हिन्दू संस्कृति के सच्चे सेवक राजा राम मोहन राय

July 1964

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व बंगाल के हुगली जिले में राजा राममोहनराय उन दिनों पैदा हुए थे जब कि हिन्दू-धर्म पर अज्ञान का अंधकार अपने प्रबल प्रकोप के साथ छाया हुआ था। देर से कोई सुधारक जन्मा न था और विकृतियों ने अविवेकपूर्ण रूढ़ियों के रूप में जनमानस को बुरी तरह आच्छादित कर रखा था। भारतीय सभ्यता के उच्च आदर्श केवल पुस्तकों में लिखने-पड़ने भर की चीज रह गये थे, व्यवहार में अनुपयुक्त अंधपरंपराएं ही धर्म का रूप बनाये बैठी थीं।

अंग्रेजी शासन की जड़ जम चुकी थी। राज्य-आश्रय पाकर ईसाई धर्म तेजी से फैल रहा था। मुसलमानी धर्म भी शताब्दियों से शासकों की छाया में पनप रहा था। इन धर्मों में बुद्धिवादी और प्रतिभाशील लोग पर्याप्त संख्या में मौजूद थे जो अपने धर्मों की विशेषता बताने और हिन्दू मान्यताओं का मखौल उड़ाने में कुछ कमी न रखते। इस प्रचार से प्रभावित हो कर शिक्षित युवक तेजी से विधर्मी बनते चले जा रहे थे। विचारशील लोग अपने धर्म को छोड़ते जा रहे थे, केवल कट्टरपन्थियों पर ही उसका आधार स्थिर रह रहा था।

अरबी, संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन पूरा कर राजा राममोहनराय ने हिन्दू धर्म-शास्त्रों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया और भारतीय संस्कृति के प्राचीन आदर्शों को अत्यन्त प्रेरणाप्रद एवं प्रगतिशील पाया, पर साथ ही यह भी देखा कि उन दिनों चौका, चूल्हा, छूत-छात, भाग्यवान, मन्दिरों में होने वाले अनाचार और अपव्यय जैसी संकीर्णताएं जो धर्म का प्रधान अंग समझी जाती थीं, उनके लिए प्राचीन धर्म-शास्त्र में कोई स्थान नहीं है। इनके समर्थन में तो तत्कालीन संस्कृत के पण्डितों ने कुछ श्लोक गढ़कर प्राचीन ग्रन्थों में मिला देने की धृष्टता मात्र की है। जैसे-जैसे वे इस संबंध में अधिक विचार करते गये उन्हें यह ही निश्चय होता गया कि प्राचीन आदर्शों पर चलने से भी अपने समाज का कल्याण हो सकता है। वर्तमान रूढ़ियां तो हर दृष्टि से अहित ही करती चली जायेंगी, इसलिए उन को बदलना और सुधारना आवश्यक है।

राजा राममोहनराय को हिन्दू-धर्म से लगाव प्रेम था, वे उसे विचारशील लोगों की दृष्टि में सशक्त, प्रबुद्ध, आदर्श और आकर्षक रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे और जिन अनुपयुक्त रूढ़ियों के कारण अपना उपहास होता था उन्हें अशास्त्रीय और अनावश्यक समझ कर हटाना चाहते थे। वे जानते थे कि विचारशील नई पीढ़ी को हिन्दू-धर्म की महत्ता का प्रतिपादन करके ही विधर्मी होने से बचाया जा सकता है। उन्हें लगा कि विधर्मी आक्रमणकारी हिन्दूधर्म को भले ही मिटा न सके हों, पर उसकी मूर्खतापूर्ण रूढ़ियां उसे बर्बाद करके ही छोड़ेंगी, इसलिए उन्हें सुधारने और प्राचीन आदर्शों के अनुरूप हिन्दू-धर्म को बनाने के लिए प्रबल प्रयत्न किये जाने चाहिए। इस निष्कर्ष पर पहुँच कर राजा राममोहन ने एक समाज सुधारक के रूप में काम करना आरम्भ कर दिया।

