काम से जी न चुरावें

July 1964

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उपनिषद्कार ने कहा है “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीबिषेच्छतं समा।” कर्म करते हुए हम सौ वर्ष जीने की इच्छा करें। आराम करते हुए सुख भोगते हुए, आनन्द मनाते हुए, सौ वर्ष जीने के लिए क्यों नहीं कहा उपनिषद् के ऋषि ने? इसीलिए कि श्रम के अभाव में आराम, आनन्द, यहाँ तक सौ वर्ष जीने का अधिकार भी छिन जाता है हम से। श्रम के साथ ही जीवन अपनी महानता और समृद्धियों के पर्दे खोलता है। जीवन की पूर्णता प्राप्त करनी है तो परिश्रम करना पड़ेगा।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, ‘श्रम ही जीवन है जिस समाज में श्रम को महत्व नहीं मिलता वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है।”

अमेरिका के धनकुबेर हेनरीफोर्ड ने लिखा है—”हमारा काम हमें जीने के साधन ही प्रदान नहीं करता वरन् स्वयं जीवन प्रदान करता है।”

पण्डित नेहरू ने अपनी आत्म-कथा में एक स्थान पर लिखा है—”काम के भार से ही मैं अपने शरीर और मस्तिष्क की स्फूर्ति तथा क्षमता कायम रख पाता हूँ।”

हमारा काम ही हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। जीवन में महान सम्भावनाओं के द्वार खोलता है। श्रम ही उन्नत जीवन और उज्ज्वल भविष्य का ठोस आधार है। बार्टन ने कहा है—”श्रम एक शक्तिशाली चुम्बक है जो श्रेष्ठताओं को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

श्रम ही आनन्द और प्रसन्नता का जनक है। डॉ0 विश्वैश्वरैया ने कहा है—”श्रम से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है और उससे सन्तोष एवं प्रसन्नता।” श्रम का अर्थ है आनन्द और अकर्मण्यता का अर्थ है—दुःख परेशानी। श्रमशील व्यक्ति ही अधिक सन्तुष्ट और आनन्दित रह सकता है। इसके विपरीत अकर्मण्यता मनुष्य को बुराइयों तथा नीरसता की ओर ले जाती है। प्रयोग के लिए किसी भी व्यक्ति को सुखी परिस्थितियों में अकर्मण्य रखा जाय तो वह जल्दी ही तरह-तरह की परेशानियाँ, असन्तोष अनुभव करने लगेगा। वह सुख भी उसे दुःखदायी बन जायगा। वह जल्दी ही ऊब जायगा। जो परिश्रम नहीं करते बेकार बैठे रहते हैं उनसे समय न कटने की शिकायत प्रायः सुनी जा सकती है। समय उनके लिए एक तरह का बोझ लगता है। लेकिन जो प्रतिक्षण व्यस्त रहते हैं उन्हें समय भार नहीं लगता। वे प्रतिक्षण नव-जीवन और नव-स्फूर्ति प्राप्त करते हैं।

प्रकृति का प्रत्येक तत्व, उसे सौंपे गये काम में लगा रहता है। उसका प्रत्येक पदार्थ गतिशील है। इस गतिशीलता में ही उनका जीवन है। जो रुक जाता है प्रकृति उसे नष्ट कर देती है। जो अपने दिए हुए काम को नहीं करता प्रकृति उसे जीवित भी नहीं रहने देती। यही कारण है कि अकर्मण्य व्यक्ति जिन्दगी के दिन बोझ की तरह काटता है। वह कई शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है। चिन्ता, भय, घबराहट, द्वेष, कुढ़न, अनिद्रा, रक्तचाप, हृदयरोग, स्थूलता, कोष्ठबद्धता और अनेकों तरह के रोग आ घेरते हैं उसे। इतना ही नहीं काम के अभाव से मनुष्य की शक्तियाँ कुँठित हो जाती हैं। जीवन का विकास क्रम अवरुद्ध हो जाता है। अकर्मण्य जीवन बिताने से मनुष्य का मन भी असन्तुलित हो जाता है। वह किसी भी पहलू पर ठीक से सोच नहीं, सकता, न निर्णय कर सकता है। उसका स्वभाव झगड़ालू, चिड़चिड़ा, क्रोधी, लड़ाकू बन जाता है। असन्तोष और अधीरता बनी रहती है।

इसलिए ठीक तरह जीवित रहना है तो श्रम करना पड़ेगा। क्योंकि अकर्मण्यता मृत्यु का ही दूसरा नाम है। जीवित रहने के लिए, विकास की ओर अग्रसर होने के लिए, हमें कुछ न कुछ काम करते रहना होगा अन्यथा हम ऐसी वस्तु बन जायेंगे—जिसका प्रकृति के लिए कोई उपयोग नहीं रहता और वह हमें नष्ट होने के लिए मजबूर कर देगी। काम न करना प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है और जीवन का अपमान भी। जिसकी कीमत हमें नष्ट होकर ही चुकानी पड़ती है।


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