अब जीवन की चाह बन चुकी मिटने की अभिलाषा,
विश्व शान्ति में राग भर रही, अमर क्रान्ति की भाषा।
वृद्ध जगत, जर्जर समाज है, रूढ़ि ग्रस्त मानव है।
मेरे आगे पड़ा हुआ विधवा संस्कृति का शव है।
अब है कितनी देर, जगो, मेरे प्रलयंकर जागो,
राह देखता सर्वनाश, जागो शिवशंकर जागो।
दानवता है मुक्त और पशुता ने है बल पाया,
अनाचार है नियम, विषमता विश्व-मोहनी माया।
छल है साधन, लूट यहाँ संयम, परवशता क्रम है।
अट्टहास अनहद है, इसका सत्य स्वयं ही भ्रम है।
भूमि अस्थि बन चुकी, कफ़न बन करके अम्बर जागो,
राह देखता सर्वनाश, जागो शिवशंकर जागो।
शोषण का हो अन्त, विश्व शोषित के स्वर में बोले,
“निर्बल की जय” सत्ता का शाश्वत सिंहासन डोले।
परा प्रकृति के उपहारों के सब समान अधिकारी,
नहीं किसी तक सीमित भू की अचल सम्पदा सारी।
जीवन बन कर फूट पड़ो, नवयुग के निर्झर जागो,
राह देखता सर्वनाश, जागो शिवशंकर जागो।