प्रगति का अर्थ है आगे बढ़ना। आगे बढ़ने का अर्थ है पीछे को छोड़ना, भूत को छोड़ कर हम वर्तमान में आते हैं तदुपरान्त भविष्य बनता है। पिछला पैर उठाने के बाद ही तो अगला कदम बढ़ा सकना संभव होता है। इस विश्व के जड़ चेतन क्षेत्रों में जो कुछ प्रगति हो रही है उसके मूल में यही तथ्य काम कर रहा है कि कुछ छोड़ो और कुछ ग्रहण करो। जो छोड़ने का साहस कर सकता है उसे ही ग्रहण की सामर्थ्य मिलती है, जिसे यह साहस नहीं बन पड़ता उसके लिए प्रगति का स्वप्न एक मनोरथ मात्र ही बन कर रह जाता है।
बादल समुद्र से जल प्राप्त करते हैं, उस जल को प्राप्त कर वे अपने को धनी, सौभाग्यवान, कमाऊ अनुभव कर सकते हैं पर यह संतोष थोड़ी देर कर लेने के उपरान्त उन्हें ध्यान आता है कि सृष्टि का क्रम ‘प्राप्त को त्यागने’ से ही चल सकता है, इसलिए वे आगे बढ़ते हैं और उस प्राप्त जल को धरती पर बरसा देते हैं। स्वयं खाली हो जाते हैं। वर्षा का जल नदी नालों में घूमता हुआ समुद्र में जा पहुँचता है और फिर नये बादल बनने का, नई वर्षा होने का क्रम चल पड़ता है।
यदि यह चक्र टूटने लगे इनमें से कोई स्वार्थी बन बैठे, जो कमाया है उसे अपने या बेटे-पोतों के लिए जमा कर रखने की नीति अपना ले तो सृष्टि का यह वर्षा-संतुलन बिगड़ जाय और सर्वत्र हाहाकार का दृश्य दिखाई देने लगे। समुद्र कहे कि मैं अपना जल बादलों को क्यों दूँ? बादल कहें कि जो हमने कमाया है उसे धरती पर क्यों बरसावें? धरती पर जो जल वर्षा है उसे वह दाब कर बैठ जाय, सोख ले, तो आगे का प्रवाह कैसे बढ़े? तालाब, नदी, नाले कैसे भरें? यदि नदी नाले उस जल को अपने भण्डार में जमा करने की बात सोचें तो समुद्र रीता हो जाय, और समुद्र के रीता हो जाने पर बादल बनने, वर्षा होने, नदी-नाले बहने का सुन्दर-सा सृष्टि-क्रम समाप्त ही हो जाय। स्वार्थपरता का दृष्टिकोण यदि इस वर्षा-चक्र के किसी घटक के मन में प्रवेश कर जाय तो संसार की कितनी दुर्दशा हो इसकी कल्पना करना भी कठिन है।
धरती अन्न उपजाती है, वनस्पति उगाती है। यह उपजी हुई वस्तुएं किसी का खाद्य बन कर या सड़ गल कर धरती के लिए खाद बनकर पुनः जा पहुँचती है। यदि खाद न मिले तो उसकी उर्वर शक्ति समाप्त हो जाय और फिर कुछ भी उगना सम्भव न हो। जो धरती से मिलता है उसे वापिस लौटाने में अड़चन उत्पन्न की जाय, खाद बनने के साधन रुक जायें तो फिर जो कोई इस उर्वर चक्र को रोकेगा वह भी जीवित न रहेगा, अन्य सब पर भी आपत्ति आवेगी।
प्राणी साँस में ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। वृक्ष वनस्पति इस कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण करते और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इस प्रकार वृक्षों और प्राणियों के बीच एक सुन्दर आदान-प्रदान चलता रहता है। दोनों में से कोई स्वार्थी बन बैठे और जो मिला है उसे न छोड़ने की ठाने तो दोनों की ही विनाश वरण करना होगा। ऑक्सीजन के अभाव में प्राणी और कार्बन के अभाव में वनस्पतियों का अस्तित्व समाप्त होने लगेगा।
