स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन की पुण्य प्रक्रिया

July 1964

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मनुष्य का समस्त विकास तीन भागों में विभक्त है। (1) शरीर, (2) मन (3) समाज इन तीनों को सुदृढ़ एवं समुन्नत बनाने का प्रयास करते हुए ही हम आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य पूरा कर सकते हैं। युग-निर्माण योजना, स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की अभिनव रचना के एक सुनियोजित अभियान के रूप में ही अग्रसर हुई है।

जीवन के इन तीनों पहलुओं को सुविकसित बनाने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयत्नों के द्वारा पूरा-पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिये। उन्हीं विचारों को सार्थक कहा जा सकता है जो कार्य रूप में परिणित हो सकें। परामर्श विचारों में से आमतौर से यह विचार विनिमय होता रहा कि युग-निर्माण की विचारधारा को कार्यान्वित करने के लिए हमें किस प्रकार और क्या-क्या कदम उठाने चाहिएं।

स्वास्थ्य आन्दोलन के संबंध में निश्चय हुआ कि हम लोग (1) प्रातः दूध, छाछ, नींबू, शहद, जैसी पतली वस्तुओं के अतिरिक्त दिन में केवल दो-बार ही भोजन किया करें। बीच-बीच में कुछ-न-कुछ खाते पीते रहने की आदत छोड़ें।

(2) चटोरापन छोड़ें। भोजन सुपाच्य, सादा, हलका, शाक भाजियों की अधिक मात्रा का एवं कम-से-कम मसालों का लिया करें। खाद्य पदार्थों की संख्या कम ही रहा करे।

(3) भाप से पकाने और हाथ चक्की का आटा लेने की व्यवस्था करें।

(4) माँस मछली, अण्डा, पकवान, मिठाई, चाट, पकौड़ी, अचार एवं व्यंजनों की आदत छोड़ें। शराब, गाँजा, भाँग, अफीम, तमाखू, चाय जैसे नशों से बचे ही रहें।

(5) शरीर, वस्त्र, घर भोजन और सामान की सफाई का पूरा ध्यान रखें खुली हवा और धूप से संपर्क रखें।

(6) ब्रह्मचर्य का अधिकाधिक पालन करें।

(7) जल्दी सोने और जल्दी उठने की आदत डालें।

(8) सप्ताह में कम-से-कम एक समय का उपवास किया करें।

(9) फल-शाक एवं फलदार वृक्षों के लगाने का सामूहिक प्रयत्न करें।

(10) व्यायामशालायें खोलें, व्यायाम शिक्षा की व्यवस्था बनावें और प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा रोग निवारण की पद्धति का प्रसार करें।

यह दस कार्य-क्रम स्वास्थ्य संवर्धन के लिये महत्वपूर्ण हैं। थोड़ा-सा ध्यान देकर अपने व्यक्तिगत जीवन में, परिवार के तथा समीपवर्ती लोगों में इन बातों को आसानी से प्रतिष्ठापित किया जा सकता है, अध्यापक अपने छात्रों को एवं चिकित्सक अपने रोगियों को इन बातों की प्रेरणा अधिक सफलतापूर्वक दे सकते हैं। ऐसे लेख, भाषण, चर्चा प्रशिक्षण-शिविर, सम्मेलन, प्रदर्शनी, प्रतियोगिता, आदि उपायों से भी इन बातों को जन स्वभाव का अंश बनाने का प्रयत्न किया जा सकता है।

स्वच्छ-मन आन्दोलन के लिये युग-निर्माण सत्संकल्प में सन्निहित विचारधारा को जनमानस में प्रविष्ट कराने के लिये जो गतिविधियाँ, जहाँ जिस प्रकार जितनी मात्रा में चल सकती हों उन्हें चलाया जाना चाहिये। नीचे लिखे दस कार्य तो हर जगह बड़ी आसानी से चलाये जा सकते हैं।

(1) शिक्षा प्रसार के लिये समुचित ध्यान दिया जाय। जहाँ स्कूल नहीं हैं वहाँ खुलवाये जायें। जो अभिभावक अपने बालकों को पढ़ाते नहीं, उसके लिये उन्हें प्रेरणा दी जाय। कन्याओं की शिक्षा के महत्व को घर-घर जाकर विशेष रूप से समझाया जाय।

(2) वयस्क स्त्री पुरुषों के लिए उनकी सुविधा के समय प्रौढ़ पाठशालाएँ चालू की जायें। निरक्षरता के कलंक को दूर किया जाय। जिनके शरीर और मन में पढ़ने की क्षमता है उन्हें अशिक्षित न रहने दिया जाय। इस प्रौढ़ शिक्षा आन्दोलन के लिये ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता होगी जो स्वस्थ-शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज रचना के आदर्शों से भरी हुई हों। शिक्षक का प्रयत्न यह हो कि साक्षरता सीखने के साथ-साथ शिक्षार्थी उन पुस्तकों के पाठों के आधार पर जीवनोत्कर्ष एवं समाज रचना के लिये आवश्यक तथ्यों को भी हृदयंगम करें।

