मनोविकारों का शरीर पर प्रभाव

July 1964

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चिकित्सा शास्त्रियों के सामने यह एक विचित्र समस्या मौजूद है कि शरीर में रोग के अमुक कीटाणु न होने पर भी उस रोग से रोगी ग्रसित क्यों बना रहता है? कई बार ऐसे रोगी देखने को मिलते हैं जिनको समस्त परीक्षणों के उपरान्त भी किसी रोग से ग्रसित नहीं पाया गया। रोगी बहुत कष्ट पीड़ित होते हैं पर चिकित्सक यह समझ नहीं पाते कि वस्तुतः उन्हें क्या रोग है और उसकी क्या चिकित्सा की जाय?

कई बार ऐसे रोगी भी देखने में आते हैं जिनका आहार-विहार संयम-नियम सब कुछ ठीक होता है फिर भी उन्हें बीमारी ने घेरे रखा होता है। कई बार उत्तम से उत्तम चिकित्सा करने पर भी, यहाँ तक कि पीड़ित अंगों की शल्य-क्रिया करने पर भी कष्ट से छुटकारा नहीं होता। कितनी ही बार आपरेशन से पूर्व जिस अंग के खराब होने की कल्पना की गई थी वह फाड़-चीर करते समय बिल्कुल निर्दोष पाया गया है और डाक्टरों को अपनी भूल का पश्चाताप करना पड़ा है।

‘मैन्स प्रिजम्पशस ब्रेन’ नामक ग्रन्थ के प्रणेता डॉक्टर साइमन्स ने ऐसे सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि ऐसे रोगी वस्तुतः मानसिक कारणों से रुग्ण होते हैं और उनकी चिकित्सा औषधि विज्ञान या शल्य क्रिया द्वारा संभव नहीं होती। उन पागलों या अर्ध विक्षिप्तों की बात छोड़ भी दें जिन्हें प्रत्यक्ष मानसिक रोगी कहा जा सकता है तो भी असंख्य रोगी ऐसे मिलेंगे जो अपनी किन्हीं अनुपयुक्त विचारणाओं एवं भावनाओं के फलस्वरूप शारीरिक दृष्टि से रोगी बने हैं और निरन्तर कष्ट सहते रहते हैं। उनका कष्ट निवारण तभी संभव है जब उनकी मानसिक व्यथाओं और द्विविधाओं का निराकरण हो सके।

रक्तचाप बढ़ने के संबंध में अब तक जितनी शोधें हुई हैं उनकी चर्चा करते हुए फ्राँसीसी मेडीकल ऐसोसिएशन के प्रधान डॉ. ब्लैवस्की ने लिखा है—इस रोग के तीन चौथाई पीड़ितों ने चिन्ताओं से ग्रसित रहकर अपने शरीर में इस व्यथा को आमन्त्रित किया होता है। मद्यपान एवं अनुपयुक्त रहन-सहन के कारण रक्तचाप से पीड़ित होने वालों की अपेक्षा चिन्ताग्रस्त कई गुने अधिक होते हैं। उन्होंने हृदय रोगों की चर्चा करते हुए लिखा है क्रोधी और ईर्ष्यालु स्वभाव के लोगों को बहुधा यह व्यथा आ दबोचती है। जिन्हें छोटी-छोटी बातों पर डर बहुत लगता है, तरह-तरह की आशंकाएं किया करते हैं और दुःखद भविष्य के बुरे चित्र मस्तिष्क में बनाया करते हैं उनकी रक्त वाहिनी नाड़ियाँ सकुच जाती हैं, खून गाढ़ा हो जाता है और उसमें बढ़ी हुई फुटकियाँ हृदय की धड़कन तथा अन्य बीमारियाँ पैदा करती हैं।

जो महिलाएं गर्भ धारण नहीं करना चाहतीं पर वे वैसी विपत्ति में फँस जाती हैं तो उनकी पश्चाताप भरी उद्विग्न मनोदशा जन्मने वाले बालक के शरीर और मस्तिष्क पर बहुत बुरा असर छोड़ती है, इतना ही नहीं वे महिलाएं रक्ताल्पता तथा बहुमूत्र की शिकार बनती हैं। शिकागो विश्वविद्यालय स्वास्थ्य अन्वेषण विभाग ने दाम्पत्ति विद्वेष के कारण जुकाम और गठिया का प्रकोप होना सिद्ध किया है। अन्वेषकों का कथन है कि ऐसे लोगों की मानसिक उलझन जब तक हल न होगी तब तक उत्तम से उत्तम चिकित्सा से भी उन्हें कुछ लाभ न पहुँचेगा। भीतर ही भीतर घुटने वाले, अपनी मन की व्यथा किसी से न कह सकने वाले लोगों को बहुधा दमा साँस फूलना, फेफड़ों की जलन, प्लूरिसी जैसी बीमारियाँ प्रकट होती देखी गई हैं।

औषधि चिकित्सा उन्हीं रोगों पर सफल होती है जो शारीरिक विकारों के कारण उत्पन्न हुए होते हैं। दवाओं के कितने ही रोगों पर असफल होने का एक बड़ा कारण यह है कि उन बीमारियों की जड़ मन में होती है। मन का विक्षोभ शरीर को प्रभावित करता है और जहाँ अवसर देखता है वहीं कोई रोग खड़ा कर देता है। गन्दगी को रोगों का बड़ा कारण माना जाता है और कहा जाता है जो स्वच्छता का ध्यान नहीं रखते थे अधिक बीमार पड़ते हैं पर यह मान्यता अब पुरानी हो चली है। नवीन शोधों ने यह सिद्ध किया है कि निश्चिंत और प्रसन्न चित्त रहने वाले लोग सबसे अधिक निरोग रहते हैं। निम्न स्तर के समाजों में सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता, वहाँ गन्दगी भी बहुत रहती है और स्वास्थ्य के सर्वमान्य नियमों की भी वे लोग उपेक्षा करते रहते हैं फिर भी मानसिक उलझनों से बचे रहने के कारण वे उन लोगों से कहीं अच्छा स्वास्थ्य बनाये रहते हैं जो सफाई तो बहुत रखते हैं पर मनोविकारों से निरन्तर भावनात्मक उत्तेजना बनाये रखते हैं।

