(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)
यद्यपि सम्पूर्ण भीतरी शत्रुओं- माया, मोह, ईर्ष्या, काम, लोभ, क्रोध इत्यादि का तजना कठिन है, तथापि अनुभव से ज्ञान होता है कि ‘अहंकार’ नामक आन्तरिक शत्रु को मिटाना और भी कष्ट साध्य है। यह वह शत्रु है जो छिप कर हम पर आक्रमण करता है। हमें ज्ञान तक नहीं होता कि हम ‘अहंकार’ के वशीभूत हैं।
अहंकार प्रत्येक मनुष्य में वर्तमान है। धनी मानी, वृद्ध, युवक, बालक विज्ञान किसी न किसी प्रकार के अहंकार में डूबे हैं। ‘अहं’ ही घमंड है। हमें किसी न किसी बात का मिथ्या गर्व बना है। विद्वान को अपनी विद्वत्ता का, धनी को अपने धन का, स्त्री को अपने रूप, यौवन, सौंदर्य का अहंकार है, राजा और जागीरदार अपने ऐश्वर्य के अहंकार में किसी दूसरे की नहीं सोचते, पूँजीपति अपनी पूँजी के गर्व में गरीब मजदूरों के अधिकारों को नहीं देना चाहते। संसार के अनेक संघर्षों का कारण यही है कि किसी के ‘अहं’ को चोट पहुँचती है। अभिमान मनुष्य के पतन का मूल है।
भक्त सूरदास ने भीतरी शत्रुओं का उल्लेख करते हुए अपने एक भजन में लिखा है-
प्रभु मैं सब पतितन को राजा।
पर निंदा मुख पूरि रह्यो, जग
यह निसान नित बाजा॥
तृष्ना देसरु सुभट मनोरथ
इन्द्रिय खडग हमारे।
मंत्री काम कुमत दैवे को
क्रोध रहत प्रतिहारे॥
गज अहंकार चढ़यो दिग विजयी
लोभ छत्र धरि सीस।
फौज असत-संगति की मेरी
एसो हौं मैं ईस॥
मोह मदै बन्दी गुनगावत
मगध दोष अपार।
सूर पाप को गढ़ दृढ़ कीनो
मुह कम लगे किंवार॥
‘अहंकार’ को सूर हाथी मानते हैं। उन्होंने इसे ‘दिग्विजयी गज’ कहकर सम्बोधित किया है। अर्थात् संसार में बहुत कम इस दुर्बलता से मुक्त हैं। आदि काल से मनुष्य इस प्रयत्न में है कि वह अभिमान से मुक्त हो जाये और इसी के लिए प्रयत्न करता रहा है। किंतु शोक! महाशोक!! जीवन पर्यंत हम वृथा के अभिमान में फँसे रहते हैं। अपने बराबर किसी को नहीं मानते। अपनी बुद्धि को सबसे अधिक महत्व प्रदान करते हैं। अपनी चीज, बाल बच्चे, विचार, दृष्टिकोण, घर बार सच पर अभिमान करते हैं। इसी वृथा के अहंकार के कारण हम जीवन में और बड़ी बातें सम्पन्न नहीं कर पाते। जहाँ के तहाँ ही पड़े रह जाते हैं। हमारी उन्नति में रोक पहुँचाने वाला शत्रु अहंकार ही तो है। सूर ने इस भाव को कितनी सुन्दरता से व्यक्त किया है, देखिये-
रे मन! मूरख जनम गंवायो।
करि अभिमान विषय सों राच्यो,
नाम सरन नहि आयो।
यह संसार फूल सेमर को,
सुन्दर देखि लुभायो।
चाखन लाग्यो रुई उड़ि गई
हाथ कछू नहीं आयो।
कहा भयो अबके मन सोचे,
पहिले नाँहि कमायो।
‘सूरदास’ हरि नाम भजन बिनु,
सिर धुनि-धुनि पछितायो॥
मनुष्य अभिमान कर विषयों में फंसा रहता है, विवेक भूलता है। और फिर आयु पर्यन्त पछताता है। सम्पत्ति आती है और एक मामूली से झटके से निकल जाती है। शारीरिक शक्ति बीमारी के एक आक्रमण से नष्ट हो जाती है। पग जरा सी गलती से छूट जाना है और मनुष्य पदच्युत हो जाता है फिर कोई उसे टके को भी नहीं पूछता। धन, सम्पदा, ऐश्वर्य, शक्ति सब निस्सार पदार्थ हैं। मनुष्य इनके अभिमान में अपनी आध्यात्मिक उन्नति को भूल जाता है और पतनोन्मुख होता है।
सम्पत्ति और साँसारिक पदार्थ का अहंकार ही मनुष्य को बन्धन में डालता है। यदि मन का स्वामी बनना हो तो इस अभिमान का तुरन्त त्याग कर डालना चाहिए। अहंकार के चश्मे में से मनुष्य अपनी वास्तविक स्थिति, देश इत्यादि को नहीं देख पाता। यह दुर्बलता उसे तुच्छ और कमीना बनाये रखती है।
अहंकार का अर्थ संकुचितता है। इससे मनुष्य अपने आपको एक संकुचित परिधि में बाँधे रखता है। वह दूसरों से उन्मुक्त भ्रातृभाव से मिल नहीं पाता, अपना हृदय उनके सामने नहीं खोल सकता। मिथ्या गर्व में वह यह सोचा करता है कि दूसरे आये और आकर उसकी मिथ्या प्रशंसा करे। प्रशंसा से वह फूल उठता है। उसकी शठता, मद, अभिमान द्विगुणित हो उठते हैं। धीरे-धीरे उसे दूसरों से तारीफ कराने की आदत बन जाती है। वह अपनी तनिक सी बुराई सुनते ही विह्वल हो उठता है और क्रोध में कुछ का कुछ कर बैठता है। बन्धन ही मृत्यु है, अहंकार का बन्धन सर्वथा त्याज्य है। अहंकार को चोट पहुँचते ही मनुष्य को हजारों बिच्छुओं के काटने के समान दुःख होता है।
आप जन्म से दूसरों के समान हैं। दूसरे भी आप जैसे ही हैं। सब में समानता है। फिर किस बात का वृथा अहंकार आप करते हैं। मिथ्या अभिमान में फँसकर क्यों आप एक नए आन्तरिक दुःख की सृष्टि कर रहे हैं। यदि आप अभिमानी नहीं हैं तो आपका अन्तस्थल शुद्ध निर्मल रहेगा, मानसिक वृत्तियाँ शाँत बनी रहेगी, मधुर निद्रा आवेगी, जनता में प्रत्येक जगह आपका सम्मान होगा। आपके पड़ौसी आपको भली प्रकार समझ सकेंगे। आन्तरिक दृष्टि से सफाई, स्वास्थ्य और सौभाग्य की जननी है। इस मनोविकार के मोहजाल में मुक्त हो जाइये।