हम परमार्थ की भी साधना करें

July 1964

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महर्षि व्यास ने जीवन की सफलता का रहस्य बताते हुए कहा है—”जीवितं सफलं तस्य यः परार्योंद्यतः सदा।” उसी का जीवन सफल है जो परोपकार में प्रवृत्त रहता है। परमार्थ, अपने आपमें जीवन की बहुत बड़ी साधना है जो मनुष्य को क्रमशः उसके लक्ष्य तक पहुँचा देती है। पाश्चात्य विद्वान विक्टर-हयूगो ने लिखा है—”हम परोपकार के लिए जितना अपने आपको लुटाते हैं उतना ही हमारा हृदय भरता जाता है।” परमार्थ साधना से मनुष्य की चेतना असाधारण रूप से विकसित हो जाती है और वह महान् बन जाता है, जिससे जीवन में अपार और अनन्त आनन्द का लाभ प्राप्त होता है। जो परमार्थ में लीन हैं उनके लिए संसार में कुछ भी तो दुर्लभ नहीं है।

पर हित बस जिनके मन माहीं।

तिन कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

इतना ही नहीं सन्त तुलसीदास ने तो यहाँ तक कह दिया है—”पर हित सारिस धर्म नहिं भाई।” परमार्थ के समान संसार में कोई धर्म नहीं है। “परोपकारः पुण्याय” परोपकार ही पुण्य का जनक है।

जो परमार्थ में लीन हैं, मनसा, वाचा, कर्मणा जिनका जीवन परोपकार में लगा हुआ है वे ही सज्जन, सन्त महात्मा हैं।

पर उपकार वचन मन काया।

सन्त सहज सुभाव खगराया॥

सज्जनों की पहचान भी यही है उनका जीवन परमार्थमय होता है।

परमार्थ मानव जाति की सुरक्षा, विकास और शान्ति का साधन है। वही समाज सुख शान्ति और विकास के पथ पर आगे बढ़ सकता है जिसके सदस्यों में परस्पर सेवा, सहयोग का व्यवहार हो। ऐसी स्थिति में व्यक्ति में संकीर्ण स्वार्थपरता “मैं” का अस्तित्व नहीं रहता वरन् एक संयुक्त भावना “हम” का उदय होता है। इसमें किसी भी सदस्य के सुख-दुःख में दूसरे लोग भागीदार होते हैं और हाथ बंटाते हैं। कोई मर जाता है तो दूसरे लोग उसे उठाते हैं। मदद करते हैं। परमार्थवादी समाज में कोई व्यक्ति अपनी पृथक् इकाई नहीं रख सकता वरन् वह समाज के एक शक्तिशाली अंग के रूप में काम करता है। इससे जहाँ समाज के जीवन को गति मिलती है वहाँ व्यक्ति को भी सुरक्षा, सह-जीवन की गारन्टी मिलती है। वह अपने जीवन को उपयोगी और अर्थपूर्ण समझने लगता है और अपने कर्तव्य, भार, उत्तरदायित्वों का भी बड़ी प्रसन्नता से निर्वाह करता है वह। इस तरह परमार्थवाद व्यक्ति और समाज दोनों के विकास प्रगति, सुख और शान्ति, सुरक्षा और सहयोग को जन्म देता है।

