जीवन-निर्माण का मासिक प्रशिक्षण

July 1964

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युग-निर्माण योजना तीन भागों में विभक्त है। उसके तीन प्रधान कार्यक्रम हैं। (1) स्वस्थ शरीर (2) स्वच्छ मन (3) सभ्य समाज। इन तीन आयोजनों द्वारा व्यक्ति और समाज का उत्कर्ष सम्भव है। यह तीन कार्यक्रम ही आन्दोलनों के रूप में परिणित किए जाते हैं। इनकी पूर्ति के लिये जहाँ जिस प्रकार की क्रम व्यवस्था बन सकती हो वह बनाई जानी चाहिए। गत जून 63 के अंग में शतसूत्री योजना छप चुकी है। उससे न्यूनाधिक कार्यक्रम भी बन सकते हैं। मूल उद्देश्य और आदर्श तीन ही हैं। हम में से प्रत्येक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि अपने व्यक्तिगत जीवन में तथा परिवार में एवं परिवार से बाहर जिन लोगों का भी संपर्क हो उनके मनः—क्षेत्रों में, इन तीन तथ्यों की उपयोगिता एवं आवश्यकता प्रतिष्ठापित कराई जाय। जो इन तथ्यों को स्वीकार करते हों उन्हें आदर्शों को व्यवहारिक जीवन में कार्यान्वित करने की प्रेरणा दी जाय। इसी गतिविधि को अपनाकर हम आत्मकल्याण एवं विश्व-कल्याण के अपने महान लक्ष्य की पूर्ति के लिये आगे बढ़ सकते हैं।

अखण्ड-ज्योति परिवार के—युग-निर्माण योजना के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है कि उपरोक्त तीन पुण्य प्रक्रियाओं को अपने-अपने क्षेत्र में गतिशील बनाने के लिए, आन्दोलन का रूप देने के लिए प्रयास करे। संगठन की बड़ी शक्ति है। जहाँ अपने दस भी सच्चे कार्यकर्ता होंगे वहाँ यह आन्दोलन आशाजनक रूप से आगे बढ़ रहा होगा। युग की पुकार—विश्वमानव की आवश्यकता पूर्ति के लिए, यह सामाजिक अभियान ऐसा उपयोगी है कि थोड़े प्रयत्न से ही विचारशील व्यक्ति आसानी से उसे पकड़ लेंगे। आवश्यकता केवल प्रथम गति प्रदान करने की—आरंभिक शुभारम्भ करने की है। इस कार्यक्रम को लेकर मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध करने के लिए हम में से प्रत्येक को गतिशील होना ही चाहिये। संगठित रूप से प्रयत्न करने पर तो आशाजनक सफलता सुनिश्चित है। यों एकाकी व्यक्ति भी अपने सत्प्रयत्नों में संलग्न रहकर कहीं भी अनुकूल वातावरण उत्पन्न कर सकता है।

यह निश्चित है कि जिन आदर्शों को हम विश्वव्यापी बनाना चाहते हैं उनका आरम्भ हमें अपने निज के जीवन से करना होगा। हमारा अपना जीवन आदर्श, सुविकसित सुखी सुसंस्कृत एवं सम्मानास्पद बने तभी उसे देखकर दूसरे लोग उस प्रकाश को ग्रहण करने में तत्पर हो सकते हैं। इस दृष्टि से यह आवश्यक समझा गया है कि जीवन जीने की कला—व्यावहारिक आध्यात्मवाद को सिखाने के लिए एक सर्वांगीण प्रबन्ध किया जाय। यह प्रशिक्षण योजना इसी आश्विन मास से गायत्री तपोभूमि में आरम्भ की जाने वाली है। एक-एक महीने के शिविर यहाँ नियमित रूप से होते रहेंगे। पहला शिविर ता0 21 सितम्बर से 21 अक्टूबर तक का होगा। इसकी रूप-रेखा नीचे दी जा रही है—

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन की दृष्टि से यह शिविर लगाये जायेंगे। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक इनका क्रम चला करेगा। जिनकी धर्मपत्नियां भी आ सकती हों वे उन्हें भी लाने का प्रयत्न करें। वयस्क बच्चे भी इस शिक्षण का लाभ उठा सकते हैं।

शिक्षार्थियों के निवास के लिए स्वतंत्र कमरे मिलेंगे। भोजन व्यय तथा बनाने का कार्य शिक्षार्थी स्वयं करेंगे

इस एक मास में प्रत्येक शिक्षार्थी दो गायत्री अनुष्ठान पूरे करेगा एक पूर्णिमा से अमावस्या तक दूसरी अमावस्या से पूर्णिमा तक। जिन्हें कोई विशेष उपासना की आवश्यकता समझी जायगी उन्हें वह भी बता दी जायगी।

शरीर एवं मन के शोधन के लिए जो सज्जन चान्द्रायण व्रत करना चाहेंगे उन्हें आवश्यक देख-रेख के साथ उसे आरम्भ कराया जायगा। जो वैसा न कर सकेंगे उन्हें दूध कल्प, छाछ कल्प, शाक कल्प, फल कल्प के लिए कहा जायगा। जो उसे भी न कर सकेंगे उन्हें चिकित्सा विभाग की एक विशेष पद्धति द्वारा अन्न कल्प कराया जायगा, जो बालकों तक के लिए सुगम हो सकता है। इन व्रतों का परिणाम शारीरिक ही नहीं मानसिक परिशोधन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है।

