सरदार वल्लभ भाई पटेल

November 1965

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सरदार वल्लभ भाई पटेल की शिक्षा का श्री गणेश हल की गति के साथ ही हुआ। जिस समय इनके पिता प्रातःकाल खेत पर हल लेकर जाते सरदार भी उनके साथ जाते और पिता से पहाड़ा सीखा करते थे।

सरदार वल्लभ भाई पटेल के पिता श्री झवेरभाई एक साधारण किसान थे, किन्तु सन 1857 के स्वातन्त्र्य संग्राम में महारानी लक्ष्मीबाई की सेना में रहने से देश-प्रेम की भावनायें इनके हृदय में गहराई तक बसी हुई थीं। पिता की इन भावनाओं का प्रभाव पुत्र पर पड़ा और वे बाल्यकाल से ही स्वाधीनताप्रिय देशभक्त बन गये।

परिश्रमपूर्ण वातावरण के बीच प्रारम्भिक शिक्षा स्वयं देकर श्री झवेरभाई ने अपने पुत्र को पेटलाद की पाठशाला में भरती कराया। परिश्रम तथा कर्मठता मानों सरदार वल्लभ पटेल को घुट्टी में ही पिला दी गई थी। अतएव उसके बल पर उन्होंने पाठशाला की परीक्षायें उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण कर नडियाद के हाई स्कूल में दाखिल हुये।

साहस, निर्भीकता तथा उत्साह आपके पैतृक गुण थे जिससे नये-नये शहर में आकर भी उनमें कोई हीन भावना संकोच अथवा दब्बूपन नहीं आया। वे निर्भीकता से स्कूल में रहते, लगन से अध्ययन करते और भविष्य जीवन की सार्थकता के लिये विचार करते। किन्तु एक अन्यायपूर्ण व्यवहार किये जाने से अनेक अध्यापकों की इनसे अनबन हो गई जिससे यह कॉलेज छोड़कर पुनः नडियाद वापस आ गये और वहीं से इन्ट्रेंस की परीक्षा पास की।

इन्ट्रेंस की शिक्षा तक जिन वल्लभ भाई ने पिता का व्यय का कष्ट दिया था, वह अब आगे उनको कष्ट न देना चाहते थे। उनका कहना था कि जो किशोर अपने पैरों पर खड़ा होने लायक हो जाये, उसे किसी पर भार स्वरूप होकर रहने का कोई अधिकार नहीं है। बढ़ने का रास्ता मिल जाने पर हर नवयुवक को अपने पैरों बढ़ना चाहिये, किसी का सहारा लेकर नहीं।

निदान उन्होंने इन्ट्रेंस पास करने के बाद आगे न पढ़कर मुखतारी की परीक्षा पास की ओर गोधरा में वकालत करने लगे। जिसके हृदय में काम करने का उत्साह है, शरीर में परिश्रम की स्फूर्ति है, मस्तिष्क में स्वावलम्बन का स्वाभिमान है, वह पुरुषार्थ के बल पर पानी पर राह बना लेता है, बालू में तेल खोज लेता है।

वकालत का आर्थिक मार्ग पाकर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने परिवार से उस निर्धनता नाम की पिशाचिनी को सदा के लिए खदेड़ देने का संकल्प करके मुकदमों के कार्यों में अपने को डुबा दिया जिसने आगे पढ़ने से रोक दिया था। वे पैरवी के लिये मस्तिष्क के अंतिम छोर तक सोचते है और तथ्य को तेजस्विता के साथ प्रतिपादित करते जिससे उनकी वकालत में सफलताओं की होड़ सी लग गई। जो परिश्रमी है, जिसने लगन के साथ मस्तिष्क में योग्यता के स्वस्थ एवं उर्वर बीज बोये हैं जो अपने विषय का सच्चा जानकार और कार्य को ईमानदारी-तल्लीनता से करने में विश्वास करता है सफलता उसके पास न आकर क्या संदिग्ध योग्यता, अपूर्ण, अभ्यास वाले और श्रमहीन आलसी के पास जायेगी?