सौर मण्डल के सभी ग्रह एक दूसरे को अपनी आकर्षण शक्ति से सींचे रहते हैं और अपनी नियत कक्षा पर निरन्तर घूमते रहते हैं। यदि इनमें से किसी में स्वार्थ समाये कि मैं क्यों दूसरे ग्रहों को खींचे रहने के झंझट में पड़ूं और क्यों आराम की जिन्दगी छोड़कर परिक्रमा करने का शिर दर्द मोल लूँ? तो उसकी वह नीति सारे सौर मण्डल के लिए घातक सिद्ध होगी वह स्वार्थी ग्रह तो सबसे पहले निर्जीव एवं नष्ट भ्रष्ट होगा।
संसार में विभिन्न क्षमता, प्रतिभा और परिस्थितियों के मनुष्य पुरुषार्थ करके जो उपार्जित करते हैं उसे दूसरों को दे देते हैं। वस्तुएं एक से दूसरे के पास घूमती हैं, इस प्रकार हर व्यक्ति को अपनी आवश्यकता की सामग्री उपलब्ध हो जाती है। यदि मानव समाज में से यह प्रवृत्ति नष्ट हो जाय, जिसने जो कमाया है वह उसे अपने पास ही रोक रखे तो मानव समाज का वर्तमान स्वरूप ही नष्ट हो जायगा और उसे जंगली जानवरों जैसा अभावग्रस्त एवं एकाकी जीवन बिताना पड़ेगा। किसान अपना अन्न तो जमा किये रहेगा पर उसे कपड़ा कहाँ से मिलेगा? कपड़े वाले जो वस्त्र बनावें वे अपने लिए वस्त्र सुरक्षित रखें तो उन्हें अन्न कहाँ से मिलेगा? फिर तेली को जूता और मोची को तेल मिलने की बात कैसे बनेगी? कोई भी निर्माण अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों द्वारा उपार्जित श्रम, ज्ञान एवं पदार्थों द्वारा विनिर्मित होता है। यह चक्र दूसरों के लिए त्यागने की प्रवृत्ति के कारण ही चलता है। मनुष्य ने प्रकृति के इस विधान को समझा और जीवन में उतारा है अतएव वह प्रगति का सौभाग्य प्राप्त कर सका। दूसरे जीव इस मर्म से अपरिचित रहे। फलस्वरूप वे अधिक सामर्थ्यवान होते हुए भी पिछड़ी स्थिति का अभावग्रस्त जीवन बिता रहे हैं।
हम अपने शरीर को ही देखें। प्रत्येक अंग और अवयव अपना-अपना काम करते हैं। पर अपने श्रम का लाभ स्वयं ही न उठा कर संबंधित अन्य अवयवों को प्रदान कर देते हैं। मुँह जो चबाता है वह पेट के लिए भेज देता है। पेट उसे पचा कर रक्त बनाता और हृदय को भेजता है। हृदय उसे नाड़ियों में बाँटता है। रक्त से माँस, माँस से अस्थि, अस्थि से मज्जा आदि क्रम चलता रहता है और जीवन धारण की गति निर्बाध रहती है। यदि इनमें से कोई अंग स्वार्थी बन बैठे। ‘अपनी कमाई आप खाई’ की संकीर्णता अपनाए तो जीवन धारण किये रहना कठिन हो जायगा। तब मुँह जो खायेगा गालों में ही भरा रखेगा। पेट के हाथ कुछ लग गया होगा तो वह वहीं जमा रखेगा तब फिर भूख ही न लगेगी। आँतें मल विसर्जित न करेंगी तो मल सड़ेगा और प्राण घातक विष उत्पन्न करेगा। फेफड़े यदि भीर वायु का त्याग न करें, हृदय रक्त भण्डार को जमा रखे, हाथ जो कमावें उसे मुँह को न दें तो उस दशा में वह स्वार्थी अंग तो मरेंगे ही शरीर के अन्य अंग भी अपनी जीवन लीला समाप्त करने के लिए विवश हो जावेंगे।
