चिंतामुक्त जीवन

September 1949

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(श्री रामखेलावन जी चौधरी बी. ए.)

विज्ञान अपने प्रारम्भ में ही मनुष्य से कहता है- तुम सुख चाहते हो? यदि चाहते हो तो आशावादी बनो। हमेशा आशा करो और विश्वास करो कि तुमको सुख मिलेगा। तुम्हारी आशा और तज्जनित सुख की एक मात्र शत्रु है चिन्ता। इसलिए चिन्ता को पहचानो और समझो, चिन्ता की उत्पत्ति कहाँ से होती है। चिन्ता के उद्गम निम्नलिखित हैं-

(1) प्रेम अथवा विवाहित जीवन की विफलता।

(2) आर्थिक संकट और आर्थिक हानि।

(3) वियोग जनित एकान्त।

(4) अतीत की दुखदायी स्मृतियाँ जो दुख क्रोध अथवा घृणा को उद्दीप्त करती हैं।

यह वह समस्याएं हैं जिन्होंने मनुष्य की नींद हराम कर दी है, उसे सुख और शाँति से वंचित किया है। इन्होंने उसे चिंता की ज्वाला, जो सतत जलती रहती है और उसे जलाती रहती है। यह वह समस्याएं है जिन से बचा नहीं जा सकता, इसीलिए जीव को संग्राम भूमि बनना ही पड़ता है। ये जीवन में आती हैं और अपना काम कर जाती हैं। चिन्ता की जननी इन समस्याओं का सामना करने के लिए सुख-विज्ञान-बताता है कि यह मूल मंत्र याद रखो-

“जो अवश्यम्भावी है, जो अनिवार्य है उसका सामना करो और तज्जनित लाभ हानि का सामना करने के लिए तैयार रहो।”

“इस पृथ्वी पर जितने प्रकार के रोग हैं, उनका सबका या तो इलाज है और या वे असाध्य हैं। यदि अमुक रोग का उपचार कर सकते हो तो कर डालो और यदि नहीं कर सकते, तो चिन्ता क्या? जो होनहार मृत्यु है, उसके लिए तैयार हो जाओ।”

शत्रु से लड़ाई को टालो यदि युद्ध न टल सके तो उस पर आक्रमण करके नष्ट कर दो और यदि अपनी पराजय ही निश्चित है तो उसे स्वीकार करो। चिंता-शत्रु के विरुद्ध अपनी युद्ध रीति का निर्देश सुख-विज्ञान उक्त ढंग से ही करता है। पहले चिंता से बचने उसको टालने का प्रयत्न करो- टाल करके अपने को सबल बनाओ।

(1) ईश्वर पर विश्वास करो- किसी ने सच कहा है कि वे मनुष्य बड़े ही मूर्ख और अभागे हैं जो ईश्वर को अपने जीवन युद्ध में अपना साथी न बनाकर अकेले ही लड़ते हैं। जो अपने आप ही को हर काम का कर्त्ता मानता है और जो यह समझता है कि सारे काम केवल उसकी इच्छा के अनुसार हो सकते हैं वह चिंता से मुक्त हो ही नहीं सकता। प्रयोग के लिए सिर्फ एक बार ऐसा विचार मन में लाकर देखो- मैं कुछ नहीं कर करता, जो कुछ करेगा ईश्वर ही करेगा, मैं तो सिर्फ काम करता हूँ, सफलता देने वाला वह है। इस विचार के आते ही अपूर्व शाँति मिलेगी।

(2) गहरी नींद सोओ और शरीर को आराम दो- जब चिंताएं अत्यधिक बलवती हो जायं तो नींद का सहारा लेना बड़ा उपयोगी होता है। अपने अंग प्रत्यंग ढीले करके खाट पर पड़ जाना चाहिए और एक गहरी नींद में अपने को डुबो देना चाहिए। थोड़ी देर को यह नींद तुम में फिर नई शक्ति भर देगी।

