गायत्री साधना से शक्ति कोषों का उद्भव

September 1949

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पिछले लेख में बताया जा चुका है कि गायत्री कोई देवी देवता, भूत-पलीत आदि नहीं वरन् ब्रह्म की स्फुरणा से उत्पन्न हुई आद्य शक्ति है जो संसार के प्रत्येक पदार्थ का मूल कारण है और उसी के द्वारा जड़ चेतन सृष्टि में गति, शक्ति, प्रगति, प्रेरणा एवं परिणति होती है। जैसे घर में रखे हुए रेडियो यंत्र का संबंध विश्व व्यापी ईथर तरंगों से स्थापित करके देश-विदेशों में होने वाले प्रत्येक ब्रॉडकास्ट को सरलता पूर्वक सुन सकते हैं। उसी प्रकार आत्म शक्ति का विश्व व्यापी गायत्री शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके सूक्ष्म प्रकृति की सभी हलचलों की जान सकते हैं और उस सूक्ष्म शक्ति को इच्छानुसार मोड़ने की कला विदित हो जाने पर-साँसारिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्र में प्राप्त हो सकते हैं। जिस मार्ग से यह सब हो सकता है उसका नाम है-साधना।

कई व्यक्ति सोचते हैं- “हमारा उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति, आत्म-दर्शन और जीवन-मुक्ति है, हमें गायत्री के सूक्ष्म प्रकृति के चक्कर में पड़ने से क्या प्रयोजन? हमें तो केवल ईश्वराधना करनी चाहिए।” ऐसा सोचने वालों को जानना चाहिए कि ब्रह्म सर्वथा निर्विकार, निर्लेप, निरंजन, निराकार और गुणातीत है। वह न किसी से प्रेम करता है न द्वेष। वह केवल दृष्टा एवं कारण रूप है। उस तरह सीधी पहुँच नहीं हो सकती। क्योंकि जीव और ब्रह्म के बीच में सूक्ष्म प्रकृति का सघन आच्छादन है। इस आच्छादन को पार करने के लिए प्रकृति के साधनों से ही कार्य करना पड़ेगा। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, कल्पना, ध्यान, सूक्ष्म शरीर, षट्चक्र, इस देव की ध्यान प्रतिमा, व्यक्ति भावना-उपासना, व्रत, अनुष्ठान, साधन यह सब भी तो मात्रा निर्मित, ही हैं, इन सब को छोड़कर ब्रह्म प्राप्ति किस प्रकार होनी संभव है? जैसे ऊपर आकाश में पहुँचने के लिए वायुयान की आवश्यकता पड़ती है वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लिए भी प्रकृति मूलक आराधना का ही आश्रय लेना पड़ता है। गायत्री के आवरण में होकर पार जाने पर ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। सच तो यह है कि साक्षात्कार का अनुभव भी गायत्री के गर्भ में ही होता है। इस से ऊपर पहुँचने पर सूक्ष्म इन्द्रियाँ और उनकी अनुभव शक्ति भी लुप्त हो जाती है। इसलिए मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति चाहने वाले भी गायत्री मिश्रित ब्रह्म की-राधेश्याम, सीताराम लक्ष्मी नारायण की-ही उपासना करते हैं। निर्विकार ब्रह्म का सायुज्य तो तभी होगा जब ब्रह्म “बहुत से एक होने” की इच्छा करेगा और सब आत्माओं को समेट कर अपने में धारण कर लेगा। उससे पूर्व सब आत्माओं की सविकार ब्रह्म में ही सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य आदि हो सकता है। इस प्रकार गायत्री मिश्रित सविकार ब्रह्म ही हमारा उपास्य रह जाता है। उसकी प्राप्ति के साधन जो भी होंगे, वे सभी सूक्ष्म प्रकृति गायत्री द्वारा ही होंगे। इसलिए ऐसा सोचना उचित नहीं कि ब्रह्म प्राप्ति के लिए गायत्री अनावश्यक है। वह तो अनिवार्य है। नाम से कोई उपेक्षा या विरोध करें यह उनकी इच्छा, पर गायत्री तत्व से बचकर अन्य मार्ग से जाना असंभव है।

कई व्यक्ति कहते हैं कि हम निष्काम साधना करते हैं, हमें किसी फल की कामना नहीं फिर सूक्ष्म प्रकृति का, गायत्री का, आश्रय क्यों लें? ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि निष्काम, साधना का अर्थ-भौतिक लाभ न चाह कर आत्मिक सतोगुणी लाभ चाहना है। बिना परिणाम सोचे या चाहे तो किसी कार्य में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती, यदि कुछ किया भी जाय तो उससे समय एवं शक्ति के अपव्यय के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकलता। निष्काम कर्म का तात्पर्य देवी, सतोगुणी आत्मिक कामनाओं से है। ऐसी कामनाएँ भी गायत्री के प्रथम पाद में, ह्रीं तत्व में, सरस्वती भाग में आती है। इसलिए निष्काम भाव की उपासना भी गायत्री क्षेत्र से बाहर नहीं है।

