धन का उपार्जन और सदुपयोग

July 1964

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मानव समाज में होने वाले संघर्षों का एक कारण आर्थिक प्रश्न भी रहा है। धन, दौलत, सम्पत्ति, जायदाद को लेकर सदा से परस्पर संघर्ष, लड़ाई-झगड़े, लूट-खसोट होते रहे हैं। व्यापक पैमाने पर होने वाले आक्रमण, युद्ध आदि का कारण भी बहुत कुछ अर्थ ही रहा है। आज भी संसार में व्याप्त संघर्ष का आधार अर्थ व्यवस्था ही है। मालिक और नौकर में, गरीब और अमीर में, हो रहे संघर्ष की खाई आज कुछ कम नहीं है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि अर्थ व्यवस्था की शुद्धि मानव जीवन की सुरक्षा, प्रगति के लिये अत्यावश्यक है। इसीलिए मनीषियों ने इस समस्या पर गम्भीरता से विचार किया और अपरिग्रह का स्वर्ण-सूत्र मनुष्य के लिए दिया। उसे धर्म व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग निर्धारित करके परिग्रह को पाप बताया।

आज के अर्थ-प्रधान युग में इन धर्म व्यवस्थाओं को कैसे अपनाया जाय? सामान्य मनुष्य भी इन्हें आचरण में कैसे लायें? ये विचारणीय प्रश्न हैं। क्योंकि आज की अर्थ-व्यवस्था इतनी दूषित हो गई है कि भविष्य के लिए अर्थ संग्रह का विचार न रक्खा जाये तो सामान्य व्यक्ति का जीवन निर्वाह कठिन हो जाय। आज की सामाजिक परिस्थितियाँ इतनी जटिल हो गई हैं कि दुर्घटना, बुढ़ापा, बीमारी, असहाय हालत में मनुष्य के पास कोई आर्थिक व्यवस्था न हो तो बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़े। जो लोग दूर-दर्शिता के साथ इन परिस्थितियों का ध्यान में रखकर आर्थिक व्यवस्था को मजबूत रखते हैं वे सरलता से कठिनाइयों में से निकल जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर दूसरों की मदद भी कर सकते हैं। इसीलिए नीतिकारों ने आर्थिक व्यवस्था का मध्यम मार्ग सुझाते हुए बताया है कि “बुद्धिमान मनुष्य को ऐसा आचरण करना चाहिए कि चैन से सो सके। जवानी में ऐसा रहना चाहिए कि बुढ़ापा सुख से बिता सके। साराँश यह है कि भविष्य में आने वाली अनजान घटनाओं, कठिनाई, परेशानियों में सरलता से जीवन निर्वाह के लिये कुछ संग्रह करना मनुष्य के लिए उचित है। अन्य प्राणियों में भी ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है। चींटी, दीमक, मधुमक्खी आदि का उदाहरण स्पष्ट है। एक नीतिकार ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि “बुद्धिमान मनुष्यों को जीवन अनन्त मानते हुए विद्या और अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।”

इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज के अर्थ प्रधान युग में सामान्य मनुष्य को अपना जीवन सुचारु रूप से निर्वाह करने के लिए अर्थ संग्रह करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। आज जीने का अधिकार भी उन्हें ही है जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं क्योंकि परिवार का भरण-पोषण, बच्चों की शिक्षा दीक्षा, सभी तो अर्थ साध्य हैं। घर में किसी के बीमार पड़ जाने पर आज की महंगी चिकित्सा-पद्धति और जीवन निर्वाह का खर्च गरीब मनुष्य वहन नहीं कर सकता और इसीलिए उसे अकाल मृत्यु का ही वरन् करना पड़ता है।

अर्थ संग्रह करना आवश्यक है किन्तु स्मरण रहे इसमें स्वामित्व की भावना न हो। जो कुछ भी हम उपार्जन करें, संग्रह करें उस पर मालिकाना हक न समझकर समाज के एक साझीदार संरक्षक का अधिकार ही समझना चाहिए। उपार्जित एवं संग्रह की गई सम्पत्ति पर हमारे सहित सम्पूर्ण समाज का अधिकार समझना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता पड़ने पर संग्रहीत बन समाज के हित में खर्च करने में कंजूसी न बरती जाय। वेद में आदेश है कि “सौ हाथों कमा और हजारों हाथों दान कर दे।” मनुष्य अर्थोपार्जन करे, धन संग्रह करे किन्तु समाज के हित में, गिरे हुओं को उठाने में, असहायों की सहायता करने में जरूरतमंदों के हक में उसे उन्मुक्त हृदय से खर्च कर दे।