मन्दिरों में होने वाली अपार धन राशि का अपव्यय, अलग-अलग मन्दिरों में अलग-अलग प्रकृति के देवता, मनौती मानने पर बुरे काम में भी देवता से सहायता पाने की मान्यता, पशुबलि जैसी नृशंसता, देव दासी प्रथा के नाम पर मन्दिरों में वेश्यावृत्ति, पुजारियों का अहंकार और शोषण उन्हें तनिक भी पसन्द न आया। वे आस्तिक थे, भगवान को मानते थे और उसकी उपासना की उपयोगिता भी स्वीकार करते थे पर यह नहीं मानते थे कि—उसे पूजा, प्रलोभन देकर अनुचित कार्यों में सहायता करने के लिए भी राजी किया जा सकता है। अपने विचारों को उनने तत्कालीन समाचार-पत्रों में छपाया और भाषण भी दिये। फलस्वरूप रूढ़िवादी लोग उनके विरुद्ध हो गये। इन विरोधियों में एक उनके पिता भी थे। जिन की नाराजगी के कारण युवक राममोहनराय को घर छोड़ कर भागना पड़ा।

हिन्दू-धर्म में प्रचलित संकीर्णता को देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे बौद्ध-धर्म की ओर आकर्षित हुए और उसका अध्ययन करने तिब्बत चले गये। वहाँ भी उन्होंने लामाओं को ईश्वर के समान अपनी पूजा कराते देखा तो बड़े खिन्न हुए। उन्हें बुद्धिवादी—बौद्धधर्म—से बड़ी आशा थी। पर स्वार्थपरता और संकीर्णता का वहाँ भी बोलबाला देखा तो निराश होकर वहाँ से भी लौट पड़े। मनुष्य अपने को ईश्वर बताये यह धृष्टता उन्हें सहन न हुई और खुले रूप में इसका विरोध करने लगे। लामाओं को यह पता चला तो वे उनकी जान के ग्राहक बन गये। बड़ी कठिनाई से एक उदार तिब्बती महिला की सहायता से वे निकल भागने में समर्थ हुए और वापिस भारत आ गये।

पिताजी की मृत्यु के बाद वे घर पर ही रहने लगे और शास्त्रों के अध्ययन में अधिक समय लगाने लगे। इसी बीच उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गई। परिवार के लोगों ने उसकी भोली स्त्री को आदेश दिलाकर सती होने के लिए राजी कर लिया। बेचारी डरते-डरते पति की लाश के साथ चिता पर बैठी पर जैसे ही आग जलने लगी वह मर्मान्तक पीड़ा से व्याकुल होकर चिता से उठ भागी। कुटुम्बी लोगों ने बाँस मार-मार कर उसे पुनः चिता में झोंक दिया। कोई उसकी चीत्कार सुन न सके, इसलिए जोरों से बाजे बजने का प्रबन्ध कर दिया। इस घटना को जब राममोहनराय ने देखा तो उनकी आँखों में खून बरसने लगा। उन दिनों बंगाल में सती-प्रथा का बहुत जोर था। विधवाओं का निर्वाह भार सहन न करना पड़े और उसके पति की सम्पत्ति को हड़पने का अवसर मिल जाय इस लालच में लोग बेचारी शोकाकुल विधवा को सती होने का उपदेश देते थे जलने में कोई कष्ट न होने का बहकावा देते थे, कमजोरी दिखाने पर कटु-वचन कहते थे और स्वीकृति न सही चुप हो जाने पर भी स्वीकृति की योजना करके सती करने की तैयारी करा देते थे। अपने वंश की नामवरी भी उन्हें उसी में दीखती थी। मरने के पूर्व विधवा को नशीली चीजें खिला देते थे ताकि वह जलते समय कुछ बोल न सके। मंध के नाम पर चलने वाली इस नृशंसता के संबंध में राजा राममोहनराय ने पूरी खोज-बीन की और बेचारी विधवाओं को किस प्रकार सती होने के लिए उद्यत किया जाता है इस क्रूरता के पीछे छिपे रहस्यों का ऐसा खोजपूर्ण एवं दिल दहला देने वाला चित्रण पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया कि पढ़ने वाले के पत्थर हृदय को भी पसीजना पड़ा।

सती प्रथा के विरुद्ध उन्होंने घनघोर आन्दोलन किया रूढ़िवादियों ने उनका फिर विरोध किया पर वे अपने कार्य में लगे ही रहे। जन-मत उनके पक्ष में हुआ और प्रजा के गण्यमान्य लोगों ने सरकार से माँग की कि इस नृशंसता के विरुद्ध कानून बनाया जाय। अंग्रेजी सरकार मान गई और कानून बना कर सती प्रथा को रोक दिया गया। इस प्रकार इस महान समाज-सुधारक की एक बड़ी आकाँक्षा पूरी हुई। उस कानून से जिन सहस्रों विधवाओं को जीवित जला डालने के षडयंत्र से प्राण मिला उनकी आत्माएं इस महान सुधारक की कितनी उपकृत हुईं यह कहने की आवश्यकता नहीं।

