महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय

November 1965

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महामना पं0 मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को इलाहाबाद में हुआ। इनके पूर्वज मालवा के रहने वाले थे। अतएव इस परिवार के लोग अपने नाम के साथ मालवीय लिखा करते है।

मालवीय जी के पिता पं0 ब्रजलाल संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। उनकी विद्वता का प्रभाव पुत्र पर बड़ी गहराई तक पड़ा और आगे चलकर वह अपने परिश्रम के बल पर संस्कृत के साथ अंग्रेजी का महान विद्वान बना। जिस प्रकार मालवीय जी पर पिता के पाण्डित्य का प्रभाव पड़ा उसी प्रकार उनकी माता मुन्नीदेवी की धार्मिकता का भी पूर्ण प्रभाव पड़ा।

ज्ञान पूर्ण धार्मिक जीवन ने मालवीय जी को मानवता की मूर्ति बना दिया और उनके हृदय में मानव जाति के लिये अपार प्रेम तथा सहानुभूति का सागर उमड़ पड़ा। अपने पूरे जीवन भर वे राजनीति धर्म तथा समाज के मंचों से देश, धर्म, समाज और संसार की सेवा करते रहे।

अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इलाहाबाद में पूर्ण करके कलकत्ता से मैट्रिक की परीक्षा पास की और म्योर कालेज इलाहाबाद से बी0 ए0 किया।

अपने विद्यार्थी-काल से ही मालवीय जी ने समाज सेवा की आवश्यकता तथा उसका महत्व समझ लिया था। जिस समय वे कॉलेज में पढ़ रहे थे, उसी समय उन्होंने अपने सहपाठियों के सहयोग से “हिन्दू-समाज” नामक एक लोक-हितकारी संस्था की स्थापना की थी।

पण्डित मदनमोहन मालवीय बाल्य-काल से ही हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान के उपासक थे। हिन्दुत्व के प्रति उनका यह उपासना भाव केवल इसलिए नहीं था कि वे स्वयं एक हिन्दू थे। उनकी इस भावना का कारण हिन्दू-संस्कृति का वह गौरव तथा हिन्दू-धर्म के मानवतापूर्ण वे सिद्धान्त तथा सन्देश थे जिनको उन्होंने गम्भीरता-पूर्वक अध्ययन किया था और अपने जीवन में उनको उतार कर उनकी यथार्थता तथा महानता का अनुभव किया था।

मालवीय जी के परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी। उनके पिता जितने विद्वान थे, उतने ही त्यागी तथा परोपकारी व्यक्ति भी थे। एक तो वे अपनी विद्वता का मूल्य नहीं लेते थे और यदि कुछ थोड़ा-बहुत पाते भी थे उसका अधिकाँश भाग परोपकार में व्यय कर देते थे। उनका विश्वास था-’विद्वता प्राप्त करने में गरीबी एक वरदान सिद्ध होती हैं।’ गरीबी मनुष्य को परिश्रमी, पुरुषार्थी तथा सन्तोषी बना देती है।

बी0 ए0 पास करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद में ही गवर्नमेंट स्कूल में पचास रुपये माहवार पर अध्यापक का पद ग्रहण कर लिया। मितव्ययी तथा सदाचारी प्रवृत्ति के मालवीय जी के लिये यह पचास रुपये का वेतन भी पर्याप्त था। उन्होंने इस छोटी-सी आय में ही ऐसी व्यवस्था बना ली कि वे अपने घर का सारा खर्च पूरा करके परोपकार के कामों में खर्च करने के लिये कुछ न कुछ बचा लेते थे। वे अपनी बचत से गरीब विद्यार्थियों को फीस तथा पुस्तकों की सहायता किया करते थे और रोगियों को दवा बाँटते थे।

अपनी दया, उदारता तथा संवेदनशीलता से मालवीय जी शीघ्र ही, न केवल स्कूल ही में बल्कि जनता में भी लोक प्रिय हो गये। अपने अध्यापन-काल में मालवीय जी पढ़ाने के साथ-साथ देश-सेवा तथा समाज-सेवा के कार्य भी किया करते थे। देश की सक्रिय सेवा करने के लिये उन्होंने काँग्रेस ही सदस्यता स्वीकार कर ली और उसकी हर गतिविधि में अपना योग देने लगे। वे उसके आन्दोलनों से लेकर अधिवेशनों तक में उत्साहपूर्वक भाग लेते थे।