खेद है कि आज लोगों में इस भावना का ह्रास हो गया है। लोग उपार्जित संग्रहीत धन पर अपना ही स्वामित्व समझते हैं। इसका अर्थ है उस सम्पत्ति का उपयोग वे स्वयं अथवा उनके निजी व्यक्ति ही कर सकते हैं। इस तरह का स्वामित्व चाहे किसी व्यक्ति का हो या किसी परिवार, वर्ग, विशेष या किसी संस्था का ही क्यों न हो हेय एवं हानिकारक है। इस तरह के स्वामित्व का जो परिणाम होता है उसके बारे में महात्मा गाँधी ने लिखा है—”धनवानों के यहाँ आवश्यक वस्तुयें भरी पड़ी रहती हैं, पड़ी-पड़ी सड़ा करती हैं किन्तु उन्हीं के अभाव में दूसरे करोड़ों लोग बेहाल रहते हैं, भूखे मरते हैं, जाड़े में ठिठुरते हैं खुली धरती पर सोते हैं। करोड़पति, अरबपति बनना चाहते हैं तो भी वे सन्तुष्ट नहीं होते दूसरी ओर लोगों को भरपेट भोजन भी नहीं मिलता।”

इसी तरह के स्वामित्व से ही मानव जाति आज संघर्षों के दौर से गुजर रही है। सम्पत्ति पर इस मालिकाना हक से ही परस्पर की लूट खसोट, लड़ाई-झगड़े, संघर्ष, क्रान्तियों का प्रादुर्भाव होता है आज के युग के पूँजीपति और सर्वहारा मजदूर वर्ग का महत्वपूर्ण संघर्ष इसी दूषित स्वामित्व की भावना पर आधारित है।

हम जो कुछ उपार्जन करें, संग्रह करें उस पर समाज का हक मानकर चलें, आवश्यकता पड़ने पर उसे समाज के हित में लगा दें तो फैली हुई असमानता आर्थिक असंतुलन जल्दी ही दूर हो जाय और किसी को अभाव में भूखे नंगे रहकर न मरना पड़े।

जो कुछ उपार्जन किया जाय, उसके बदले पर्याप्त श्रम अवश्य किया जाना चाहिये प्रत्येक मनुष्य को प्राप्य वस्तु सामग्री सम्पत्ति आदि का मूल्य श्रम के रूप में चुकाना आवश्यक है। जो बिना श्रम किए ही वस्तुओं का उपभोग करता है, अपने भण्डार, तिजोरी भरता है, वह शोषक है। क्योंकि बिना श्रम का मूल्य चुकाये वस्तु पदार्थ उत्पन्न नहीं होते। किसी न किसी को तो श्रम करना ही पड़ता है। श्रम कोई दूसरा करे और उससे उत्पादित सामग्री का उपभोग अन्य व्यक्ति करे तो यह एक बहुत बड़ा नैतिक और सामाजिक अपराध है। प्राप्त वस्तुओं के बदले हम श्रम का मूल्य चुकाने लगेंगे तो समाज में कोई वस्तु का अभाव नहीं रहेगा, सबको बराबर मिलेगा क्योंकि श्रम किसी का हक छीनने का नियम नहीं वरन् अपना हक अपने पुरुषार्थ से पाने का नियम है। अतः श्रम हमारी जीवन पद्धति का अंग बन जाना चाहिए, हम उसे ही संग्रह करें उसका ही उपभोग करें जिसका मूल्य श्रम के रूप में हमने चुका दिया है।

परिग्रह, वस्तु संग्रह, उपभोग का संबंध अनियमित भोग और फिजूलखर्ची से नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में जीवन निर्वाह का सीधा, सच्चा सादगीपूर्ण मार्ग जो बुद्धि सम्मत हो उसी पर हमें चलना चाहिए। अपरिमित भोगों की तृप्ति और वासना तथा विलासिता को अपनाकर पदार्थों का मनमाना उपभोग करना अनैतिक है। चाहे हमारे पास कितनी ही सामग्री क्यों न हो, लेकिन उसे समाज की धरोहर मानकर जीवन निर्वाह के लिए अत्यावश्यक कार्यक्रमों में ही उसका उपभोग किया जाना चाहिए। फिजूलखर्ची के रूप में समाज की सम्पदा, जिसके हम संरक्षक मात्र हैं उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का, उड़ा देने का हमें अधिकार नहीं है। यह किसी से नहीं छुपा है कि व्यसन, विलासिता और शेखीखोरी पर खर्चे होने वाले बड़े धन से बचाकर उससे अनेकों असहाय, गरीब, लोग भूखी नंगी मानवता को रोटी कपड़ा और रहने को मकान दिये जा सकते हैं।

