विश्व व्यवस्था

July 1964

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यह विश्व व्यवस्था अपनी गति से चलती है,

तुम चाहो तो इस गति का लाभ उठा देखो।

व्यक्तित्व तुम्हारा यदि शुभ गति का प्रेमी हो,

तो उसमें प्रभु का प्रेरक हाथ लगा देखो।

तुम कुछ न करोगे तो भी विश्व चलेगा ही,

फिर क्या नर का कतृत्य ज्ञान निस्सार नहीं?

वह क्या बाँसों लम्बा अधिकार जताएगा?

जिसका अपनी साँसों पर भी अधिकार नहीं।

तब गर्व और अधिकारों का लड़ना छोड़ो,

कर्तृत्व नहीं कर्तव्य भाव का ध्यान करो।

निश्चय तुम होगे अखिल विश्व वैभव स्वामी,

यदि तुम अपनी सच्ची विभुता का ज्ञान करो।

काँटे दिखते हैं जब कि फूल से हटता मन,

अवगुण दिखते हैं जब कि गुणों से आँख हटे।

उस मन के कमरे में दुख क्यों आ पायेगा?

जिस कमरे में आनन्द और उल्लास डटे।

—बलदेवप्रसाद मिश्र

अपना अतिशय चैतन्य लिए इस धरती पर-

युग के श्वासों को सुरभित करने आये हो।

कलि के कर्दम में खड़े हुए तुम पंगज से—

अपनी सुषमा में सतयुग को भरलाये हो॥

फिर भी निर्लिप्त निछावर करते आये हो-

जन-हेतु स्वयं के जीवन का तुम हर स्पंदन।

युग-पुरुष! तुम्हारा अभिनन्दन—

युग की पीड़ा का हालाहल खुद पीकर तुम-

पीयूष सभी को बाँट रहे हो, निर्भय बन।

वत्सलता की यह गोद हो गई हरी भरी-

पर-हित जब से कि समर्पित तुमने किया स्तवन।

युग के पथ दर्शक! आज तुम्हारी सेवा में-

युग-श्रद्धा आई है करने को पद-बंधन॥

युग-पुरुष ! तुम्हारा अभिनन्दन-

—मुनि बुद्धमल

असत् से ले चल सत् की ओर,

तमस् से मुझे ज्योति की ओर,

मृत्यु से अमृत-पथ की ओर—

असत् से ले चल सत् की ओर!

—रामस्वरूप ‘खरे’

जीवन में अभ्युत्थान लिये,

अभिनव उन्नत निर्माण लिये,

जागृति के नूतन गान लिये,

नवयुग का नव आह्वान लिये,

मानवता के सम्मान जाग,

शक्ति स्रोत तूफान जाग,

उत्कर्षों के अभिमान जाग,

प्राचीन स्वर्ग विहान जाग,

—अज्ञात

यह अकेलापन, अँधेरा, यह उदासी, यह घुटन,

द्वार तो हैं बन्द, भीतर किस तरह झाँके किरन!

बन्द दरवाजे जरा से खोलिए,

रोशनी के साथ हँसिए-बोलिए

मौन पीले पात-सा झर जायगा,

तो हृदय का घाव खुद भर जायगा!

एक जीना है हृदय में भी, सहज घर में नहीं,

सर्जना के दूत आते हैं सभी होकर वहीं!

ये अहम् की शृंखलाएं तोड़िए,

और कुछ नाता कली से जोड़िए,

जब सड़क का झोर भीतर आयेगा,

तो अकेलापन स्वयं मर जायगा।

आइए, कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जिएँ,

अंजुरी भर दूसरों के दर्द का अमरित पिएँ।

—बालस्वरूप ‘राही’


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