जहाँ परिश्रम-चोर, अयोग्य वकील मजिस्ट्रेटों और जजों की चाटुकारिता कर अपने मुकदमे जीतते और अधिकारियों को अन्याय का प्रश्रय देते, वहाँ सरदार वल्लभ भाई पटेल अपने शक्तिशाली तर्कों तथा परिपूर्ण विधि के बल पर अपना विषय प्रतिपादित करते। एक तो सत्य योंही तेजवान होता है, किन्तु जब वह किसी चरित्रवान की वाणी से निसृत होता है, तो वह अपना असाधारण प्रभाव छोड़ता है। सरदार पटेल के तर्कों का भी न्यायाधीशों पर विशेष प्रभाव पड़ता था।

वकालत के साथ-साथ वल्लभ भाई पटेल अवसर आने पर जन-सेवा का पुण्य लाभ करने से भी नहीं चूकते थे। जिन दिनों उन्हें अपने मुकदमों से फुर्सत न मिलती थी, उन्हीं दिनों गोधरा में महामारी का प्रकोप हो गया और प्लेग पीड़ितों की सेवा करते-करते स्वयं प्रभावित हो गये। फिर भी जब तक रोग शय्या पर पड़ कर विवश नहीं हो गये अपना सेवा कार्य नहीं छोड़ा। अपने आत्म-विश्वास, आत्म-बल तथा आत्म संयम के साथ उपचार पूर्ण उपायों से स्वयं तो शीघ्र ही अच्छे हो गये, किन्तु प्रभावित पत्नी को आप्रेशन के लिये बम्बई भेजना पड़ा। कार्य और कर्तव्य की बहुतायत से स्वयं साथ न जा सके।

पत्नी को भेजने के बाद उन्हें अपने कर्तव्य के अतिरिक्त कुछ याद ही नहीं रहा। मुकदमों की पैरवी में इस सीमा तक तन्मय हो गये कि जिस समय एक बहस के दौरान उन्हें पत्नी की मृत्यु का तार मिला तो उन्होंने उसे पढ़ कर मेज पर रख दिया और फिर यथावत स्थिति में बहस करने लगे। सफलता और समृद्धि की देवियाँ ऐसे ही संयमी, संतुलित, शान्त एवं आत्मवान्, कर्तव्य-निष्ठ व्यक्तियों को वरण करने के लिए गली-गली घूमा करती हैं।

आवश्यक धन उपार्जित करने के बाद प्रगति-प्रिय सरदार जी ने विलायत जाकर बैरिस्टरी पास करने के लिये पासपोर्ट बनवाया किन्तु अपने बड़े भाई विट्ठल भाई पटेल की इच्छा देख अपना जाना स्थगित करके पासपोर्ट उनके नाम करा दिया और उनके वापस आने पर स्वयं गये।

विदेश में देश की प्रतिभा की धाक जमाने के लिये सरदार वल्लभ पटेल ने अपनी परिश्रमशीलता को कई गुना बढ़ा दिया। वे अपने निवास-स्थान से ग्यारह मील दूर उत्तर टेम्पुल के सम्पन्न पुस्तकालय को लन्दन की विकट सरदी में प्रातःकाल उठ कर जाते, दोपहर का भोजन वहीं करते और सत्रह-सत्रह घंटे निरन्तर अध्ययन करने के बाद पैदल लौटकर आते। इस तपोपूर्ण परिश्रम का फल यह हुआ कि बैरिस्टरी की परीक्षा में वे सर्व प्रथम उत्तीर्ण हुए, जिससे शुल्क मुक्ति के साथ पचास पौंड की छात्रवृत्ति से पुरस्कृत किये गये।

विलायत से वापस आने के बाद सरदार वल्लभ भाई अहमदाबाद में पुनः वकालत करने लगे, जिससे वे कुछ ही समय में इतने धनवान हो गये कि राजाओं जैसे ठाठ-बाट से रहने लगे। परिवार से गरीबी को मार भगाने का उनका संकल्प पूरा हो गया। किन्तु फिर भी सब कुछ सम्पन्नता, सम्मान और शान-शौकत होने पर भी उनकी आत्मा में एक अनजान असंतोष करवट लिया करता था जिसको वे यदा-कदा अनुभव तो करते थे, किन्तु समझ न पाते थे।

कुछ समय बाद गाँधी जी के संपर्क में आने पर उन्हें अपने अनजाने असन्तोष का स्पष्ट स्वरूप दिखाई पड़ा, जिसको दूर करने और पूर्णता-पूर्ण मानसिक शाँति तथा आत्म-संतोष होने के लिये सरलता और सादगी से सुशोभित जीवन अपना लिया। जीवन के सच्चे और अकृत्रिम मार्ग पर आने पर उन्हें पता चला कि ऐश्वर्य के विभ्रम में वे जिस प्रदर्शन पूर्ण जीवन क्रम को अपनाते चले जा रहे थे, उसमें आगे चलकर प्रमाद-जन्य पतन के कितने गहरे गर्तों की सम्भावना थी? किन्तु शीघ्र ही सुरक्षित दिशा में आ जाने पर उन्हें ऐसा संतोष हुआ मानो संयोगवश किसी भयंकर खतरे में पड़ते-पड़ते बच गये हों। प्राप्त संतोष की इस पुलक पूर्ण अनुभूति ने उनके सादगी पूर्ण सहज जीवन क्रम को मुहरबंद कर दिया।