अमर्यादित संग्रह, दूसरे का हक छीनकर अपना घर भरने की प्रवृत्ति, किसी भी तरह अपनी सम्पत्ति बढ़ाने की आदत मनुष्य की बहुत बड़ी कमजोरी है। इस तरह के लोगों को अपने स्वयं के तथा अपने बेटे पोतों के भविष्य की भारी चिन्ता होती है। वे पूर्णतया भविष्य के प्रति अविश्वस्त रहते हैं और जितना अपना घर भरा जा सके उसे भरने के लिए प्रयत्नरत रहते हैं। इस अनैतिक मनोवृत्ति का आधार “ईश्वर पर अविश्वास” ही होता है। जिन्हें संसार के व्यवस्थापक परमात्मा पर विश्वास नहीं जिन्हें अपने पुरुषार्थ और शक्ति का बोध नहीं ऐसा ही व्यक्ति अपने तथा अपने बच्चों के भविष्य के प्रति शंकालु रहता है। और अमर्यादित परिग्रह करता है। आवश्यकता इस बात की है कि स्वार्थ, तृष्णा से प्रेरित होकर किए जाने वाले संग्रह से बचा जाय इसे ही शास्त्रकारों ने पाप की संज्ञा दी है।

आज के युग में जिसमें जीवन प्रणाली बड़ी क्लिष्ट हो गई है, समाज व्यवस्थायें बहुत कुछ बदलती जा रही हैं, न्याय और सचाई के साथ, नैतिक मर्यादाओं में रहते हुए सम्पत्ति सामग्री, एकत्रित करना, परिग्रह करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है जन सामान्य के लिए। किन्तु उस पर निजी मालिकाना हक की भावना न रक्खी जाय। प्राप्त सामग्री को समाज की सम्पत्ति मानकर आवश्यकता पड़ने पर उसे समाज के हक में लुटा देने में संकोच न रक्खा जाय। सामग्री के परिग्रह का आधार किसी का शोषण, उत्पीड़न या हक छीन लेना न होवे वरन्

उपभोग किए जाने वाले एवं संग्रहीत सामग्री के बदले पूरा-पूरा मूल्य चुकाया जाय श्रम के रूप में। संग्रहीत सम्पदा को अमर्यादित भोग, विलास, फिजूल खर्ची में नष्ट न किया जाय वरन् सरल, सीधे, सादे जीवन निर्वाह का आधार बनाया जाय। स्वार्थ तथा तृष्णा से प्रेरित होकर किए जाने वाले परिग्रह से बचा जाय।

अपरिग्रह की उत्कृष्ट स्थिति जिसमें प्रति दिन की आवश्यकताओं को उसी दिन पूर्ण करके दूसरे दिन के लिए कुछ भी संग्रह न रखना सन्त महात्माओं का महान् गुण है। यदि समाज में इस मनोवृत्ति की वृद्धि हो अपनी दैनिक आवश्यकताओं से अधिक का संग्रह न किया जाय तो किसी तरह की विषमता न रहे। लेकिन यह एक व्यक्ति की नहीं सम्पूर्ण समाज की मनोवृत्ति हो। उत्पादन संग्रह और वितरण की व्यवस्था व्यक्तिगत न होकर समाजगत हो। इन तरीकों से मानव जाति में फैली अनेक विषमतायें शीघ्र ही दूर हो जायें। बापू ने कहा था—”कंगाल को भी पेट भरने का हक है समाज में। समाज का कर्तव्य है कि उसे उतना हासिल करा दे। इसके लिये पहला कदम उन धनवानों को उठाना चाहिए जो “अत्यन्त” परिग्रह रखते हैं। यदि संसार के समस्त धनपति ऐसा त्याग कर सकें तो गरीबों का भी सहज ही पेट पालन होने लगे।”

पूर्ण परिग्रह मनुष्य की सर्वोत्कृष्ट सद्भावना का प्रतीक है। इसे लक्ष्य मानकर चलना चाहिए। व्यवहार में यदि अभी आना सम्भव न हो तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि अनीतिपूर्वक अनावश्यक संग्रह न किया जाय। जो कमाया जाय उसे, केवल उचित आवश्यकताओं में ही कम किया जाय और साथ ही समाज को सुविकसित बनाने के लिए पिछड़ों को ऊंचा उठाने के लिये अपनी आय का एक बड़ा अंश नियमित रूप से दान करते रहा जाय।


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