धर्म और सांप्रदायिकता

March 1948

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कई व्यक्ति धर्म और साम्प्रदायिकता को एक समझ कर दोनों को आपस में मिला देते हैं और एक का दोष दूसरे पर मढ़ कर एक उलझन भरी स्थिति पैदा कर देते हैं। इस गड़बड़ी से बचने के लिए हमें धर्म, भावना और साम्प्रदायिकता का अन्तर भली प्रकार समझ लेना चाहिए।

धर्म अन्तःकरण की उन उच्च भावनाओं को कहते हैं जो मानव जीवन को उत्कर्ष एवं कल्याण के पथ पर ले जाती हैं। धर्म के दस लक्षण बताते हुए भगवान मनु ने उन्हीं गुणों को गिनाया है जिनको अपनाने से जीवन में पवित्रता, संयम, उदारता, एवं उन्नति की ओर प्रगति होती है। यह धर्म तत्व मनुष्य प्राणी का स्वभाव है। वह उसकी आत्मा की पुकार है, इस तत्व का आचरण करने से अन्तस्तल में शान्ति मिलती है और उसके विपरीत आचरण करने पर अन्तरंग जीवन में घोर अशान्ति उत्पन्न होती है।

धर्म का पालन किये बिना न व्यक्ति की, न समाज की, किसी की भी शान्ति और सुव्यवस्था स्थिर नहीं रह सकती, इसलिए धर्म की धारणा उतनी ही आवश्यक मानी गई है जितनी कि जलवायु और अन्न का सेवन। लोगों को धार्मिक बनाने के लिए प्रायः सभी विचारवान व्यक्ति अपने प्रयत्न जारी रखते हैं। यही प्रयत्न सामूहिक रूप से भी विविध प्रक्रियाओं द्वारा किये जाते हैं। सदाचारी, कर्तव्यपरायण, सच्चे नागरिक, देशभक्त, लोक सेवक, धर्मवान् एवं ईश्वर भक्त का एक ही अर्थ है।

दो पैर के पशु को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने के लिए धर्म की अभिभावना की गई है। इस धर्म भावना को जीवन में भली भाँति, अन्तस्तल में अधिक गहराई तक धारण किया जा सके, इस दृष्टि से धार्मिक प्रथायें, परिपाटियाँ कर्मकाण्ड, विश्वास, सिद्धान्त, पूजा, उपासना, संस्कार, शास्त्र आदि की व्यवस्था की गई। यह सब बातें मिलकर एक ‘समाज धर्म’ बनाता है।

हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध धर्म आदि अनेकों धर्म, समय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अवतीर्ण हुए हैं। देश काल पात्र की आवश्यकता और स्थिति का ध्यान रखते हुए समाज धर्मों का प्रचलन किया-अथवा पुराने प्रचलनों में आवश्यक सुधार किया। इन सभी ‘समाज धर्मों’ ने एक ही मूल धर्म तत्व से प्रकाश ग्रहण किया है। उसी के आधार पर उन्होंने अपना बाह्य रूप विनिर्मित किया है। सभी समाज धर्म-सदाचार, कर्तव्य परायणता, संयम, लोक सेवा, उदारता आदि उच्च मानवीय गुणों की मानव हृदय में स्थापना को अपना एक मात्र उद्देश्य मानते हैं। कार्य प्रणाली पृथक-2 होते हुए भी सब धर्मों में समानता है। तरीके, विश्वास, विधान अलग-2 होते हुए भी वे सब मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने का प्रयत्न करते हैं।

सब धर्मों में इतनी अन्तरंग एकता होते हुए भी आज हम देखते हैं कि धर्म के नाम पर भारी विद्वेष और रक्तपात फैल रहा है। इसे देखकर स्थूल दृष्टि वाले लोग ऐसा सोचने को विवश होते हैं कि-“सारे झगड़ों की जड़ यह धर्म ही है। जबतक इसे जड़मूल से नष्ट नहीं कर दिया जायेगा तब तक ये दुनिया चैन से न बैठ सकेगी।” परन्तु यह विचार बहुत ही उथला है, वह एक तर्क मालूम पड़ता है पर वस्तुतः तर्काभास मात्र है।