काँग्रेस में उस समय देश के छंटे हुए विद्वान सम्मिलित थे, जिनकी योग्यता को चुनौती देकर काँग्रेस का पदाधिकारी हो सकना कठिन काम था, लेकिन मालवीय जी ने अपनी योग्यता तथा महानता का प्रमाण देकर शीघ्र ही काँग्रेस में प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली।

कलकत्ता-काँग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में उन्होंने जिस योग्यता से देश की परिस्थिति का विवेचन किया उसको सुनकर सारा उपस्थित वर्ग प्रभावित हो उठा। उस अधिवेशन में कालाकाँकर के राजा रामपाल भी उपस्थित थे। वे मालवीय जी के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनको अपने साप्ताहिक पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादक नियुक्त कर लिया। मालवीय जी ने यह पद इस शर्त पर स्वीकार किया कि राजा साहब उनको नशे की हालत में न मिलने आयेंगे और न बुलायेंगे। राजा साहब ने यह शर्त मंजूर कर ली और मालवीय जी पत्र का सम्पादन करने लगे।

किन्तु कुछ समय बाद राजा रामपालसिंह अपनी शर्त भूल गये और एक दिन उन्होंने आवश्यक काम से मालवीय जी को उस समय बुला लिया-जिस समय वह शराब पिये हुए थे। मालवीय जी ने उनको शर्त की याद दिलाई और तत्काल दो सौ रुपया मासिक की सम्पादकी छोड़ कर चले आये।

सम्पादक का पद छोड़ने के बाद मालवीय जी ने नौकरी न करने का निश्चय करके वकालत पास की और अल्प समय में ही अपनी परिश्रमशीलता से अच्छे वकीलों की सूची में आ गये। उन्हें इस वकालत व्यवसाय में हजारों रुपये मासिक की आय होने लगी। किन्तु इस आय वृद्धि से उनकी सादगी में कोई परिवर्तन नहीं आया। अपने पर व्यय करने वाली धन-राशि की मात्रा तो उतनी ही रही- ‘जितनी कि पचास रुपये मासिक की आय में करते थे।’ हाँ आय के अनुपात से परोपकार पर व्यय होने वाली धन राशि अवश्य बढ़ गई।

वकालत का व्यस्त व्यवसाय करते हुए भी वे लोक-सेवा के कार्य करते और काँग्रेस के हर अधिवेशन में भाग लेते रहे। वे मद्रास, बम्बई, कलकत्ता तथा नागपुर के काँग्रेस अधिवेशनों में शामिल हुए और अपनी वाक्पटुता तथा दूरदर्शी विचारों से काँग्रेस के चोटी के नेताओं के साथ जनता का बहुत विश्वास प्राप्त कर लिया। निदान 1902 में वे प्रान्तीय कौंसिल के सदस्य निर्वाचित किये गए और अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी की अध्यक्ष बनाये गये और जब लाहौर काँग्रेस में उन्होंने काँग्रेस की कार्य-विधि, देश की आवश्यकता एवं राजनीति की दिशा की समीक्षा करते हुए सार-गर्भित भाषण दिया तब तो उन्हें दिल्ली काँग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया।

मालवीय जी की यह उन्नति किसी को कृपा अथवा उदारता के कारण नहीं हुई थी। यह उनकी योग्यता, दूरदर्शिता, कर्तव्य-निष्ठा तथा परिश्रमशीलता का फल था। वे जिस काम को अपने हाथ में लेते थे उसे पूरा करने में जी-जान से जुट जाया करते थे और जब तक उसे पूरा नहीं कर लेते थे-’चैन से न बैठते थे।’ अपने हाथ के काम में वे अपनी सारी योग्यता तथा विद्या बुद्धि लगा देते थे, जिससे उनका हर काम पराकाष्ठा तक सफल होता था।