गाँधी जी के संपर्क में आकर जहाँ सरदार ने सादगी का सौंदर्य देखा वहाँ जन-सेवा का महत्व भी समझा। उनके हृदय में पीड़ित मानवता के प्रति एक हार्दिक करुणा उमड़ पड़ी और वे अपने व्यवसाय से समय निकाल कर सेवा कार्य करने लगे। जन-सेवा का उनका पहला काम था-गुजरात से बेगार प्रथा का उठवा देना। बेगार प्रथा जमींदारी शासन का भयंकर अभिशाप था। हर जमींदार अपनी जमींदारी में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति पर अपना स्वत्व समझते थे। अपने किसी भी छोटे-बड़े काम के लिये गरीब आदमियों को बुला लेते और दिन-दिन भर काम लेकर उन्हें यों ही भूखा-प्यास मजदूरी का बिना कोई पैसा दिये भगा देते थे। इस प्रकार यह बेगार प्रथा सारे देश में फैली हुई थी। इस घोर पराधीनता पूर्ण बेगार प्रथा से कराहती मानवता को मुक्त कराने के लिये सरदार वल्लभ भाई पटेल व्याकुल हो उठे और गोधरा के प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन के सभापति की हैसियत से उन्होंने उसके विरुद्ध कार्यवाहियाँ करनी शुरू कर दीं। इस विषय में सरदार वल्लभ भाई पटेल की संकल्प शक्ति से भयभीत होकर सरकार ने गुजरात में बेगार प्रथा को अवैध घोषित कर दिया।

इसी बीच गुजरात के खेड़ा क्षेत्र में अकाल पड़ गया और जनता भूख की ज्वाला में आहुति बनने लगी। चारों ओर हाहाकार मचने लगा। उस पर सरकार लगान वसूली की सख्ती कर रही थी। जनता पर यह अन्याय देखकर सरदार पटेल की मनुष्यता आहत हो गई और उन्होंने खेड़ा की जनता को संगठित करके लगान वसूली के विरुद्ध आँदोलन छेड़ दिया जिसका फल यह हुआ कि सरदार पटेल के सुयोग्य नेतृत्व में जनता की विजय हुई और किसानों से लगान वसूली माफ हो गई। इसके अतिरिक्त उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर नंगों, भूखों के लिये अन्न-वस्त्र की व्यवस्था की। इस प्रकार अकाल पीड़ित जनता की सहायता के लिये याचना की झोली फैलाते संकोच न हुआ। यही नहीं उन्होंने अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग अकाल पीड़ितों की सेवा में खर्च किया।

गाँधी जी द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयत्नस्वरूप छेड़े गये असहयोग तथा बहिष्कार आन्दोलन के समय देश सेवा की भावना तथा समय की पुकार पर अपनी हजारों रुपयों माहवार की वकालत छोड़ दी। यद्यपि उस समय अपने पुत्र और पुत्री को पढ़ने के लिये विलायत भेजने वाले थे तथापि उन्होंने भारत माता के हजारों लाखों पुत्र-पुत्रियों की मंगल-कामना में अपनी सन्तान के व्यक्तिगत उत्कर्ष की सम्भावना को न्यौछावर कर दिया।

बहिष्कार आन्दोलन से प्रेरित स्कूल, कॉलेज छोड़ देने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा का प्रश्न उपस्थित होने पर सरदार बल्लभ भाई पटेल ने राष्ट्रीय स्कूलों की स्थापना की योजना चलाई, जिसके लिये आवश्यक धन राशि इकट्ठी करने के लिये संपूर्ण देश से लेकर बर्मा तक का दौरा किया और जब तक दस लाख रुपये इकट्ठे नहीं कर लिये चैन की साँस नहीं ली। अनेक राष्ट्रीय स्कूलों की स्थापना के साथ उन्होंने गुजरात विद्यापीठ की भी स्थापना की जिससे विद्यार्थियों की शिक्षा का प्रश्न बहुत दूर तक हल हो गया।

गुजरात के बोरसद तालुका में डाकुओं का आतंक फैल गया। सरकार उनको पकड़ने में असफल हो रही थी। उस इलाके में सरकार ने गाँवों की रक्षा के लिये जो पुलिस तैनात की थी, उसका खर्च वह ग्रामवासियों से लेती थी। एक ओर डाकू धन लूट रहे थे, दूसरी और सुरक्षा के बहाने सरकार ने लूटना प्रारम्भ कर दिया। इस दोहरी मार से त्रस्त होकर जनता ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को याद किया। जनता पर भयानक संकट का समाचार पाते ही सरदार बिना किसी भय अथवा विलम्ब के बोरसद जा पहुँचे। अपने विश्वस्त एवं वीर नेता को अपने बीच पाकर जनता का साहस बढ़ गया। सरदार ने दो सौ स्वयं सेवकों का एक दल बनाया और ग्राम रक्षा में नियुक्त करके ग्रामवासियों में आत्म-विश्वास तथा आत्म-रक्षा की भावना जगाई जिससे शीघ्र ही इलाके से डाकुओं का आतंक समाप्त हो गया।

