संसार के कुशल समाचार

July 1964

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संसार के कुशल समाचार जानने के लिए एक दिन भगवान ने नारद को पृथ्वी पर भेजा।

उन्हें सबसे पहले एक दीन दरिद्र वृद्ध पुरुष मिला जो अन्न वस्त्र के लिए तरस रहा था। नारदजी को उसने पहचाना तो अपनी कष्ट-कथा रो-रोकर सुनाने लगा और कहा, आप भगवान से मिलें तो मेरे गुजारे का प्रबन्ध उनसे करा दें।

नारद उदास मन आगे बड़े तो एक धनी से उनकी भेंट हो गई। उसने भी नारदजी को पहचाना तो उसने खिन्न होकर कहा—मुझे भगवान ने किस जंजाल में फँसा दिया। थोड़ा मिलता तो मैं शान्ति से रहता और कुछ भजन पूजन कर पाता, पर इतनी दौलत तो संभाले नहीं संभलती। ईश्वर से मेरी प्रार्थना करें कि इस जंजाल को घटावें।

यह विषमता देवर्षि को अखरी। वे आगे चल ही रहे थे कि साधुओं की एक जमात से भेंट हो गई। जमात वाले उन्हें चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए और बोले—स्वर्ग में तुम अकेले ही मौज करते रहते हो। हम सबके लिए भी वैसे ही राजसी ठाठ जुटाओ। नहीं तो नारद बाबा चिमटे मार-मार कर तुम्हारा भूसा बना देंगे।

घबराए नारद ने उनकी माँगी वस्तुएं मँगा दीं और जान छुड़ाकर भगवान के पास वापिस लौट गए। जो कुछ देखा वही उनके लिए बहुत था और देखने की उन्हें इच्छा ही न रही।

भगवान् ने नारद से उस यात्रा का वृत्तान्त पूछा तो देवर्षि ने तीनों घटनाएं कह सुनाई। नारायण हँसे और बोले—देवर्षि, मैं कर्म के अनुसार ही किसी को कुछ दे सकने में विवश हूँ। जिसकी कर्मठता समाप्त हो चुकी उसे मैं कहाँ से दूँ। तुम अब की बार जाओ तो उस दीन-हीन वृद्ध से कहना—दरिद्रता के विरुद्ध लड़े—और सुविधा के साधन जुटाने का प्रयत्न करे तभी उसे दैवी सहायता मिल सकेगी। इसी प्रकार उस धनी से कहना—यह दौलत उसे दूसरों की सहायता के लिए दी गई है यदि वह संग्रही बना रहा तो जंजाल ही नहीं आगे चलकर वह विपत्ति भी बन जायगी।

नारदजी ने पूछा—और उस साधु मण्डली से क्या कहूँ? भगवान् के नेत्र चढ़ गये और बोले—इन दुष्टों से कहना कि स्थायी और परमार्थी का वेष बनाकर आलस्य और स्वार्थपरता की प्रवंचना इतनी असह्य है कि उन्हें नरक के निकृष्टतम स्थान में अनन्त काल तक पड़ना पड़ेगा।


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