिवर्तनशील जगत के सुख भी भोगने को तो मिलते रहते हैं, पर उनमें आसक्ति न होने से दुःख का आभास नहीं होता। सामान्य दृष्टि से उसके कार्य-कलाप भी अन्य लोगों जैसे ही होते हैं किन्तु आन्तरिक दृष्टि से वह पूर्ण शान्त, स्थिर चित्त तथा पूर्ण आनन्द की अवस्था में होता है। प्रकाश के कारण वह अज्ञान-मूलक कर्मों में भटकता नहीं।
साँसारिक भोगों को अज्ञान कहा गया है। इसमें स्थिरता नहीं होती। इनका रूप बदलता रहता है जो लोग इनके पीछे-पीछे चलते हैं, उन्हें तरह-तरह के नाच नाचने पड़ते हैं, पर आन्तरिक प्यास बुझती नहीं। सूर्य की विपरीत दिशा में छाया की ओर बढ़ने पर न तो छाया ही हाथ आती है और सूर्य भी दूर हटता जाता है। पर जब सूर्य की ओर बढ़ते हैं तो रास्ता भी साफ दिखाई देता है, सूर्य की समीपता अनुभव करते हैं और भोग-रूपी छाया भी पीछे-पीछे चलने लगती है। जिस प्रकाश के न होने से मार्ग भ्रम हो जाता है, वह यह आत्म ज्ञान या ईश्वर-प्राप्ति ही है। इसलिये प्रार्थना की जाती है -
तव त्रिधातु पृथिवी उतद्यौर्वैश्वानर
व्रतमग्ने सचन्त।
त्वम भास रोदसी
अततन्थजस्त्रेण शोचिषा शोशुचानः॥
-ऋग॰ 7। 5। 4
अर्थात्-”हे वैश्वानर देव! यह पृथ्वी अन्तरिक्ष तथा द्युलोक तुम्हारा ही अनुशासन मानते हैं। तुम प्रकाश द्वारा व्यक्त होकर सर्वत्र व्याप्त हो। तुम्हारा तेज ही सर्वत्र सद्भासित हो रहा है, हम तुम्हें कभी न भूलें।”
ईश्वर-उपासना की आवश्यकता यों है कि उस सत्य को भुला न दिया जाय। वह सामने रहेगा तो अन्धकार का जीवन में प्रवेश न हो सकेगा। काम, क्रोध, लोभ, मनस्ताप, दुश्चिन्ता, अशक्तता, आलस्य सब उस प्रकाश को देखकर भाग जाते हैं। वह जहाँ रहता है वहाँ कष्ट नहीं होते, दरिद्रता नहीं होती। दुर्बलता दूर रहती है। आसक्ति परेशान नहीं करती। कर्त्तव्य ही उसका जीवन बन जाता है। वह निर्भय होकर रहता है।
नीराजन, दीपदान या आरती की भावना इस आत्मदान की ही उद्बोधक हैं। मैं जो कुछ हूँ , वह तेरे लिये हूँ, तुझे समर्पित हूँ ऐसी भावना उस ईश्वर की आरती में है। यह जो प्रकाश है, उसे हाथों द्वारा मुख और मस्तिष्क में धारण करते हैं। उसमें एक ही तथ्य सन्निहित है कि तुम्हारा तेज हमसे दूर न रहे। तुम मुझ में ओत-प्रोत रहो। मुझ में कान्ति बन कर मेरा मार्ग-दर्शन करते रहो। यह मंगल भावना अनिष्टों से बचाने वाली और क्लेशों से छुड़ाने वाली है।
प्रकाश की अन्तश्चेतना में सत्य और चेतना के साथ सौंदर्य भी है। अज्ञान अन्धा और कुरूप है, उस पर सदैव प्रकाश शासन किया करता है। व्यवहारिक जीवन में ही ज्ञानवान ही अज्ञानियों पर विजयी होते हैं। ज्ञान का ही सर्वत्र आदर होता है वह इसी रूप में हैं। सौंदर्य सबको मधुर और प्यारा लगता है। सब उसकी ओर आकर्षित होते हैं और उसके समीप कुछ क्षण बिताने का जी करते हैं। अपने इस रूप में वह लौकिक सुखों का भी दाता बन जाता है।
अपने लिये वह किसी भी रूप में हो, पर आवश्यक है। वह न रहेगा तो साँसारिक व्याधियाँ अवश्य सतायेंगी। मद, मोह और मत्सर जरूर परेशान करेंगे। यदि ऐसा हुआ तो परमात्मा की यह सृष्टि दुःख रूप हो जायेगी और मनुष्य शरीर पाने का कोई उद्देश्य पूरा न होगा। परमात्मा मंगलमय है, उसकी सृष्टि भी मंगलमय है। इस मंगलदाय जगत में सुखोपभोग के लिये हम आकाश से उतर कर आये हैं। उसे भोगें पर भटके नहीं। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि अन्धकार की ओर न जाकर प्रकाश की ओर गमन करें। तब यह प्रकाश ही जीवन में आनन्द बनकर ओत-प्रोत हो जाता है।