माँ-बाप बच्चों को पालते हैं, बच्चे बड़े होकर अपने बच्चों को पालते और उनके लिए कष्ट उठाते हैं। यदि यह क्रम टूट जाय, हर किसी को अपनी सुविधा का ही ध्यान रहे, शिशु पालन का खर्चीला और कष्टसाध्य उत्तरदायित्व ग्रहण न करें तो वंश परम्परा का चलना कठिन हो जाय।
वैज्ञानिक सृष्टि की मूल शक्ति ‘परमाणु’ में देखते हैं। एटम के इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रोन आदि भाग एक नियम गति से अविश्रान्त श्रम करते हुए क्रिया संलग्न रहते हैं। यदि वे अपनी गतिशीलता छोड़ दें तो विश्व की गतिशीलता का अन्त होने में देर न लगे।
नियति की प्रत्येक क्रिया परस्पर आदान-प्रदान के आधार पर चलती है। हर पदार्थ कुछ छोड़ता है तब उसे कुछ मिलता है। ‘त्याग से प्राप्ति’ का नियम इतना सुनिश्चित है कि इसे तोड़ने की बात सोचने का जो कोई भी दुस्साहस करेगा वह अपनी प्रगति और स्थिति के लिए संकट ही उत्पन्न करेगा। नियति की इस सुनिश्चित व्यवस्था को हमें ध्यानपूर्वक देखना और समझना चाहिए। साथ ही प्रयत्न यह भी करना चाहिए कि हम अपनी नीति, विचारणा, आस्था एवं क्रिया का निर्माण इसी आधार पर करते रहें। संकीर्णता और स्वार्थ के लिए मानवीय जीवन पद्धति में कोई स्थान नहीं हो सकता। स्वार्थ, लालच, संग्रह और परिग्रह यह अनित्य तत्व हैं। जिस किसी के जीवन में इन्हें जितना स्थान मिलेगा, उसके लिए उतनी ही अवनति एवं आपत्ति की सम्भावना बनी रहेगी।
दूसरों के सहयोग से ही हम स्वास्थ्य, शिक्षा, धन, पद, मनोरंजन आदि की सुखद स्थिति प्राप्त करते हैं। किसी के लिए भी यह सम्भव नहीं हो सकता कि वह एकाँगी रहकर इन विभूतियों को प्राप्त कर सके। ऐसी दशा में प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि दूसरों ने उसके विकास में जो सहयोग दिया है उसका बदला चुकाने के लिए अपने पास जो कुछ है उसे दूसरों को समुचित बनाने में प्रयुक्त करता रहे। इसके विपरीत जिसकी तृष्णा यह रहती है कि जहाँ से, जितना कुछ भी प्राप्त किया जा सके उतना संग्रह कर ले और उसका उपयोग स्वयं ही करे अथवा संकीर्ण दायरे के थोड़े से लोगों, कुटुम्बियों भर को करने दे तो यह नीति स्वार्थपरता ही कही जायगी, और उससे जो लाभ सोचा गया था, उसका मिलना तो दूर उल्टे अपना तथा अपने परिवार का अहित ही होगा।
कुटुम्बियों के लिए बहुत साधन-सामग्री जमा करके उससे उन्हें बैठे बिठाये आराम से दिन काटने की व्यवस्था बनाना बहुत ही गलत है। इस नीति से अपनी तथा अपने परिजनों की हानि ही होती है। निरन्तर श्रम द्वारा उपार्जन करने से बहती हुई नदी की तरह अर्थ शुद्धि रहती है। रुकी हुई पोखर का पानी सड़ जाता है। इसी प्रकार बिना श्रम के जिस किसी को भी धन मिलता है। वह उसका ठीक उपयोग न तो समझ सकता है और न कर सकता है। अमीरों के लड़के आम तौर से दुर्गुणी होते और तबाही में फँसते देखे गये हैं, कारण एक ही है कि उन्हें उत्तराधिकार में जो साधन सामग्री मिली—उसका वे न तो मूल्य समझ सके और न उसके सदुपयोग की बात वे जान पाये। बिना श्रम के प्राप्त धन का सदुपयोग आम तौर से किसी के लिए भी सम्भव नहीं होता।