मंत्र विद्या के वैज्ञानिक जानते हैं कि जीभ से जो भी शब्द निकलते हैं उनका उच्चारण कंठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दंत, जिह्वा मूल आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों की नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं, इस फैलाव क्षेत्र में कई सूक्ष्म ग्रंथियाँ होती हैं जिन पर उस उच्चारण का दबाव पड़ता है। जिन लोगों की कोई सूक्ष्म ग्रन्थियाँ रोगी या नष्ट हो जाती हैं उनके मुख से कुछ खास शब्द अशुद्ध या रुक-रुक कर निकलते हैं, इसी को हकलाना और तुतलाना कहते हैं। शरीर में अनेकों छोटी-बड़ी दृश्य-अदृश्य ग्रन्थियाँ होती हैं योगी लोग जानते हैं कि उन कोषों में कोई विशेष शक्ति भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना से सम्बद्ध षट्चक्र प्रसिद्ध हैं, ऐसी ही अगणित अनेकों ग्रंथियाँ शरीर में हैं। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रंथियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभास से उन ग्रंथियों का शक्ति भण्डार जागृत होता है। मंत्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हैं। इनका संबंध शरीर में स्थित ऐसी 24 ग्रन्थियों से है जो जागृत होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती है। गायत्री मन्त्र के कारण से सूक्ष्म शरीर का सितार 24 स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर लहरी उत्पन्न होती है जिसका प्रभाव अदृश्य जगत के महत्वपूर्ण तत्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रधान हेतु है।

शब्दों का ध्वनि प्रवाह तुच्छ चीज नहीं है। शब्द विद्या के आचार्य जानते हैं कि शब्द में कितनी शक्ति है और उसकी अज्ञात गतिविधि के द्वारा क्या-क्या परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म की स्फुरणा कम्पन उत्पन्न करती है, वह कम्पन ब्रह्म से टकरा कर “ॐ” ध्वनि के साथ बार-2 ध्वनित होता रहता है। जैसे दीवाल-घड़ी का लटकन घण्टा पेंडुलम झूलता रह कर घड़ी के पुर्जों में चाल पैदा करता रहता है इसी प्रकार वह “ॐ” कार ध्वनि प्रवाह सृष्टि को चलाने वाली गति पैदा करता है। आगे चलकर उस प्रवाह में ह्रीं, श्रीं, क्लीं की तीन प्रधान सत्, रज, तममयी धाराएं बहती हैं। तदुपरान्त उसकी ओर भी शाखा प्रशाखाएं हो जाती हैं जो बीज मंत्र के नाम से पुकारी जाती हैं। यह ध्वनियाँ अपने-2 क्षेत्र में सृष्टि का संचालन कार्य शब्द तत्व द्वारा होता है। ऐसे तत्व को तुच्छ नहीं कहा जा सकता। गायत्री की शब्दावली ऐसे चुने हुए शृंखलाबद्ध शब्दों से बनाई गई है जो क्रम और गुम्फन की विशेषता के कारण अपने ढंग की एक अद्भुत ही शक्ति प्रवाह उत्पन्न करती है।

दीपक राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते हैं, मेघ मल्हार गाने से वर्षा होने लगती है, वेणु-नाद सुनकर सर्प लहराने लगते हैं, मृग सुधि-बुधि भूल जाते हैं, गाय अधिक दूध देने लगती है। कोयल की बोली सुनकर काम भाव जागृत हो आते हैं। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने की शब्द ध्वनि से लोहे के पुल तक गिर सकते हैं इसलिए पुलों को पार करते समय सेना को कदम मिला कर न चलने की हिदायत दी जाती है। अमेरिका के डॉक्टर हैविसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्ट साध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की है। भारत वर्ष में ताँत्रिक लोग थाली को घड़े पर रखकर एक विशेष गति से बजाते हैं और उस बाजे से सर्प बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए, कंठमाला, विषबेल, भूतोन्माद आदि के रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते हैं। कारण यह है कि शब्दों के कंपन सूक्ष्म प्रकृति में से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को लेकर ईथर का परिभ्रमण करते हुए जब अपने उद्गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते हैं तो उनमें अपने प्रकार की एक विशेष विद्युत शक्ति भरी होती है और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उस शक्ति का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मन्त्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने पर भी यही कारण है। गायत्री मंत्र द्वारा भी इस प्रकार शक्ति का आविर्भाव होता है। मंत्रोच्चारण में मुख के जो अंग क्रियाशील होते हैं, उन भागों के नाड़ी तंतु कुछ विशेष ग्रंथियों को गुदगुदाते हैं, उनमें स्फुरणा होने से एक वैदिक छंद का क्रमबद्ध योगिक संगीत प्रवाह ईथर तत्व में फैलता है और अपनी कुछ क्षणों में पुरी होने वाली विश्व परिक्रमा से वापिस आते-आते एक स्वजातीय तत्वों की सेना वापिस ले आती है जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में बड़ी सहायक होती है। शब्द संगीत के शक्तिमय कम्पनों का पंच भौतिक प्रवाह और आत्म शक्ति का सूक्ष्म प्रकृति की भावना, साधना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया संबंध, यह दोनों ही कारण गायत्री शक्ति को ऐसी बलवान बनाते हैं जो साधकों के लिए दैवी वरदान सिद्ध होता है।