(3) ऐसे पुस्तकालय एवं वाचनालय चलाये जाएं जिनमें स्वस्थ-विचारधारा की पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएं आवें घर-घर पुस्तकें देने और लेने जाने का प्रबन्ध करके ही सद्ज्ञान के लिए जनरुचि उत्पन्न की जा सकती है इसलिये इस तथ्य का अवश्य ध्यान रखा जाय।

(4) स्कूलों के अध्यापकों के लिए एक ऐसा मार्ग-दर्शन प्रस्तुत किया जाय, जिसके आधार पर वे इतिहास, भूगोल, साहित्य आदि पड़ते समय नैतिक आदर्शों को भी हृदयंगम कराते चलें। प्रत्येक कक्षा के छात्रों के मनोविकास के अनुरूप एक ऐसी नैतिक शिक्षा पद्धति भी चले जो सैद्धान्तिक तथ्य एवं व्यावहारिक कार्यक्रम देती रहे। प्रत्येक कक्षा के लिए ऐसी नैतिक शिक्षा पुस्तकें बनें जो छात्रों और अध्यापकों का उपरोक्त प्रकार का मार्ग दर्शन कर सकें। स्कूलों में जहाँ एक शिक्षण चल सके वहाँ तो सर्वोत्तम अन्यथा युग-निर्माण विचारधारा के अध्यापक अपने घरों पर रात्रि पाठशाला की तरह यह शिक्षा चलावें। ऐसा भी हो सकता हैं कि केवल छुट्टी के दिन इस प्रकार के क्लास लगाये जावें। गीता रामायण परीक्षा की तरह इस प्रशिक्षण की परीक्षाएँ भी रखी जा सकती है और उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाण पत्र मिलने की व्यवस्था बनाकर उन्हें इस शिक्षा पद्धति के लिए विशेष रूप से आकर्षित किया जा सकता है।

(5) दीवारों पर आदर्शवादिता, धर्म एवं सदाचार के लिये प्रेरणा देने वाले वाक्य लिखे जाएं। जिससे नगर की दीवारें एक बोलती पुस्तक की तरह प्रेरणाप्रद सिद्ध हो सकें।

(6) संगीत, कविता, भजन, कीर्तन में आदर्शवादिता का समावेश करके जन-गायन में प्रेरणाप्रद तत्वों का समावेश किया जाय। ऐसी गान गोष्ठियाँ हुआ करें जिनमें जीवनोत्कर्ष की भावना तरंगित हो सके। पर्व त्यौहार एवं उत्सवों पर महिलाओं द्वारा गाये जाने के लिये प्रत्येक क्षेत्रीय भाषा में उत्तम गायन तैयार हों।

(7) ऐसी भाषण प्रतियोगिताएँ चालू की जाएं जिनमें नव-निर्माण के उपयुक्त विचारों का प्रकटीकरण हो। शिक्षा-प्रद दोहों की अंताक्षरी प्रतियोगिताएँ प्रचलित की जाएं। इसके लिये प्रेरणाप्रद दोहों का अकारादि क्रम से संग्रह करके अंताक्षरी को शिक्षात्मक बनाने की सुविधा उत्पन्न की जाए।

(8) घरों में टाँगने के लिये आदर्श वाक्य, महापुरुषों के तथा प्रेरणाप्रद घटनाओं के चित्र प्रकाशित हों, ओर उन्हीं से घरों को सजाये जाने का आन्दोलन चले।

(9) चित्रकला प्रदर्शिनी , अभिनय, जीवन लीलाएँ, नाटक, एकांगी आदि मनोरंजन माध्यमों से सुरुचि उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जाय। यदि सम्भव हो तो व्यापारिक आधार पर ऐसी कम्पनियाँ भी बनें जो लाउडस्पीकरों पर गाये जा सकने योग्य भावनापूर्ण रिकार्ड तथा सिनेमा घरों में दिखाये जा सकने योग्य नव-निर्माण के उद्देश्य से फिल्म बना सकें ।

(10) समाचार पत्रों में सन्मार्ग की दिशा में प्रेरणा देने वाले समाचार एवं लेख छपें। पुस्तकों के लेखन प्रकाशन का ऐसा व्यापक एवं व्यवस्थित तन्त्र बने जिसके द्वारा उत्कृष्ट साहित्य की आवश्यकता उचित मूल्य पर पूर्ण होती रहे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये विभिन्न भाषाओं में, विभिन्न विषयों के पत्र निकलें। इनका उद्देश्य पाठकों के नैतिक विकास के अतिरिक्त और कुछ न हो।

उपरोक्त दस कार्यक्रम ऐसे हैं जिनकी किसी-न-किसी प्रकार की व्यवस्था हर जगह हो सकती है। इन माध्यमों से आज की मानसिक सत्प्रवृत्तियों एवं जनमानस को सुसंस्कृत बनाने में आशाजनक योगदान मिल सकता है—

जेष्ठ मास के तीनों शिविरों में यह कार्यपद्धति बहुत उपयुक्त समझी गई और सारे परिवार में इसके प्रचलन की कामना की गई।


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