आराम तलबी से और निष्क्रियता से बढ़कर अनैतिक बात और दूसरी कोई नहीं हो सकती। भले ही कानून में उसे दण्डनीय अपराध न माना गया हो, नियति की परंपराएं उसके पूर्णतया विरुद्ध हैं। ऐसे अपराधियों को प्रकृति का दण्ड भी बराबर मिलता रहता है। जो श्रम से जी चुराते हैं उनकी देह निकम्मी बन जाती है और नाना प्रकार के रोग आ घेरते हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी पीढ़ियों के लिए धन सम्पत्ति जमा करके न रखे। वरन् उनकी प्रतिभा और क्षमता को बढ़ाने में खर्च करे ताकि वे अपने भुज बल से आवश्यक आजीविका उपार्जित करते हुए उसके सदुपयोग का आनन्द ले सकें। जो कुछ हम कमायें उसका एक अंश समाज को समुन्नत बनाने के लिए सुनिश्चित रूप से निकालते रहें। खर्च का स्तर उतना रखें—जितना अपने देशवासियों का औसत स्तर है। जिस समाज में हम रहते हैं उसके औसत स्तर से बहुत अधिक ऊँचा, बहुत अधिक खर्चीला जीवन यापन करना निश्चित रूप से अनैतिक है। इसमें समाज के प्रति उपेक्षा निष्ठुरतापूर्ण मनोभाव छिपा हुआ है। इसकी प्रतिक्रियाएं बहुत ही बुरी होती हैं। चोर, डाकू, लुटेरे, हत्यारे, गुण्डे, दुराचारी व्यक्तियों की उत्पत्ति अमीरों के प्रति लोभ या द्वेष के कारण ही होती है। उतने आकर्षक ठाठ-बाठ देखकर कमजोर तबियत के आदमी मचल पड़ते हैं और जल्दी ही वैसी ऐयाशी के साधन प्राप्त करने के लिए अपराधी कार्य-पद्धति अपना लेते हैं। जिनसे ईर्ष्या, द्वेष, या रोष होता है वे उन्हें हानि पहुँचाने की बात सोचते हैं। इस प्रकार अमीरी का ठाटबाट बनाने वाला, समाज के सामान्य स्तर से बढ़ी-चढ़ी स्थिति बनाने वाला समाज में अनेक विक्षोभों और दुष्प्रवृत्तियों को जन्म देता रहता है।
स्वार्थ और लालच की संकीर्णताओं में पड़े हुए अमीरों और अध्यापकों का जीवन व्यतीत करते हुए वस्तुतः हम नियति की परम्पराओं को ही तोड़ते हैं। इससे सारे समाज की हानि होती है और अपना बहुमूल्य जीवन ओछेपन की बात सोचते और स्वार्थियों की रीति-नीति अपनाते हुए बर्बाद हो जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि नियति का विधान समझा जाय और स्वार्थ, संग्रह, लालच और विलासिता को अमानवीय, अनैतिक दुर्गुण मानते हुए उनका परित्याग किया जाय। अपनी क्षमता और प्रतिभा का समाज को अधिकाधिक लाभ देना—सौ हाथों से कमाने और हजार हाथों से देने की नीति अपनाना—यह बुद्धिमत्तापूर्ण दृष्टिकोण है। धन, समय, श्रम, शिक्षा, प्रतिभा आदि जो कुछ हमें प्राप्त है उसका उपयोग संकीर्ण दायरे में नहीं, वरन् मानव समाज को सुविकसित करने के लिए त्याग भावना की प्रवृत्ति को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए ही किया जाना चाहिए। जो इस रीति-नीति को अपनाते हैं वे ही महापुरुष कहलाते हैं और उन्हीं का जीवन सफल कहे जाने लायक बनता है।