जिस समय वे सरकार की व्यवस्थापिका-सभा के सदस्य थे उस समय वे बात-बात पर अपने साहस तथा देश-भक्ति का प्रमाण देते रहे। कोई भी ऐसा प्रस्ताव जो लोकमत अथवा जन-हित के विरुद्ध होता था उनकी तीव्र आलोचना तथा विरोध से न बच पाता था।

1931 में मालवीय जी ‘राउण्ड टेबल कांफ्रेंस’ में भाग लेने लन्दन गये। राउण्ड टेबल कांफ्रेंस का उत्तरदायित्व वहन करते हुए भी उन्होंने अंग्रेज जनता के सामने ईश्वर तथा हिन्दू-धर्म की विशेषताओं पर अनेक ओजस्वी भाषण दिये जिससे विदेशियों की दृष्टि में देश का स्तर ऊँचा हुआ।

राजनीतिक क्षेत्र के अतिरिक्त मालवीय जी ने शिक्षा और समाज सेवा के क्षेत्र में जो कार्य किये हैं, वे भारत के इतिहास में सदा अमर रहेंगे। काशी का हिन्दू-विश्व-विद्यालय पं0 मदनमोहन मालवीय जी की देश को महान देन हैं। मालवीय जी को इस बात का बहुत दुःख रहा करता था कि देश में कोई ऐसी शिक्षा संस्थायें नहीं हैं जो भारतीय तरुणों का आदर्श निर्माण कर उन्हें भारतीय धर्म तथा सभ्यता, संस्कृति का पुनरुत्थान कर सकें।

इस अभाव पर एक लम्बे समय तक विचार करने के बाद उन्होंने एक विश्वविद्यालय स्थापित करने का निश्चय किया और आत्म-विश्वास के बल पर वह महान कार्य करने के लिये ‘खाली हाथ उठ खड़े हुए।’ उन्होंने विश्वविद्यालय के लिये धन एकत्र करने के लिये पूरे देश का दौरा किया और एक-एक पैसा माँग कर लगभग एक करोड़ रुपया जमा किया और 4 फरवरी, 1916 को वसंत पंचमी के दिन काशी विश्वविद्यालय का शिलान्यास करना। उन्होंने केवल इतना ही नहीं किया अपितु आजीवन उसके अवैतनिक उपकुलपति रहकर संस्था की सेवा भी की।

हिन्दी के प्रसार तथा प्रचार के लिए उन्होंने साहित्यिक सभा की स्थापना की। ‘अभ्युदय’ तथा ‘मर्यादा’ नामक दो पत्र प्रकाशित किये और अपने प्रभाव तथा सतत प्रयासों से उर्दू के साथ हिन्दी को भी अदालतों की भाषा बनवाया। उनके इन महान कार्यों के लिये हिन्दी सदैव ही उनकी आभारी बनी रहेगी।

मालवीय जी अपने धर्म तथा धार्मिक नियमों के यथावत मानने वाले थे। उनकी सम्पूर्ण दिनचर्या शास्त्र-विहित ही होती थी और शास्त्र-विहित नियमों में ही वे विश्वास किया करते थे। फिर भी धार्मिक संकीर्णता तथा कट्टर-पन्थी उन्हें छू तक नहीं गई थी। वे अछूतों के समर्थक तथा छुआ-छूत के विरुद्ध थे। वे हरिजनों को हिन्दू-समाज का एक अभिन्न अंग मानते थे और उनके मानवोचित अधिकारों के समर्थक थे। यही कारण हैं कि उन्होंने बहुत से कट्टर-पन्थियों के विरोध के बावजूद भी कलकत्ता में अछूतों को मन्त्र दिया था।

वे हिन्दू-जाति को अपने प्राणों से अधिक प्यार करते थे। वे जहाँ भी हिन्दुओं पर अत्याचार होते सुनते, वहीं पहुँच जाते। जिस हिन्दू जाति और हिन्दुस्तान की वे जीवन-भर सेवा करते रहे अन्त में उसी की पीड़ा में प्राण देकर स्वर्ग सिधार गये। भारत के विभाजन के बाद नोआखाली आदि स्थानों पर जो नृशंस संहार हुआ उसका समाचार सुन वे सहन न कर सके और कुछ ही समय के बाद स्वर्ग सिधार गये।

सद्ज्ञान के प्रबल प्रचारक


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