मित्रता क्यों और कैसे?

July 1964

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मित्रता मानव हृदय की एक स्वाभाविक वृत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति ऐसे साथी की खोज में रहता है जिसके समक्ष वह अपने हृदय को खोल कर रख सके। अपने अंतर में छिपे हुए भावों को निःशंक हो कर व्यक्त कर सके। जो कष्ट मुसीबत के समय हार्दिक सहयोग दे सके। मित्रता का संबंध मनुष्य के लिए वह वातावरण पैदा करता है जहाँ वह अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन की अभिव्यक्ति सरलता से कर सके, जहाँ मनुष्य अपने आपको अकेला महसूस नहीं करता। मित्रों के सहयोग से मनुष्य की जीवन यात्रा सहज सरल और निरापद हो जाती है। प्रसिद्ध दार्शनिक सिसरो ने लिखा है—”इस संसार में मित्रता से अधिक कुछ भी मूल्यवान नहीं है मनुष्य के लिए।” महात्मा गाँधी के शब्दों में “सच्चे मित्र मिल जाना मनुष्य के लिए दैवी वरदान है।”

मित्रता जितनी बहुमूल्य है उतना ही इसे पैदा करना, स्थिर रखना और जीवित रखना, सदा-सदा कायम-रखना भी कठिन है। मित्रता भी एक व्यवहारिक साधना है। मित्रता हृदय के निर्बाध आदान-प्रदान पर टिकती है। मैत्रीपूर्ण संबंध एक परिवार के सदस्यों में भी नहीं हो सकते हैं और हो अनजान व्यक्तियों में दो सकते हैं।

मित्रता दो व्यक्तियों के बीच स्नेह, सौजन्य के आदान प्रदान और आन्तरिक ऐक्य पर निर्भर करती है। मित्रता का और कोई मूल्य नहीं हो सकता वह परस्पर स्नेह, प्रेम, सद्भाव पर निर्भर करती है। कोई स्वार्थ साधन या व्यापार नहीं है मैत्री। स्वार्थ पूर्ति के लिए, अपना उल्लू सीधा करने या कोई लाभ के लिए मैत्री जोड़ने वाले ढेरों मिल जाते हैं लेकिन सच्चे मित्र इस दुनिया में बिरले भाग्यशालियों को ही मिल पाते हैं।

मित्र जीवन में साथी ही नहीं मार्गदर्शक सहायक भी होता है इसलिए मैत्री स्थापित करने के लिए मनस्वी, सदाचारी, सद्गुणी व्यक्ति ढूँढ़ना चाहिए। बुरे मित्र मनुष्य को पतित भी कर सकते हैं। इसीलिए कन्फ्यूशियस ने कहा है—”ऐसे मनुष्य से मित्रता न करो जो तुमसे श्रेष्ठ न हो।” भले और सज्जन व्यक्तियों से की गई मित्रता ही स्थिर और हितकारी सिद्ध होती है। सिसरो ने कहा है—”केवल सज्जनों में ही मित्रता कायम रह सकती है। दुष्ट और असाधु प्रकृति के व्यक्तियों की मित्रता कभी भी हितकर नहीं होगी। पञ्चतन्त्र में कहा गया है—

“आरम्भगर्थी क्षयिणी क्रमेण लब्धी पुरा वृद्धिमती च पञ्चान्। दि स्य पूर्वार्ध परार्ध भिन्ना छायेव मैत्री अल प्रज्जनात्॥”

“दुष्ट की मित्रता सूर्य उदय के पीछे की छाया के सदृश्य पहले तो लंबी चौड़ी होती है फिर क्रम से घटती जाती है और सज्जनों की मित्रता तीसरे पहर की छाया के सदृश्य पहले छोटी और फिर क्रमशः बढ़ती जाती है।

स्थायी और फलदायी मित्रता सज्जनों और भले आदमियों के बीच ही स्थिर रहती है। दुष्टों की मित्रता क्षणिक अस्थायी और बनावटी होती है।