(3) संगीत से प्रेम करना सीखो- मनुष्य के द्वारा प्राप्त सारी कलाओं में संगीत कला ही ऐसी है जो रात भर में ही मदमस्त बना देती है। अगर तुम अपने को भूलना चाहते हो, आनन्द में लीन होना चाहते हो तो संगीत से बढ़ कर दूसरा साधन मिल ही नहीं सकता। अन्य कलाओं में विचार का स्थान होता है पर संगीत में केवल खालिस ‘भाव’ होता है। हम सभी जानते हैं कि तीव्र भावुकता जिस में निराशा मिली होती है, हमारी चिंता का कारण बन सकती है और वही भावनात्मक संवेदना यदि संगीत के द्वारा जाग्रत होती है तो वह बड़ी उल्लासदायिनी और विस्मृति देने वाली होती है। इसलिए अनुभूति प्रधान चिन्तनशील मनुष्यों के लिए संगीत विशेष रूप से उपयोगी है। यों तो यह सबका मनोरंजन करती है। संगीत में ही इतनी ताकत है कि वह सर्पों और वन मृगों तक को खींच सकता है- मनुष्य तो फिर मनुष्य ही है।

(4) जीव के चमकते हुए पहलू को देखो- जीवन निस्सार है, उसका वीभत्स अंत मरघट में देखा जा सकता है, यह जीवन का अंधकारमय पहलू है। इसके विपरीत संसार क्या भोगने की वस्तु नहीं? यह नाशवान् है, इसलिए क्या इसका उपभोग नहीं करना चाहिये? वह धारणा गलत है। आमोद-प्रमोद और आनन्द के साधन जितने मिल सकते हैं, उनका उपयोग अवश्य करना चाहिए।

सुख विज्ञान के यह चार सिद्धान्त ऐसे हैं जिस के आधार पर चिन्तादायिनी समस्याओं से केवल बचा जा सकता है। इनके अतिरिक्त कुछ उपाय ऐसे भी हैं जिनके द्वारा समस्याओं का सामना भी विधिपूर्वक किया जा सकता है। उन उपायों का समुचित उपयोग तभी हो सकता है जब मनुष्य अपने में निष्पक्ष रूप से विचार करने की आदत पैदा कर ले। समस्याओं को सुलझाने का वैज्ञानिक ढंग यह है-

(1) समस्या कौन सी है?- प्रायः बहुतेरे व्यक्ति अपनी समस्याओं को ठीक से नहीं समझ पाते। जब समस्या के साथ दूसरी अन्य समस्याओं को उलझा कर उसे इतना जटिल बना डालते हैं कि उसका हल ही नहीं निकल पाता। सारी कठिनाइयों की जड़ में जो समस्या हो उसे खोज निकालना चाहिए।

(2) समस्या के पैदा होने का कारण क्या है?- किसी न किसी कारण से ही कोई समस्या उठ खड़ी होती है। यदि वे कारण दूर हो जायं- चाहे उन्हें खुद दूर करे या तदनुरूप किसी की सहायता लें- तो वह समस्या दूर की जा सकती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि उस समस्या का पूरा-पूरा विवरण जान लिया जाय। समस्या के बारे में सब बातें एक कागज पर लिख भी लेनी चाहिए। इस वाक्य को हमेशा याद रखना चाहिए- समस्या की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेना ही समस्या को आधा हल कर लेना है।

(3) उस समस्या के कितने हल सम्भव है?- कभी-कभी जब सोचने लगो तो एक समस्या के अनेक हल निकल आते हैं। अभी तक समस्या के कारण चिन्ता थी, अनेक हल निकल आने से फिर यह चिन्ता हो जाती है कि किस हल को अपनाया जाय। ऐसी स्थिति में अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार ही कोई हल चुनना चाहिए। मान लीजिए ‘निर्धनता’ आपकी समस्या है। निर्धनता के कई हल हो सकते हैं- नौकरी, व्यवसाय और मजदूरी इत्यादि अब इन में जिसे अपनाने में आप की रुचि और शक्ति हो, उसे अपनाना श्रेयस्कर है।

(4) किसी एक हल पर डट कर अमल करो- हल को चुनने के निर्णय पर पहुँचने के लिए बहुत समय न लगाना चाहिए। ज्यादा देर करना अपनी कमजोरी का द्योतक है। अतः एक को निश्चित करके उस मार्ग पर पूरी कोशिश करके डट जाना चाहिए।

यह चारों सिद्धान्त व्यावहारिक हैं। इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह मनुष्य के अकर्मण्यता रोग को दूर करती और उसे कर्म-पथ पर अग्रसर करती है। इनके अतिरिक्त कुछ बातें और भी हो सकती हैं, जिन को समझ लेने से मन में बड़ी शाँति और संतोष प्राप्त होता है।