प्राकृतिक चिकित्सा विधि से शिक्षार्थियों के पेट संबंधी रोगों की चिकित्सा इस अवधि में होती रहेगी और यह प्रयत्न किया जायगा कि पाचन तन्त्र की विकृति को सुधारने के लिए अधिक से अधिक उपचार किया जाय। पाचन तन्त्र के उदर रोगों के अतिरिक्त अभी अन्य रोगों की चिकित्सा का प्रबन्ध यहाँ नहीं हो पाया है। उपवास एनीमा, मिट्टी की पट्टी, टब बाथ, सूर्य स्नान, आसन, प्राणायाम, वाष्प स्नान, मालिश आदि उपचारों का लाभ देने के अतिरिक्त इस विज्ञान की आवश्यक शिक्षा भी दी जायगी ताकि अपने या दूसरों के स्वास्थ्य संकट का निवारण कर सकने में यह शिक्षार्थी समर्थ हो सकें।

आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, निराशा, भय, क्रोध, चंचलता, उद्विग्नता, संशय, इन्द्रिय लोलुपता, व्यसन, आलस, प्रमाद जैसे मनोविकारों का उपचार प्रवचनों द्वारा वस्तुस्थिति समझाकर विशिष्ट आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा तथा व्यावहारिक उपाय बताकर किया जायगा। प्रयत्न यह होगा कि मानसिक दृष्टि से भी शिक्षार्थी रोग मुक्त होकर जाय।

मधुर भाषण, शिष्टाचार, नम्रता, सज्जनता, स्वच्छता, सदा प्रसन्न रहना, नियमितता, मितव्ययिता, सादगी, श्रमशीलता, तितीक्षा, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए आवश्यक उपाय कराये जायेंगे। बौद्धिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण का मनोवैज्ञानिक क्रम इस प्रकार रहेगा जिससे शिक्षार्थी को सद्गुणी बनने का अधिकाधिक अवसर मिले।

जीवन में विभिन्न अवसरों पर आने वाली समस्याओं को हल करने के लिए ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जायगा, जिसके आधार पर शिक्षार्थी हर परिस्थिति में सुखी और सन्तुलित रहकर प्रगति की ओर अग्रसर हो सके।

दाम्पत्ति जीवन में आवश्यक विश्वास, प्रेम तथा सहयोग रखने, बालकों को सुविकसित बनाने तथा परिवार में सुव्यवस्था रखने के सिद्धान्तों एवं सूत्रों का प्रशिक्षण।

आध्यात्मिक उन्नति एवं मानव जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने का सुव्यवस्थित एवं व्यवहार में आ सकने योग्य कार्यक्रम बनाकर चलने का परामर्श एवं निष्कर्ष।

उपरोक्त आधार पर एक महीने की प्रशिक्षण व्यवस्था बनाई गई है। सप्ताह में छः दिन शिक्षा चलेगी, एक दिन, छुट्टी रहेगी, जिसका उपयोग शिक्षार्थी मथुरा, वृंदावन, गोकुल, महावन, दाऊनी गोवर्धन, नन्दगाँव, बरसाना, राधाकुण्ड आदि ब्रज के प्रमुख तीर्थों को देखने में कर सकेंगे। शिक्षण का कार्यक्रम काफी व्यस्त रहेगा, इसलिए उत्साही एवं परिश्रमी ही उसका लाभ उठा सकेंगे।

आलसी, अवज्ञाकारी, व्यसनी तथा उच्छृंखल प्रकृति के लोग न आवें तो ही ठीक है।

यह शिक्षा पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है पर स्थान संबन्धी असुविधा तथा अन्य कठिनाइयों के कारण अभी, थोड़े-थोड़े शिक्षार्थी ही लिये जा सकेंगे। जिन्हें आना हो पूर्ण स्वीकृति प्राप्त करके ही आवें। बिना सूचना दिये, अनायास या कम समय के लिये आने वाले इस शिक्षण में प्रवेश न पा सकेंगे। अपने आवश्यक कपड़े तथा बर्तन शिक्षार्थियों को साथ लाने चाहिए। मार्ग व्यय एवं भोजन आदि का पूरा प्रबन्ध करके चलना चाहिये। इस शिक्षण का तथा चिकित्सा की कोई फीस नहीं है पर अपना खर्च तो स्वयं ही उठाना होगा।

अखण्ड-ज्योति के प्रत्येक सदस्य को इन पंक्तियों द्वारा इस जीवन निर्माण की शिक्षा के लिए सादर-आमन्त्रण भेजते हैं। जिन्हें अपने लिए यह उपयुक्त लगे वे अपने आने के संबंध में पत्र व्यवहार द्वारा महीना निश्चित कर लें, क्योंकि शिक्षार्थी अधिक और व्यवस्था कम करने से क्रमशः ही स्थान मिल सकना सम्भव होगा।


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