वह समाज जीवित नहीं रह सकता जिसके सदस्यों के बीच परस्पर सेवा, सहयोग के आधार परमार्थ की भावना न हो। इसके प्रभाव में समाज के रोगी, अपंग, असहाय, वृद्ध व्यक्तियों का निर्वाह न हो सकेगा, उन्हें असमय मरने के लिए ही मजबूर होना पड़ेगा। स्वार्थवादी व्यक्ति क्यों कर इन अरुचिकर और अलाभकारी कामों में अपने आपको लगावेगा? बच्चों की देखभाल, उनकी सेवा, शिक्षा, योग्य बनाने का प्रयत्न अधिकाँशतया व्यक्ति के अपने जीवन में कई बार लाभकर नहीं होता तो फिर स्वार्थ प्रेरित व्यक्ति क्यों इसमें अपने आपको खपायेगा? पाश्चात्य देशों में ऐसा हो भी रहा है,जहाँ सन्तानहीन विवाहों का अनुपात कुछ कम नहीं है और इसी से वहाँ की जनसंख्या स्थिर-सी हो गई है। जिसमें स्वार्थपरायण व्यक्ति अधिक हों, वह समाज जीवित नहीं रह सकता। और न वह उन्नति और विकास की ओर अग्रसर हो सकेगा। क्योंकि केवल अपने स्वार्थ को महत्व देने वाले व्यक्ति अपने-अपने लाभ की छीना-झपटी में परस्पर संघर्ष-रत रहेंगे। एक दूसरे के प्रति षड़यन्त्र, सन्देह अविश्वास का बोलबाला होगा वहाँ। द्वेष, वैमनस्य उनका धर्म बन जायगा और “अन्ततोगत्वा” ऐसा समाज छिन्न-भिन्न होकर नष्ट भ्रष्ट हो जायगा।

इसीलिए सभी समाज व्यवस्थाओं धर्म परम्पराओं में परमार्थवाद को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। इसी पर समाज का अस्तित्व एवं उसका विकास निर्भर करता है।

परमार्थ के अंतर्गत मनुष्य दूसरों के कल्याण उनके लाभ, सुख, सुविधा के लिए प्रयत्न ही नहीं करता वरन् आवश्यकता पड़ने पर अपने वैध स्वार्थों का भी स्वेच्छापूर्वक बलिदान करने को उद्यत रहता है। वह कभी किसी का बुरा नहीं करता। किसी को कोई हानि नहीं पहुँचाता। स्मरण रहे परमार्थ की पद्धति केवल रचनात्मक है। इसमें बुरे के प्रति भी भलाई का ही रास्ता है। प्रतिक्रिया की उसमें कोई गुंजाइश नहीं है। यह साधना ज्यों-ज्यों उत्कृष्ट होती जाती है तदनुसार ही परमार्थ का स्वरूप भी निखरता जाता है।

किसी जोर जबर्दस्ती से नहीं वरन् स्वेच्छा से प्रेरित होता है परमार्थ। किसी लाभ या उपयोगिता का हेतु रख कर किया गया परोपकार झूठा है। ऐसे परमार्थ का कोई मूल्य नहीं होता। इतना ही नहीं उसमें किसी तरह के आनंद अथवा उपयोगिता की भावना भी नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि किसी लाभ अथवा उपयोगिता के हेतु पर टिकने वाले सामाजिक संबंध जल्दी ही तब छिन्न-भिन्न होकर अनुपयोगी सिद्ध हो जाते हैं, जब उक्त हेतुओं का स्रोत टूट जाता है।

ऐसी बात नहीं कि परमार्थ का विषय बिल्कुल रूखा, व्यक्ति के लिए हानिकारक या उपेक्षा करने वाला हो। इसमें आत्म-प्रसाद भी मिलता है और सुख भी। परमार्थ-जीवी को जन-सहयोग समाज का प्रतिनिधित्व, महानता आदि मिलते हैं उनका मूल्याँकन किसी भी भौतिक सम्पन्नता से नहीं हो सकता। किन्तु इन्हें गौण उत्पादन मानना चाहिए। इन्हें परमार्थ का लक्ष्य नहीं बनाना चाहिए। शुद्ध परमार्थ में न कोई लाभ का हेतु होता है न कोई इच्छा आकांक्षा। उसमें तो कर्ता को कुछ कष्ट या असुविधाओं का सामना करना पड़े- तो इनका भी सहर्ष स्वागत करना चाहिए।

परमार्थ के बदले यदि हमको कुछ मूल्य मिले चाहे वह-पैसे के रूप में, प्रभाव, प्रभुत्व या पद, प्रतिष्ठा के रूप में तो वह सच्चा परमार्थ नहीं है। इसे कर्तव्य पालन कह सकते हैं। सामाजिक कार्य-कर्त्ता, सरकारी नौकर, अधिकारी वर्ग इसी श्रेणी में आते हैं। इन्हें अपनी सेवा के बदले वेतन मिलता है। सच्चे अर्थों में परमार्थ वही है जिसका प्रतिमूल्य नहीं लिया जाता।