धर्म के लिए-धर्म के कारण-कभी कोई झगड़ा नहीं होता। झगड़ों का कारण है ‘सांप्रदायिकता’। साम्प्रदायिकता का अर्थ है-संकीर्णता, अनुदारता, आपापूती, स्वार्थपरता, अहंकारिता। यह साम्प्रदायिकता जिस क्षेत्र में भी घुस बैठती है वहीं भारी विद्वेष, घृणा, शोषण, उत्पीड़न, क्रूरता तथा अनाचार का बोल बाला कर देती है। यह केवल धार्मिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहती वरन् हर क्षेत्र में अपना विषैला कार्य जारी रखती है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ण विद्वेष के रूप में वह मौजूद है। जर्मनी में यहूदियों के विरुद्ध, अफ्रीका में हिन्दुस्तानियों के विरुद्ध, अमेरिका में नीग्रो लोगों के विरुद्ध यही साम्प्रदायिकता काम कर रही है। देशभक्ति के नाम पर एक देश के नेता अपने देश के लाभ के लिए दूसरे देशों का शोषण करते हैं। जापान ने चीन पर, इटली ने अवीसीनियाँ पर, जर्मनी ने अपने पड़ौसी देशों पर चढ़ाई की थी, भारत को इतने, दिन इसी चक्र ने गुलामी में जकड़े रखा, पिछले दो महायुद्धों में लगभग एक करोड़ मनुष्यों का खून बह गया, अपार सम्पत्ति स्वाहा हुई और आज भी परमाणु बम बन रहे हैं, तीसरे महायुद्ध की आधार शिला रख दी गई है। आगे भी न जाने कितना बड़ा संहार होने वाला है।

आर्थिक क्षेत्र में यह साम्प्रदायिकता-अनुदारता, अपने दूसरे रूप में मौजूद है। जिसे पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, उपयोगिता वाद, अवसर वाद आदि नाम से पुकारते हैं। इन प्रक्रियाओं द्वारा एक वर्ग अपने लाभ के लिये असंख्यों को भूखा मारता है और उन्हें तबाह कर देता है, गरीबों की हड्डियों पर अमीरों के महल खड़े होते हैं। एक ओर करोड़ों मन अन्न इसलिए जलाकर नष्ट किया जाता है कि दुनिया में महंगाई बढ़े-दूसरी ओर उन अन्न के दानों के लिए लाखों आदमी तड़प कर प्राण त्यागते हैं।

सामाजिक क्षेत्रों में यह साम्प्रदायिकता-छूत अछूत, स्त्री पुरुष, जाति पाँति, एवं मजहब सम्प्रदाय के रूप में सामने आती है। एक वर्ग अपने को ऊंचा और दूसरे को नीच मानता है। अपने वर्ग, वंश, समुदाय को दैवी अधिकार सम्पन्न होने का दावा करता है और दूसरों को नीच मानता है। अपने वर्ग के लिए विशेष सुविधाएं प्राप्त करना चाहता है और इसके लिए दूसरे वर्ग के साथ कितना ही अन्याय होता हो इसकी परवा नहीं करता। मुसलिम लीग ने इसी साम्प्रदायिकता को हाथ में लेकर ऐसा उग्र विष उगला जो चार लाख निर्दोष प्राणियों को एक फुन्कार में डस गया। हिन्दुओं में यह विष भीतर ही भीतर बहुत दिनों से जड़ जमाये बैठा है। जाति-पाँति के नाम पर, दलबन्दी चल रही है, एक जाति अपने को ऊंचा और दूसरों को नीचा बताती है, अपनी जाति के लिए विशेष अधिकार चाहती है। दस करोड़ व्यक्तियों को केवल इसलिए सामाजिक जीवन से बहिष्कृत करके रखा गया है कि उनका जन्म एक विशेष, जाति में हुआ है। यही बात स्त्रियों के अधिकारों के संबंध में है जिन अधिकारों को पुरुष स्वच्छंद रूप से भोगते हैं वही अधिकार यदि स्त्रियों के लिए माँगे जाते हैं तो लोगों की भौहें तन जाती हैं।

दार्शनिक क्षेत्र में यह साम्प्रदायिकता-मनुष्य और पशुओं के अधिकारों में भारी वैषम्य उपस्थित किये हुए हैं। पशुओं का हर प्रकार का शोषण ही नहीं उनकी नृशंस हत्या तक मनुष्य का कानूनी अधिकार मान लिया गया है। उसके विरुद्ध कोई प्रतिबन्ध नहीं है, कई बार तो उसे बलिदान और कुर्बानी के नाम पर उलटा पुण्य मान लिया जाता है। इसके अतिरिक्त विविध प्रकार की कल्पनाएं, मान्यताएं एक सम्प्रदाय बनी बैठी हैं। ‘हमारे धर्मग्रन्थ में यह लिखा है, हमारे सम्प्रदाय के विद्वानों ने ऐसा कहा है, हमारे पूर्वज ऐसा करते रहे हैं।’ इन्हीं दलीलों के आधार पर अनेकों थोथी, भ्रान्त, अवैज्ञानिक, हानिकारक विचार धाराएं हमारे मस्तिष्कों पर कब्जा किये हुए हैं। उस साम्प्रदायिकता के चंगुल में से ऊपर उठकर निष्पक्ष सत्य के दर्शन करने तक का साहस नहीं हो पाता।