विधवाओं की दुर्दशा का दृश्य उनकी आँखों के सामने घूमता तो एक सहृदय व्यक्ति की भाँति वे फूट-फूट कर रोने लगते। उनने विधवा विवाह की आवश्यकता प्रतिपादित की और इसे प्राचीन परम्पराओं और शास्त्र-मर्यादा के अनुकूल सिद्ध करने के लिए ‘विधवा विवाह मीमाँसा’ नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित कराया जिससे लोगों की आँखें खुलीं, और जाना कि यदि किसी विधवा का पुनर्विवाह कर दिया जाता है तो उसमें धर्म या शास्त्र का तनिक भी उल्लंघन नहीं होता। पुरातन पंथी लोग हर नई बात को अधर्म मानने की तरह इन विचारों का भी विरोध करते रहे पर विचारशील लोगों का समर्थन दिन-दिन बढ़ता ही चला गया। अविवेकपूर्ण बातों का विरोध करने वाले लोगों को अन्ततः परास्त ही होना पड़ता है फिर वे भले ही बहुसंख्य क्यों न हों। अकेले राजा राममोहनराय का प्रतिपादन धीरे-धीरे जनता द्वारा एक तथ्य और औचित्य के रूप में स्वीकार किया जाने लगा और विधवाओं के मार्ग से एक बड़ी कठिनाई किसी हद तक दूर हो सकी।

नर और नारी को एक स्तर पर लाने और उनके कर्तव्य एवं अधिकार समान घोषित करने की दिशा में राजा साहब ने जो कार्य किया उससे हिन्दु-धर्म की श्रेष्ठता बढ़ी और इस प्रकार मानवता की एक बड़ी सेवा उनके द्वारा बन पड़ी।

वे हिन्दू धर्म के यथार्थ स्वरूप से नव-युवकों को परिचित कराना चाहते थे इसलिए उन्होंने हिन्दू कालेज की नींव डाली। हिन्दू विश्व विद्यालय के संस्थापक महामना मालवीयजी की तरह राजा राममोहनराय भी यही चाहते थे कि हमारी प्रबुद्ध नई पीढ़ी हिन्दू संस्कृति की महानताओं और विशेषताओं से परिचित होकर अपने आचरणों द्वारा इस उत्कृष्ट आदर्शवाद को विश्व मानव की प्रगति का सर्वश्रेष्ठ माध्यम सिद्ध करे। हिन्दू कालेज उन्होंने इसी उद्देश्य से स्थापित किया और बड़ी लगन से उसे चलाया भी। उन दिनों ईसाई शिक्षा संस्थाओं का जाल फैल रहा था उनके मुकाबले में यह प्रयास दुस्साहसपूर्ण ही था। इस प्रयास को सफल बनाने के लिए उन्हें बाधाओं से निरन्तर संघर्ष करते रहना पड़ा।

समाज सुधार आन्दोलन को गतिशील बनाने के लिए उन्होंने ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मीरत अल अखबार’ नामक दो साप्ताहिक पत्र चलाये। उन दिनों सरकार प्रेस प्रतिबन्ध बहुत कड़े थे। कोई व्यक्ति सरकार की मर्जी के विरुद्ध कुछ छाप नहीं सकता था। इन नियन्त्रणों के विरुद्ध राजा साहब ने बहुत आन्दोलन किया और प्रतिबन्धों को शिथिल कराया।

हिन्दू धर्म से सच्चा प्यार करने वाले, राजा साहब इस महान् संस्कृति को उसके वास्तविक रूप में परिष्कृत करने के लिए अथक परिश्रम करते रहे। उनके प्रयासों से हिन्दू धर्म पर से डगमगाती हुई नई पीढ़ी की आस्था पुनः जमी और बुद्धिजीवी वर्ग विधर्मी संस्कृति के चंगुल में फँसने से बच गया। इसका बहुत कुछ श्रेय उस महान् सुधारक को दिया जाय तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118