असफल आराधना (Kavita)

July 1964

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प्रतिमा तुम, प्रेम-पुजारी हूँ मैं, तुम सागर, एक हिलोर हूँ मैं।

तुम हो रवि, मैं प्रिय पंकज हूँ, तुम हो शुचि चन्द्र, चकोर हूँ मैं॥

तुम दीपक, मैं परवाना बना, तुम हो घन-श्याम तो मोर हूँ मैं।

नयनों में तुम्हारी मूर्ति बसी, रहा देख तुम्हारी ही ओर हूँ मैं॥

जग के मग में बिखराया हुआ, पग में चुभता हुआ शूल हूँ मैं।

चलती ही गई न भुलाई गई, वह भूली हुई लघु भूल हूँ मैं॥

दुनिया की विनोद-क्रिया के लिए बरबाद किया हुआ फूल हूँ मैं।

सबने मुझको ठुकराया सदा, अब आपके पैर की धूल हूँ मैं॥

कर चाहता था पर तूलिका ले कभी चित्र तुम्हारा बना न सका।

स्वर चाहता किन्तु तुम्हारे लिए कभी गीत मनोहर गा न सका॥

नयनों में बसा न सका तुमको, तुम में अपने को मिला न सका।

बस शोक यही है मुझे कि कभी, किसी भाँति तुम्हें अपना न सका॥

सब भाँति निराश था जीवन से, दुख के झटके सहते, सहते।

निरुपाय तुम्हारा सहारा लिया, भव-सागर में बहते, बहते॥

तुम सीख गये नभ में उड़ना, धरती पर ही रहते, रहते।

“मुझको भी बुलाओ या आओ यहाँ” मुँह सूख गया कहते, कहते॥

मिलती रही किन्तु तुम्हारे लिये, वसुधा की सुधा ठुकराता रहा।

सुख की, दुख की परवाह न की, कभी आह न की, मुसकाता रहा॥

स्वजनों ने समाज ने त्याग दिया पर गीत तुम्हारे ही गाता रहा।

तुम क्यों ठुकराते हो, जीवन में सब ठौर तो ठोकरें खाता रहा॥

दुनिया कुछ भी समझे पर मैं सकता निज राह न त्याग कभी।

यह जान के जीवित था तम में, फिर आयेगा, स्वर्ण-विहान कभी॥

घटता न वियोग-व्यथा-भय से कवि के उर का अनुराग कभी।

यदि स्नेह न दो तो दबी रहेगी, बुझती नहीं प्रेम की आग कभी॥

—श्री ‘रजेश’

*समाप्त*


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