आत्मिक क्षेत्र में यह साम्प्रदायिकता-पक्षपात, स्वार्थ, मोह, ममता, लोभ, अहंकार, दंभ, मद, मत्सरता, शोषण, आक्रमण, घृणा, द्वेष, ईर्ष्या आदि के रूप में विचरण करती है। ‘जो मेरा सो अच्छा’ का सिद्धान्त साम्प्रदायिकता की धार पर चढ़कर इतना तीव्र हो जाता है उसके आगे ‘जो अच्छा सो मेरा’ की बात तक सोचना कठिन हो जाता है। साम्प्रदायिकता एक ऐसा रंगीन चश्मा है जिसे पहन लेने पर पक्षपात, स्वार्थ, अहंकार, आपापूती के ही रंग में रंगी हुई दृष्टि हर चीज पर पड़ती है। यह दृष्टिकोण ऐसा है जो अपने निर्धारित क्षेत्र के स्वार्थ साधन के लिए अन्य सभी क्षेत्रों का विनाश करने में उसे जरा भी हिचक नहीं होती। सारे उपद्रवों, झगड़ों की जड़ यही साम्प्रदायिकता है।

आज हिन्दू मुस्लिम द्वेष के रूप से यह साम्प्रदायिकता पैशाचिक नृत्य कर रही है। पर अन्य क्षेत्र भी उससे अछूते नहीं हैं। इस पिशाचिनी का दोष बेचारे धर्म के ऊपर थोपना ऐसा ही है जैसा कोई हत्यारी डाकिन-किसी कबूतर के घोंसले के बगल में बैठकर मनुष्यों के बालकों को खा जाय परन्तु देखने वाले यह अनुमान लगावें कि इस कबूतर ने इतने बच्चों को उदरस्थ कर लिया है। धर्म को नष्ट करने से साम्प्रदायिकता नष्ट न होगी वरन् वह एक मात्र बन्धन भी टूट जायेगा जो इस विध्वंसक दृष्टि के लिए प्रतिबन्ध साबित होता है।

कोई चोर कम्बल ओढ़े हुए चोरी करने जाता है तो क्या यह मान लिया जाय कि चोरी का दोष कम्बल पर है। वेश्याएं भी दूध पीती हैं-क्या इसलिए यह मान लिया जाय कि दूध पीने वाले व्यभिचारी होते हैं? लड़ने वाले लोग दो धर्मों को मानते हैं, और उनका नाम लेकर लड़ते हैं तो यह नहीं कहा जा सकता कि लड़ाई का कारण धर्म है। खेतों के किसी कारण से दो किसानों में लड़ाई हो जाती है तो क्या उसका दोष खेती को देना उचित होगा? क्या उस लड़ाई के कारण खेती को नष्ट कर दिया जाय? क्या चोर कम्बल ओढ़ते हैं इसलिए कम्बलों को मिटा दिया जाय? पढ़े लिखे आदमी भी बदमाश पाये जाते हैं क्या इसी कारण शिक्षा को नष्ट कर डाला जाय? जब इन्हें नष्ट करना उचित नहीं तो यह भी उचित न होगा कि धर्म के बहाने साम्प्रदायिक हरकतें करने वालों की क्रियाओं का उत्तरदायित्व धर्म पर थोप दिया जाय।

धर्म मानव प्राणी की आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों में सुख शान्ति की स्थापना करता है, जब कि साम्प्रदायिकता द्वेष और हिंसा का बीजारोपण करती है। हमें धर्म और साम्प्रदायिकता के बीच रहने वाले भारी अन्तर को पहचानना चाहिए और धर्म की महत्ता और साम्प्रदायिकता की तुच्छता को भली प्रकार समझना चाहिए।

महात्मा गाँधी इस युग के सबसे बड़े धर्मात्मा थे, उनका जीवन धार्मिक आदर्शों से ओत-प्रोत था, धर्म में उनकी अगाध आस्था थी-पर साम्प्रदायिकता के, विरुद्ध वे सदैव लड़ते रहे और उसी लड़ाई में वे एक बहादुर सेनापति की तरह जूझ गये। आइए, हम भी उनके पदचिह्नों पर चलें, अपने महान धर्म के लिए, संगठन, प्रचार, परिमार्जन और उन्नयन के लिए, प्राणप्रण से प्रयत्न करें। पर, साथ ही सत्यानाशी साम्प्रदायिकता के विरुद्ध खम ठोक कर कर्तव्यनिष्ठ सिपाही की तरह लड़ते भी रहें।


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