गायत्री मन्त्र को और भी अधिक सक्षम बनाने वाला कारण है साधक का ‘श्रद्धामय विश्वास’ विश्वास की शक्ति से सभी मनोविज्ञान वेत्ता परिचित हैं। हम अपनी पुस्तकों और लेखों में ऐसे असंख्यों उदाहरण अनेकों बार दे चुके हैं जिनसे सिद्ध होता है कि केवल विश्वास के आधार पर लोग केवल भय की वजह से अकारण काल के मुख में चले गये और विश्वास के कारण मृत प्रायः लोगों ने नवजीवन प्राप्त किया। रामायण में तुलसीदास जी ने ‘भवानी शंकरो बन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणो’ गाते हुए श्रद्धा और विश्वास को भवानी शंकर की उपमा दी है। झाड़ी को भूत, रस्सी को सर्प, मूर्ति को देवता, बना देने की क्षमता विश्वास में है। लोग अपने विश्वासों की रक्षा के लिए धन, आराम तथा प्राणों तक को हंसते-हंसते गंवा देते हैं। एकलव्य, कबीर आदि के ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिससे प्रकट है कि गुरु द्वारा नहीं केवल अपनी श्रद्धा के आधार पर गुरु द्वारा प्राप्त होने वाली शिक्षा से भी अधिक विज्ञ बना जा सकता है। हिप्नोटिज्म विज्ञान का आधार, रोगी को अपने वचन पर विश्वास कराके उससे मनमाने कार्य करा लेना ही तो है। ताँत्रिक लोग मंत्र सिद्धि की कठोर साधना द्वारा अपने मन में उस मंत्र के प्रति अगाध श्रद्धा जमाते हैं, जिसके मन में जितनी गहरी श्रद्धा जमी होती है उस ताँत्रिक का मंत्र भी उतना ही काम करता है। जिस मन्त्र से श्रद्धालु ताँत्रिक चमत्कारी काम कर दिखाता है उसी मन्त्र को अश्रद्धालु साधक चाहे सौ बार करे कुछ लाभ नहीं होता। गायत्री मन्त्र के संबंध में भी यह तथ्य बहुत हद तक काम करता है। जब साधक श्रद्धा और विश्वास पूर्वक आराधना करता है तो शब्द विज्ञान और आत्म संबंध दोनों की महत्ता से संयुक्त गायत्री का प्रभाव और भी अधिक बढ़ जाता है और वह एक अद्वितीय शक्ति सिद्ध होती है।

पिछले पृष्ठ पर ऊपर दिये हुए चित्र में दिखाया गया है कि गायत्री के प्रत्येक अक्षर का किस-किस स्थान से सम्बन्ध है। उन स्थानों पर योगिक ग्रन्थि चक्र है। इनका परिचय इस प्रकार है-

अक्षर ग्रन्थि का नाम उसमें भरी हुई शक्ति

1. तत् तापिनी सफलता

2. स सफला पराक्रम

3. वि विश्वा पालन

4. तुर् तुष्टि कल्याण

5. व वरदा योग

6. रे रेवती प्रेम

7. णि सूक्ष्मा धन

8. यं ज्ञाना तेज

9. भर् भर्गा रक्षा

10. गो गौतमी बुद्धि

11. दे देविका दमन

12. व वराही निष्ठा

13. स्य सिंहिनी धारणा

14.धी ध्याना प्राण

15. म मर्यादा संयम

16. हि स्फुटा तप

17. धि मेधा दूरदर्शिता

18. यो योगमाया जागृति

19. यो योगिनी उत्पादन

20. नः धरित्री सरसता

21. प्र प्रभवा आदर्श

22. चो ऊष्मा साहस

23. द दृश्या विवेक

24. यात् निरंजना सेवा


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