गत महायुद्ध से संत्रस्त असंख्यों शरणार्थी बेल्जियम के विभिन्न भागों में फैले पड़े थे। इनकी निर्वाह व्यवस्था बड़ी दयनीय थी। युद्ध के राक्षस ने जिन परिवारों के कमाऊ लोगों को छीन लिया था, जिनके घर, खेत उजड़ गये थे, जिन्हें अपना वतन छोड़ कर अन्यत्र चले जाने को विवश होना पड़ा था उन्हें नये स्थान में जाकर साधारण जीवन क्रम जमाने में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था।
मानव की यह दयनीय दुर्दशा फादर जार्जेज पियरे से न देखी गई। वे सच्चे पादरी हैं। प्रभु ईशु की भक्ति का सर्वोत्तम मार्ग उन्हें यही लगा कि जिस प्रकार लोक-मंडल के लिए ईसा ने क्रूस को चूमते हुए अपना बलिदान दे दिया। उसी प्रकार उनके अनुयायियों को भी दुःखियों की सहायता के लिए भी कुछ करते ही रहना चाहिए। अपनी आँखों के सामने उपस्थित विस्थापितों की समस्या को वे आँखें बन्द करके उपेक्षा भाव से देखते न रह सके वरन् उनने उसे सुलझाने के लिए जो संभव हो सो करने के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दिया।
आरम्भ में उन्होंने असहाय और अशक्तों के लिए एक शरणार्थी शिविर खोल कर उनकी सहायता आरम्भ की। ऐसे ही अपंग लोगों को जब पता चला तो वे दूर-दूर से चल कर पियरे के कैम्प में आ पहुँचे। भरती करने से इनकार करना उनसे न बन पड़ा। फल-स्वरूप तीन नगरों में बड़े-बड़े शिविर उन्हें खोलने पड़े और उनका भारी व्यय भिक्षा द्वारा बड़ी कठिनाई से जुटाना संभव हो सका।
फादर निराश नहीं हुए वरन् उन्होंने दूने उत्साह से मानवता की सेवा का काम करना आरम्भ कर दिया। विस्थापितों के लिए अन्न, वस्त्र ही नहीं, प्रेम, शिक्षा, चिकित्सा, निवास और रोजी का प्रबन्ध करने के लिए उन्होंने अधिक प्रयत्न आरम्भ किया और दूसरे उदारमना लोगों की सहायता से लाखों मनुष्यों की समस्याओं को खूबी के साथ सुलझाया। इस प्रकार के अनेकों शिविर उन्हें विभिन्न उद्देश्यों के लिए खोलने पड़े थे। अब वे शिविर ग्राम और नगरों के रूप में परिणत हो गये हैं और उनमें रहने वाले स्वावलंबी जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
असहायों की सहायता करना, संत्रस्तों को गले लगा कर सच्ची मानवता का परिचय देना इस सच्चे पादरी का दैनिक धर्म कृत्य बन गया। युद्ध के दुष्परिणामों से जन-साधारण को सचेत करने के लिए इस महामानव ने अपने देश के ग्राम-ग्राम में जाकर शान्ति और प्रेम का संदेश सुनाया। इस संदर्भ में उन्होंने प्रायः साढ़े तीन लाख मील की यात्रा की है और वह अभी भी जारी है। ये चाहते हैं लोग द्वेष एवं युद्ध की भाषा में सोचना छोड़ें और प्रेम सहानुभूति का अवलंबन करते हुए शान्ति के साथ जियें और जीने दें।
सन् 1958 में उनके सत् प्रयत्न के लिए “नोबेल शान्ति पुरस्कार” मिला। इस समाचार को सुनकर जार्जेज पियरे के छोटे से गाँव ‘हुइ’ में हजारों नागरिक बधाई देने पहुँचे तो उसने आँखों में आँसू भर कर कहा—एक ईमानदार मनुष्य को पीड़ित मानवता की सेवा के लिए बहुत कुछ करना चाहिए—एक सच्चे पादरी के लिए लोक सेवा ही ईश्वर भक्ति हो सकती है। मैंने तो अभी इस दिशा में थोड़े से कदम ही उठा पाये हैं। मैं कब इतने बड़े सम्मान का अधिकारी था, जिन लोगों ने ऐसा निर्णय किया यह तो उनकी उदारता मात्र है। आप मेरा नहीं, उन्हीं का अभिनन्दन करें।