नागपुर झंडा सत्याग्रह में विजयी होकर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अहमदाबाद म्युनिसिपल बोर्ड का सभापति पद संभाला और नगर के कायाकल्प में लग गये। उन्होंने मोहल्ले-मोहल्ले, गली-गली घूमकर जनता को सफाई और स्वच्छता का महत्व समझाया और स्वयं भी नगर की सफाई के कार्यक्रमों में भाग लिया जिससे नगर की सारी गन्दगी दूर हो गई और जनता में सफाई की एक स्थायी चेतना जाग्रत हुई। इस काल में उन्होंने बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया और नगरपालिका की पाठशालाओं में आवश्यक सुधार किये। अनेक नयी पाठशालायें खुलवाई और बच्चों के स्वास्थ्य की देख−रेख का प्रबन्ध किया।

सरदार वल्लभ भाई पटेल के अहमदाबाद नगरपालिका के सभापतित्व काल में गुजरात में भयंकर बाढ़ आ गई। गाँव के गाँव बह गये, लोगों के घर तबाह हो गये। जगह-जगह जनता असाध्य परिस्थितियों में फँसकर भूखों मरने लगी। ज्यों ही सरदार पटेल को इसकी खबर लगी, वे दो हजार स्वयं-सेवक लेकर बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में जा पहुँचे और लोगों को अपनी सेवा तथा सहायता से सान्त्वना देने लगे। सरदार अपने स्वयं-सेवकों के साथ, पानी के बीच फँसे मनुष्यों तथा पशुओं को बचाने के लिये बिना किसी साधन के स्वयं तैर कर जाते और उनको निकाल कर लाते।

इस प्रकार वे अपने महान जन-सेवा की भावना के बल पर हजारों जीवों के प्राण बचाने में सफल हुए।

अभी बाढ़ के प्रकोप से गुजरात की जनता की रक्षा करने की व्यस्तता कम न होने पाई थी कि तब तक अकाल तथा भुखमरी से मरती हुई जनता ने अपने सहायक तथा निष्काम सेवक-सरदार वल्लभ भाई पटेल को पुकारा! बिना एक क्षण का विलम्ब किये सरदार पटेल अकाल पीड़ितों की सहायता करने चल पड़े। बाढ़ के समय सरदार की सच्ची सेवा देखकर सरकार ने अपना विरोधी होने पर भी डेढ़ करोड़ रुपये की धन राशि अकाल पीड़ितों की सहायता के लिये सरदार पटेल के ही हाथ में दी, जिसका समुचित उपयोग कर सरदार ने शीघ्र ही अकाल पर नियन्त्रण कर लिया। इसके अतिरिक्त जो उन्होंने तीन लाख रुपया स्वयं चन्दा किया था उसका भी एक-एक पैसा खर्च कर नंगे-भूखों तथा बेघरबार व्यक्तियों के लिये अन्न वस्त्र तथा मकानों का प्रबन्ध किया। अनवरत प्रयत्नों के विश्वासी सरदार पटेल जिस काम में भी लग जाते उसे पूरा किये बिना चैन न लेते।

समाज सेवा के साथ-साथ सरदार पटेल राजनीति के माने हुए नेता थे। वे खेड़ा सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, नागपुर झंडा सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह आदि आन्दोलनों के प्रमुख नेता, संचालक तथा प्रबन्धक रहे। अपनी देश-सेवा के सिलसिले में वे अनेकों बार जेल गये और अगणित यातनाएं सहीं।

सरदार पटेल अपनी लगन, ध्येय तथा लक्ष्य के पक्के सैनिक थे। वे अपने अविचलित आत्म-विश्वास, अडिग निष्ठा, अटूट कर्त्तव्यशीलता, महान मानसिक बल, स्पष्टवादिता तथा निर्भीकता के कारण लौह-पुरुष कहे जाते थे। देश की स्वतन्त्रता के बाद से वे जीवन-भर भारत के सुयोग्य एवं संकल्पवान गृहमन्त्री रहे। अपने मन्त्रित्व-काल में उन्होंने राष्ट्र की जो सबसे महान उपयोगी तथा स्थायी सेवा की वह है-”लगभग साढ़े छः सौ देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलयन।” देश की अविभाज्य अखंडता के इस कार्य के लिये राष्ट्र युग-युग तक उनका आभारी रहेगा।


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