उपदेश या प्रचार भी परमार्थ की श्रेणी में नहीं आते। व्यवहार से परे इसका अस्तित्व नहीं है। उपदेश में, बातचीत में वाणी द्वारा परमार्थ की विशद व्याख्या की जाय लेकिन यदि वह व्यवहार में नहीं आता तो एक तरह का पाखण्ड, प्रपंच और सफेद झूठ है। परमार्थ की अभिव्यक्ति वाणी से नहीं व्यवहार से ही सिद्ध होती है।

परोपकारार्थ किये जाने वाले कर्म विवेक और मौलिक निर्णायक बुद्धि से प्रेरित होने चाहिएं। तभी वे सत्परिणाम पैदा करते हैं अपर पक्ष के लिए। मोह, द्वेष, अंध-विश्वास या किसी आसक्ति की प्रेरणा से किये गए कार्य दूसरों को हानि ही पहुँचाते हैं। मोहासक्त माँ-बाप अपने बच्चे की अनुचित माँगे पूरी करके उनमें बुरी आदतें डाल देते हैं जो उनके लिए अहितकर होती हैं।

परमार्थ एकांगी या देशीय नहीं होता, वह सार्वभौमिक होता है। किसी व्यक्ति, संस्था या समूह विशेष से ही उसका संबंध न हो। ऐसी स्थिति में मनुष्य का संबन्धित तत्वों से तो परोपकार का व्यवहार होगा किन्तु इतर पदार्थों से नहीं। केवल अपने बच्चों के लिए भला चाहने वाले दूसरों के बच्चों के प्रति रूखा-बुरा व्यवहार कर सकते हैं। कई लोग अपनी जाति, दल या समुदाय में परस्पर सेवाभावी और सहयोगी बन सकते हैं किन्तु अन्य जातियों, समाज दलों के प्रति उनका ऐसा व्यवहार नहीं होता। बड़े रूप में मनुष्य अपने देश के लिए सब कुछ लुटा सकता है किन्तु दूसरे देश पर आक्रमण कर उस पर कब्जा करने में उसे संकोच नहीं होगा। किसी संस्था का सदस्य बनकर उसके लिए मनुष्य अपने वैध हितों का भी उत्सर्ग कर सकता है किन्तु आवश्यकता पड़ने पर अन्य संस्थाओं को अपना सहयोग, सहायता देने में कंजूसी भी वह कर सकता है। लेकिन परमार्थ की ये पद्धतियाँ अधूरी हैं। संकुचित हैं। परमार्थजीवी का उद्देश्य सबकी सेवा, सबका भला, सबका कल्याण करना होना चाहिए। सर्वजन हिताय, जहाँ भी दूसरों के निस्तार के लिए आवश्यकता हो वहीं परमार्थ के पथिक को चाहिए कि बिना किसी आनाकानी के अपना कर्तव्य पूर्ण करे।

परमार्थवाद जन-जीवन की सुरक्षा समृद्धि, विकास का मार्ग है। इससे समाज के सभी अंगों को गति मिलती है। प्रत्येक इकाई अपने आपको, अकेली, निस्सहाय नहीं समझती। इस पद्धति में व्यक्ति और समुदाय दोनों ही का भला होता है। इसीलिए सन्त, महात्मा, महापुरुषों ने परमार्थ मानव जीवन का आवश्यक धर्म बताया है।

अज्ञानी और कम समझ लोग स्वार्थ में अपना लाभ मानते हैं। वे अपना घर भरते हैं। अपने स्वार्थ के लिए जो भी चाहें करने में नहीं चूकते। लेकिन वे नहीं समझते कि इससे सारा समाज क्षीण होकर नष्ट हो जायगा और समाज व्यवस्था के नष्ट होने पर ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों को भी नष्ट होना पड़ता है। क्योंकि समुदाय में महान् शक्ति है वही व्यक्ति को संरक्षण प्रदान करती है।


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