मित्रता को स्थिर और दृढ़ रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है सहिष्णुता और उदारता की। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ कमी रहती ही है। पूर्ण निर्दोष और गुण संपन्न व्यक्ति कोई नहीं होता। आपने जिनसे मित्रता की है वे अपवाद स्वरूप कैसे हो सकते हैं। मित्रता को स्थिर रखने के लिए एक दूसरे के व्यक्तिगत, स्वाभाविक दोषों को गौण समझना पड़ेगा। अन्यथा दोष दर्शन और उससे प्रेरित छींटाकशी, आरोप-प्रत्यारोप से तो मित्रता की मूर्ति ही टूट-फूट जायगी।

मित्रता के संबंध में दूसरी महत्वपूर्ण बात है—एक दूसरे के मतभेदों को मैत्री संबन्धों के बीच दरार उत्पन्न नहीं करने दी जाय। समस्त विश्व और मानव प्रकृति अनन्त रहस्यों से भरी पड़ी है। प्रत्येक व्यक्ति के अपने विश्वास होते हैं, अपना-अपना दृष्टिकोण। दो व्यक्तियों में चाहे वे कितने ही अभिन्न हों किसी भी विषय पर मतभेद हो सकता है। इस तरह के व्यक्तिगत मतभेदों को मित्रता के प्रसंगों से दूर रखना चाहिए अपनी ही सीमा तक। अन्यथा वर्षों से चली आई मित्रता क्षण भर में नष्ट हो जाती है। ऐसे प्रसंगों को आने ही न दिया जाय जिससे मतभेदों को प्रोत्साहन मिले व्यर्थ की बहस छिड़े।

मित्रता को स्थिर रखने का महत्वपूर्ण आधार है मित्र के सद्गुणों की खोज करना। उन्हें प्रोत्साहन देना। एक दूसरे के सद्गुणों को ढूँढ़ना, उनकी प्रशंसा करना ऐसा गुण है जिससे दूसरों का विश्वास प्राप्त होता है। सबसे अधिक और व्यापक रूप से लोकप्रियता प्राप्त करने वाले वे ही व्यक्ति होते हैं जो दूसरों में अच्छी बातें देखते और उन्हें प्रोत्साहन देने की कला जानते हैं। इससे न केवल मित्रता ही जीवित रहती है वरन् मनुष्य को जीवन में उन्नति पथ पर आगे बढ़ने में भी सहायता मिलती है। मनुष्य दूसरों का समर्थन, प्रशंसा पाकर उत्साहित होता है। उसमें आत्मविश्वास पैदा होता है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ ऐसी विशेषता होती है, ऐसा गुण होता है जिसे बढ़ाकर वह सामान्य से असामान्य बन सकता है। कई बार वह स्वयं अपनी इन शक्तियों के बारे में अनभिज्ञ रहता है। यदि कोई इसे पहचान कर प्रोत्साहित करे तो यह उसके विकास में बड़ी सहायता होगी। मित्र का कर्तव्य है कि वह अपने साथी के गुणों को प्रोत्साहन दे, उनकी सराहना करे।

मैत्री संबंधों में परस्पर का व्यवहार, बर्ताव इतना खुला हुआ होना चाहिए कि किसी को भी एक दूसरे पर सन्देह शंका न हो सके। किन्हीं विशेष व्यक्तिगत बातों, जीवन के रहस्यों को गुप्त रख कर व्यवहार जितना खुला और उदार होगा उतना ही मित्रता को बल मिलेगा। परस्पर संशय उत्पन्न करने वाले, मतभेद करा देने वाले बर्ताव को छोड़ा जाय। कदाचित् किसी भूल या गलतफहमी से कोई संशय शंका पैदा हो भी जाय तो उसे जल्दी ही मिलकर अपना मन्तव्य बताकर दूर कर देना चाहिए। मित्रता के संबंधों में मन चाहे व्यवहार की गुंजाइश नहीं है। ऐसी स्थिति में तो सदाचार, शिष्टाचार का और भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। ऐसा व्यवहार मित्रता के लिए घातक है जो किसी को बुरा लगे। मैत्री संबंधों के लिए अनादर, उद्दण्डता, लापरवाही का व्यवहार, मर्मभेदी वचन वर्जित हैं।

