नवदुर्गाओं में गायत्री साधना

September 1949

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यों तो वर्षा, शरद, शिशिर, हेमन्त, बसन्त, ग्रीष्म-यह छह ऋतुएं होती हैं। मोटे तौर से सर्दी, गर्मी, वर्षा यह तीन ऋतुएं मानी जाती हैं। पर वस्तुतः दो ही ऋतु हैं (1) सर्दी (2) गर्मी। वर्षा दोनों ही ऋतुओं में होती है। गर्मियों में मेघ सावन, भादो बरसते हैं, सर्दियों में पौष, माघ में वर्षा होती है। गर्मियों की वर्षा में अधिक पानी पड़ता है सर्दियों में कम। इतना अन्तर होते हुए भी दोनों ही बार पानी पड़ने की आशा की जाती है। इन दो प्रधान ऋतुओं के मिलने की संधि बेला को नवदुर्गा कहते हैं।

जैसे दिन और रात्रि के मिलन काल को संध्या काल कहते हैं। और उस महत्वपूर्ण संध्या काल को बड़ी सावधानी से बिताते हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भोजन करना, सोते रहना, मैथुन करना, यात्रा आरंभ करना आदि कितने ही कार्य वर्जित हैं। उस समय को ईश्वराधन, संध्यावंदन, आत्म-साधन आदि कार्यों में लगाते हैं क्योंकि वह समय जिन कार्यों के लिए सूक्ष्म दृष्टि से अधिक उपयोगी है, वही कार्य करने से थोड़े ही श्रम से अधिक और आश्चर्यजनक सफलता मिलती है। इसी प्रकार जो कार्य वर्जित है वे उस समय में अन्य समयों की अपेक्षा अधिक हानिकारक होते हैं। सर्दी-गर्मी की ऋतुओं का मिलन, दिन और रात्रि के मिलन के समान संध्या काल है, पुण्य पर्व है। पुराणों में कथा है कि ऋतुएं नौ दिन के लिए ऋतुमती-रजस्वला होती है। जैसे रजस्वला को विशेष आहार-विहार और आचार-विचार का ध्यान रखना आवश्यक होता है वैसे ही उस संध्याकाल में-संधि वेला में- रजस्वला अवधि में- विशेष स्थिति में रहने की आवश्यकता होती है।

आरोग्य शास्त्र के पंडित जानते हैं कि आश्विन और चैत्र में जो सूक्ष्म ऋतु परिवर्तन होता है उसका प्रभाव मानव शरीर पर कितनी अधिक मात्रा में होता है। उस प्रभाव में स्वास्थ्य की दीवार हिल जाती है और अनेक व्यक्ति ज्वर, जूड़ी, हैजा, दस्त, चेचक, अवसाद आदि अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। वैद्य डाक्टरों के दवाखानों में इन दिनों बीमारों का मेला लगा रहता है। वैद्य लोग जानते हैं कि वमन, विरेचन, नस्य, स्वेदन, वस्ति, रक्त मोक्षण आदि शरीर शोधन कार्यों के लिए आश्विन और चैत्र का महीना ही सबसे उपयुक्त है। इस समय में दशहरा और रामनवमी जैसे दो प्रमुख त्यौहार नवदुर्गाओं के अन्त में होते है। ऐसे महत्वपूर्ण त्यौहारों के लिए यही समय सब से अधिक उपयुक्त था। नवदुर्गाओं के अन्त में भगवती दुर्गा प्रकट हुई। चैत्र की नव दुर्गाओं के अन्त में भगवान राम का अवतार हुआ। यह पूर्णमासी की ऊषा ऐसी ही हैं जिसके अन्त में सूर्य या चन्द्रमा का उदय होता है।

क्वार और चैत्र मास शुक्लपक्ष में प्रतिपदा (पड़वा) से लेकर नवमी तक नौ दुर्गाएं रहती हैं। यह समय गायत्री साधन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। इन दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार मन्त्रों के जप का छोटा सा अनुष्ठान कर लेना चाहिए। यह छोटी साधना भी बड़ी साधना के समान उपयोगी सिद्ध होती है।

एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल दूध का आहार, केवल दूध का आहार, इनमें से जो भी उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिए। प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर शौच स्नान से निवृत्त होकर पूर्व वर्णित नियमों को ध्यान में रखते हुए उपासना के लिए बैठना चाहिए। नौ दिन में 24 हजार जप करना है। प्रतिदिन 2667 मंत्र जपने हैं। एक माला में 108 दाने होते हैं। प्रतिदिन 25 मालाएं जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है। तीन-चार घंटे में अपनी-अपनी गति के अनुसार इतनी मालाएं आसानी से जपी जा सकती है। यदि एक बार इतने समय लगातार जप करना कठिन हो तो अधिकाँश भाग प्रातः पूरा करके न्यून अंश सायंकाल को पूरा कर लेना चाहिए। अंतिम दिन हवन के लिए है। उस दिन पूर्व वर्णित हवन विधि के अनुसार कम से कम 108 आहुतियों का हवन कर लेना चाहिए। ब्राह्मण भोजन और यज्ञ पूर्ति की दान दक्षिणा की भी यथाविधि व्यवस्था करनी चाहिए।

यह छोटा नौ दिन का अनुष्ठान नवदुर्गाओं के समय में यदि प्रतिवर्ष करते रहा जाय तो सबसे उत्तम है। स्वयं न कर सकें तो किसी अधिकारी सुपात्र ब्राह्मण से वह करा लेना चाहिए। यह नौ दिन साधना के लिए बड़े ही उपयुक्त हैं। कष्ट निवारण, कामना पूर्ति और आत्मबल बढ़ाने में इन दिनों की उपासना बहुत ही लाभदायक सिद्ध होती है। आश्विन की नवदुर्गाएं निकट हैं। पाठक उस समय एक छोटा अनुष्ठान करके उसका लाभ देखें।

नवदुर्गाओं के अतिरिक्त भी छोटा अनुष्ठान इसी प्रकार कभी भी किया जा सकता है। सवालक्ष जप का चालीस दिन में पूरा होने वाला पूर्ण अनुष्ठान है। नौ दिन का एक पाद (पंचमाँश) अनुष्ठान कहलाता है। सुविधा और आवश्यकतानुसार उन्हें भी करते रहना चाहिए। यह तपोधन जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित किया जा सके उतना ही उत्तम है।

छोटा गायत्री मंत्र-

जैसे सवा लक्ष जप को पूर्ण अनुष्ठान न कर सकने वालो के लिए नौ दिन का चौबीस हजार जप का लघु अनुष्ठान हो सकता है। उसी प्रकार अल्पशिक्षित, अशिक्षित, बालक या स्त्रियों के लिए लघु गायत्री मन्त्र भी है। जो चौबीस हजार का पूर्ण मंत्र याद नहीं कर पाते वे प्रणव और व्याहृतियां (ॐ भूर्भुवः स्वः) इतना पंचाक्षरी मन्त्र जप कर काम चला सकते हैं। जैसे चारों वेदों का बीज चौबीस अक्षर वाली गायत्री है। वैसे ही गायत्री का मूल पंचाक्षर मन्त्र-प्रणव और व्याहृतियां हैं। ॐ भूर्भुवः स्वः यह मन्त्र स्वल्प ज्ञान वालों की सुविधा के लिए बड़ा उपयोगी है।


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