उस समय भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन जोर पकड़ रहा था। सरकारी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने का भी बहिष्कार होना आवश्यक था। किन्तु उस समय आन्दोलनकारियों के पास न इतना धन था और न साधन ही जिससे महाविद्यालय चला सकें। कुछ रुपया इकट्ठा हुआ। महाविद्यालय की रूपरेखा बनाई गई। किन्तु उसके संचालन के लिए भी तो योग्य अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो बिना काफी वेतन के सम्भव नहीं था। विद्यालय की ओर से केवल 75) रु0 मासिक वेतन पर संचालक का विज्ञापन किया गए। सभी ने सोच रक्खा था इतने-से वेतन पर कौन अच्छा आदमी आयेगा? सब निराश ही थे कि अचानक एक आवेदनपत्र आया और वह भी एक योग्य अनुभवी व्यक्ति का जिसकी स्वप्न में भी आशा नहीं की जा सकती थी। बड़ौदा कालेज के अध्यक्ष श्री अरविन्द घोष ने, जिन्हें उस समय अन्य सुविधाओं के साथ सात सौ रुपये मासिक वेतन मिलता था उसे छोड़कर बंगाल में स्थापित इस नव-राष्ट्रीय महाविद्यालय के लिए 75) रु0 मासिक वेतन पर काम करना स्वीकार कर लिया। जहाँ इतना त्याग आदर्श किसी संस्था का संचालक उपस्थित करे वहाँ छात्रों के चरित्र एवं भावनाओं पर क्यों प्रभाव न पड़ेगा? उस विद्यालय के छात्रों ने आगे चल कर स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारी भाग लिया और उनमें से कितने ही चोटी के राजनैतिक नेता बने।