यद्यपि मैत्री संबंध को दृढ़ और स्थायी बनाने के लिए हृदय का निर्बाध आदान-प्रदान, परस्पर आन्तरिक ऐक्य होना आवश्यक है। किसी तरह का दुराव, छिपाव भी न होना चाहिए मैत्री के लिए। किन्तु यह मित्रता की उत्कृष्ट स्थिति के लक्षण हैं। जब मैत्री संबंध स्थायी और परिपक्व हो जाते हैं, एक दूसरे का पूरा-पूरा भरोसा और विश्वास अर्जित कर लिया जाय तभी अपने भेद मित्र के समक्ष खोलने चाहिएं अन्यथा मित्रता के नाम पर धोखेबाजी, चालाकी का शिकार होना पड़ेगा। वस्तुतः दुष्ट, दुराचारी, ठग और विश्वासघाती अक्सर प्रत्यक्ष में मित्र बन कर ही आते हैं, मित्रता के नाम पर होने वाली धोखेबाजी, बेईमानी, धूर्तता के शिकार होकर बहुत से सीधे-सादे व्यक्ति अक्सर हानि ही उठाते हैं। इसलिए मित्र को परखने, समझने के लिए काफी धैर्य से काम लेना चाहिए। अचानक किसी को भावुकता में आकर मित्र मान लेना, उससे अपने सारे भेद खोल देना, खतरे से खाली नहीं होता। अक्सर दुष्ट लोग मित्र बनकर ही अपना दूषित मन्तव्य पूरा करते हैं।

यदि आपने अपने मित्र या उसके किसी संबंधी आदि के बारे में कोई बुरी बात निन्दा आदि भी सुनी है तो उसे तत्काल भोंड़े ढंग से प्रकट मत कीजिए। स्मरण रहे बुरे व्यक्ति भी अपनी बुराइयों के बारे में सुनना पसन्द नहीं करते। यदि उपयुक्त परिस्थिति हो तो एकान्त में अपने मित्र से उसकी चर्चा कर देनी चाहिए कि उसको (स्वयं) इन बातों में कोई महत्व नहीं मालूम पड़ता। मित्र की गुप्त बातों को कभी भी दूसरों के समक्ष प्रकट न कीजिए। यह मित्रता के लिए बहुत ही घातक है।

ऐसे कार्य और व्यवहार से सर्वथा बचना चाहिए जिनसे मित्र की भावनाओं को आघात लगे या उसे मजबूरी का सामना करना पड़े। चाणक्य ने लिखा है—

“इच्छेच्चेद विपुलाँ मैत्री त्रीणि तत्रन कारयेत।

वाग्वादमर्थ संबंध तत्पत्नी परिभाषणम्॥”

“मित्र से बहस करना, उधार लेना-देना, उसकी स्त्री से बात-चीत करना छोड़ देना चाहिए। ये तीनों बातें मित्रता में बिगाड़ पैदा कर देती हैं।” मित्र के काम के समय और व्यस्तता को ध्यान में न रखकर उसका समय बरबाद करना, घर आने पर उसको कोई महत्व न देना, बिना मतलब किसी भरोसे में रखना, व्यवहार में उपेक्षा रखना आदि ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं जो मित्रता के लिए घातक सिद्ध हो सकती हैं।

साँसारिक कार्य, व्यवहार, जीवन क्रम में मित्रता का एक शरीर में दो हाथों का-सा संबंध होता है। मित्र की आड़े समय पर सब तरह की सहायता करना, उसे मुसीबत में सान्त्वना और धीरज देना, मित्र की खुशी और रंज में साथ-साथ रहना मित्र के लिए आवश्यक है। मित्रता दो व्यक्तियों का हार्दिक संगम है। उनका आन्तरिक जीवन अत्यन्त नजदीक होता है तो उससे प्रेरित बाह्य जीवन भी। “किसी भी व्यक्ति की मित्रता पूर्ण नहीं होती जब तक कि वह अपने मित्र की अनुपस्थिति, गरीबी और आपत्ति में सहायता नहीं करता एवं मृत्यु के उपरान्त भी उसके अधिकारों की रक्षा नहीं करता।”

हमें अच्छे मित्र ढूँढ़ने चाहिए। उनसे मैत्री संबन्धों को स्थायी और स्थिर बनाने के लिए पूरा-पूरा प्रयास करना चाहिए। सच्चे और आत्मीय मित्रों का पाना वास्तव में सच्ची सम्पत्ति है।


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