1- अधिक से अधिक हानि का अनुमान कर लो- कोई भी काम तुम्हें करना है, उस पर विचार करके देखो, उसके दो ही परिणाम हो सकते हैं- या तो लाभ या हानि। प्रायः लाभ की ही बात सोच कर मनुष्य काम करता है पर यह भी समझ लेना चाहिए कि उसे दुख और चिन्ता तभी होती है जब लाभ नहीं मिलता। इसलिए कोई काम करके हमें लाभ की बड़ी-बड़ी आशा न करके बड़ी से बड़ी हानि की सम्भावना पर ध्यान कर लेना उचित है। कम से कम जीवन के व्यावसायिक कार्यों में यह दृष्टिकोण मनुष्य में निर्भीकता की अभिवृद्धि करता है। परोक्ष रूप से उसका प्रभाव यह पड़ता है कि निडरता से काम होने के कारण लाभ ही होता है और लाभ के अभाव में चिंता नहीं होती।

(2) अगर हानि या हार ही सुनिश्चित है तो उसको सहने के लिए तैयार रहो- यह मानना ही पड़ेगा कि कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें हानि से नहीं बचा जा सकता। यदि हानि होती है या हार होती है तो उसे सहन करना उचित है। इससे शक्ति बढ़ती है, हानि से ज्ञान बढ़ता है और अपनी कमजोरी का परिचय मिल जाता है। इसलिए उसे सह कर प्रयत्न करते रहना ही ठीक है।

(3) अपने पास जो भी साधन हैं उन्नति के लिये वही काफी हैं- अपने पास यदि थोड़ा ही धन है या थोड़ी ही योग्यता है तो उस कमी का रोना रोते रहना उचित नहीं। कहा भी गया है- ‘क्रिया सिद्धिस्सत्वे भवति महताँ नोपकरणे’ अर्थात् सिद्धि की प्राप्ति शक्ति से होती है, साधनों से नहीं। साधनविहीन व्यक्तियों ने ही संसार में क्रान्तियाँ की हैं।

(4) खाली मत बैठो- कहा गया है खाली दिमाग शैतान का घर। जैसे किसी स्थान पर हवा बिल्कुल न रहे तो दूसरी जगह से हवा दौड़ कर उस स्थान को भर देती है। इसी तरह मस्तिष्क कभी बेकार नहीं रहता। उस में यदि शुभ विचार और संकल्प नहीं हैं तो बुरे विचार ही उस में अपना स्थान बना लेंगे। इसके अतिरिक्त अपने शरीर को भी काम में लगाये रहता है तो विचार कम आते हैं। यदि आप दौड़ रहे हों या तैर रहे हो तो क्या विचार कर सकते हैं? व्यावहारिक मनोविज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान विलियम जेम्स ने कहा है कि ‘ऐसा जान पड़ता है कि हमारे मनोभावों के अनुरूप कार्य होते हैं पर वास्तव में भाव और क्रिया एक दूसरे पर आश्रित हैं और अपनी क्रियाओं का संयोजन करके जो हमारे वश की बात है, हम परोक्ष रूप से अपने मनोभावों को वश में कर सकते हैं जिन पर काबू पाना अत्यधिक कठिन है। इसलिए किसी न किसी काम में लगे रहने पर चिन्ता दूर ही रहती है।

(5) सोचो- हम सबसे अधिक सुखी हैं- अगर तुम क्लर्क हो, तो डायरेक्टर की पदवी का सोच करके दुखी मत हो। तुम्हें यह संतोष करना चाहिए कि दूसरे चपरासी हैं। उनसे तुम अवश्य सुखी ज्यादा हो। इस प्रकार के विचारों से मन में सुख की भावना को स्थान दो। यदि प्रत्येक वस्तु में तुम चाहो तो सौंदर्य और गुण देख सकते हो। जेम्स ऐलेन ने ठीक बताया है कि जैसे ही मनुष्य अन्य लोगों या वस्तुओं के प्रति अपने विचारों को बदल देता है, वे लोग और वस्तुएं भी उसके लिए बदल जाती हैं।

यह है चिंता निवारण के कुछ स्वर्णिम नियम।


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