धर्म शास्त्रों की शिक्षा और प्रेरणा

November 1965

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आर्द्र संतानता त्याग कार्य वाक् चेतसाँ दम। स्वार्थ बुद्धि परार्थेष पर्याप्त मितिसद् व्रतस्॥

कोमलता, कृपा का बर्ताव, उदारता, शरीर, वाणी, मन को पाप कर्मों से बचाना, पुण्य कार्यों को अपने ही समझकर उनके बनाने का प्रयत्न करना, इतना सदाचार काफी है।

आहार शयनाष्ब्रह्मचर्यै युक्त्या प्रयोजितैः। शरीरं धार्य ते नित्यमागार मिवधारणैः॥

आहार, नींद, मैथुन ये तीन बातें शरीर के धारण में कारण हैं, जैसे खम्भे मकान को धारण किये रहते हैं।

सत्यवादिनमक्रोधमध्यात्म प्रवणेन्द्रियम। शान्तं सद्वृत्त निरतं विद्यान्निप्यं रसायनम्॥

सत्यवादी अक्रोधी, जितेन्द्रिय, शान्तचित्त, सदाचारी ऐसे लक्षण वाला पुरुष नित्य ही मानो रसायन सेवन करता है।

यथा खरश्चन्दन भारवाही,भारस्य वेत्तानतुचन्दनस्य।

एवंहि शस्त्राणि, बहून्यधीत्य, चार्थेषु मूढाःखरवद् वहंति॥

जैसे गधे पर चन्दन लदा हो तो वह उसको बोझ ही समझता है, चन्दन नहीं समझता। इसी प्रकार बहुत से शास्त्र पढ़ लिये पर वास्तविक अर्थ नहीं समझा तो वह गधे के समान बोझ ढोना ही है।

ईर्ष्या भय क्रोध परिक्षतेन लुब्धेन शुग् दैन्यनिपीडितेन।

प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमान मन्नं न सम्यक परिपाकमेति॥

डाह (जलन) भय, क्रोध से युक्त अन्य की बढ़ती देखकर दुखी, लोभी, चिन्तित, दीनतायुक्त द्वेषी- ऐसे पुरुष को खाया हुआ अन्न भली प्रकार नहीं पचता।

इन्द्रियाणाँ विचरताँ विषयेष्वपहारिषु ।

संयसे यत्न मातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेववाजिनान्॥

जिस प्रकार सारथी अपने रथ के घोड़ों को वश में रखता है, वैसे ही विद्वान विषयों में दौड़ने वाली इन्द्रियों को यत्नपूर्वक वश में रखे।

न जातु कामः कामानामुप भोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥

कभी विषयों के उपभोग से इच्छा शान्त नहीं होती भोगने से वह इस प्रकार बढ़ती है कि जैसे घृत की आहुति से अग्नि।

वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपाँसि च।

न विप्र दुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित॥

वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप यह सब भी दुष्ट भाव वाले विषयी मनुष्य को कदापि सिद्धि नहीं देते।

वशे कृत्येन्द्रिय ग्रामं सयम्व च मनस्तया। सर्वान् संसाधयेदर्थान क्षिण्वन्योगतस्तनुम॥

इन्द्रियों को वश में करके मन को रोक कर शरीर को पीड़ा न देकर सम्पूर्ण अर्थों (प्रयोजनों) की सिद्धि करे।

दशकामः समुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च। व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् ॥

दश प्रकार का कामज और आठ प्रकार का क्रोधज यह 18 प्रकार को व्यसन है। इन (परिणाम में हानि-कारक) व्यसनों को तुरन्त यत्न पूर्वक त्याग देवे।

मृगया ष्क्षोदिवास्वप्नः परि वादः स्त्रियोमदः। तौर्यत्रिकं वृथाढय़ा च कामजोदशको गणः।

शिकार खेलना- जुआ- दिनका सोना- निन्दा- स्त्रियों में अधिक आसक्ति,- शराब आदि का नशा- नाच, गाना- अति- वृथा भ्रमण, ये 10 कामज व्यसन हैं।

पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्याऽसूयार्थ दूषणम्। वाग्दण्डञ्च पारुष्यं क्रोध जोऽपि गणोष्टकः॥

चुगलखोरी, उतावलेपन से काम करना, द्रोह (दूसरे का अनिष्ट चिन्तन) असूया (किसी के गुण में दोष लगना) किसी के धन को हर लेना, वाणी और दण्ड की कठोरता-ये 8 क्रोध से उत्पन्न होने वाले व्यसन हैं।


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