(श्री ज्वाला प्रसाद मिश्र)
मेरा आँगन, मेरा आँगन-मेरा आँगन, मेरा आँगन।
मेरे इस नन्हें से घर का उन्मुक्त हृदय, यह चिर पावन।
दिखने को दिखता है यद्यपि यह आज जरा रीता-रीता,
पर कौन कहे इसमें मेरा कितना मधुमय बचपन बीता,
मैं कितनी बार यहाँ हारा, मैं कितनी बार यहाँ जीता,
मेरा नन्हा सा कुरुक्षेत्र, मेरी यह नहीं सी गीता,
मेरा आँगन, यह कभी रहा मेरे बचपन का समराँगण।
मेरा आँगन, मेरा आँगन॥
जग से असीम को सीमित सा देखा इसके सीमित तन में,
उसने अनन्त का आदि अन्त पाया घर के इस आँगन में,
वह निराकार साकार हुआ शिशु में भोले से बचपन में,
अव्यक्त व्यक्त हो बोल उठा, उसके अटपट तुतलेपन में,
नर होकर इसकी गोदी में खेले जीवन भर नारायण।
मेरा आँगन, मेरा आँगन॥
उग उठी दूब आँगन में, जाने किसका बचपन लहराया,
खिल पड़े सुमन आँगन में, जाने कौन यहाँ आ मुस्काया,
प्रकटी रवि किरणें आँगन में, नभ किसके पद छूने आया,
चिड़ियाँ चहकीं आँगन में किसने किसका आज विरुद गाया?
मच रहा महोत्सव आँगन में हर घड़ी विपल प्रतिपल प्रतिक्षण।
मेरा आँगन, मेरा आँगन॥
जग ने इसमें चलना सीखा घुटनों के बल पैरों के बल,
गिर-गिर कर उठता रहा यहीं प्रतिफल जीवन भर नर-निर्बल,
हो गया अनेकों बार विफल, हो गया अनेकों बार विफल,
उसके पद-चिह्नों को लेकर विस्तृत है इसका वक्षस्थल,
है धड़कन रही इसके दिल में उस मानव के उर की धड़कन।
मेरा आँगन, मेरा आँगन॥
-युगाँतर
*समाप्त*