हालैण्ड के डॉ0 रेमाण्ड इलियन ने अपने 40 वर्षीय मनोविज्ञान अनुसंधानों का निष्कर्ष प्रकाशित करते हुए लिखा है—छल, कपट और दुराव का व्यवसाय करने वाले—बाहर से कुछ और भीतर से कुछ और बने रहने वाले मनुष्यों में दुहरे व्यक्तित्व पनपते हैं और वे दोनों परस्पर विरोधी होने के कारण निरन्तर संघर्ष करते हुए एक ऐसी विषाक्त मनोभूमि प्रस्तुत करते हैं जिससे कितने ही शारीरिक और मानसिक रोग उपज पड़े। एक कोट को एक समय में दो आदमी पहनने का प्रयत्न करें या एक म्यान में दो तलवारें ठूँसी जायें तो उन आवरणों में टूट-फूट होकर रहेगी। इसी प्रकार जो लोग बाहर से अपने को बहुत अच्छा दिखाने का प्रयत्न करते हैं और भीतर बहुत बुरे होते हैं वे अपने आरोग्य के लिए एक स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करते हैं। इससे यह अच्छा है कि वे जैसे भी कुछ हों भीतर बाहर से एक-सा रहने का प्रयत्न करें।

झूठ और कपट को नैतिक दृष्टि से पाप माना गया है और इससे ईश्वरीय दण्ड मिलने की बात कही गई है। शारीरिक दण्ड तो प्रत्यक्ष ही है। असत्यवादी एवं धोखेबाज लोग प्रपञ्च भरी धूर्तता से अपना ही अहित सबसे अधिक करते हैं। उनके भीतर जो अंतर्द्वंद्व चलता है वह मानसिक संस्थान को एक प्रकार से क्षत-विक्षत कर डालता है। फलस्वरूप का शरीर रोगी रहना आरम्भ हो जाता है।

इस शरीर पर मन का पूर्णतया अधिकार है। क्रोध शोक एवं हर्ष उल्लास में चेहरे की आकृति एवं शरीर की स्थिति बदलते हम बराबर देखते रहते हैं। कोई बड़ा मानसिक आघात लगने पर, पागल हो जाने या मर जाने पर की घटनाएं अक्सर घटित होती रहती हैं। क्रोध में उन्मत्त हुए व्यक्ति ऐसे नृशंस कार्य कर बैठते हैं जिससे उन्हें आजीवन पछताना पड़ता है। शोक में उद्विग्न हुए व्यक्ति आत्महत्या तक कर बैठते हैं। प्रसन्नता और प्रतिष्ठा मिलने पर दुर्बल एवं रुग्ण व्यक्तियों का स्वास्थ्य भी तेजी से सुधरने लगता है। मिथ्या भय से भी मनुष्य थर-थर काँपने लगता है और आपत्ति की सम्भावना का समाचार सुनते ही भूख, प्यास एवं नींद के विदा होते देर नहीं लगती। इन प्रत्यक्ष तथ्यों से हर कोई सहज ही यह जान सकता है कि मन की स्थिति का कितनी जल्दी और कितना गहरा प्रभाव पड़ता है।

ज्ञान तन्तुओं में प्रवाहित होने वाली विद्युत धारा का केन्द्र मस्तिष्क ही तो है। मन की जैसी स्थिति होती है उसी स्तर का यह विद्युत प्रवाह भी रोम-रोम में दौड़ता रहता है। रक्त के निर्मल और विषाक्त होने का स्वास्थ्य पर जैसा प्रभाव पड़ता है उससे भी अधिक परिणाम मस्तिष्क द्वारा ज्ञान तन्तुओं में प्रवाहित विद्युत धारा के गुण दोषों पर होता है। जो मस्तिष्क मनोविकारों के कारण उत्तेजित रहते हैं उनकी वह विकृति सारे शरीर में फैलती है और विविध रोगों का सृजन करती है। शान्त मन एकाग्र चित्त, नियमित विचारों का अभ्यास करके योगीजन जो आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करते हैं उसमें अशान्ति जन्य अपव्यय रोक कर शान्ति के कारण सुविकसित बनी हुई मानसिक स्थिति का सदुपयोग ही प्रधान आधार होता है। मन को निर्मल करने से आध्यात्मिक प्रगति तो होती है साथ ही मानसिक विकृतिजन्य अधिकाँश रोगों के निराकरण और सुदृढ़ स्वास्थ्य का वरदान भी मिलता है। मनोविकारों से बचे रहना स्वास्थ्य की सुरक्षा का सर्वोपरि आधार माना जा सकता है।

लुकमान का कथन है कि “आदमी में कोई रोग नहीं होता, हाँ रोगी आदमी अवश्य देखे जाते हैं।” आहार-विहार के सुधार द्वारा स्वास्थ्य ठीक होता है। पौष्टिक और बलवर्धक पदार्थ शरीर को पुष्ट करते हैं। इतना जानना ही पर्याप्त नहीं, हमें यह भी जानना चाहिए कि मन को शान्त निश्चिन्त, निर्मल और प्रसन्न रखने से स्वास्थ्य की तीन चौथाई समस्या हल हो सकती है। जिसका मन निरोग होगा शरीर उसी का निरोग रहेगा।


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