आध्यात्मिकता की कसौटी

March 1948

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(श्री दौलतराम कटरहा, बी. ए. दमोह)

मानव-समाज की नींव सहयोग है। आज का मानव-जीवन आवश्यकताओं की दृष्टि से इतना विस्तृत है कि कोई भी व्यक्ति अपनी समस्त आवश्यकताओं को स्वयं ही पूर्ण नहीं कर सकता, अतः उसे दूसरों से सहायता लेनी ही पड़ती है। मनुष्य को इस सहायता को प्राप्त करने के बदले दूसरों को भी कुछ सहायता देनी पड़ती है और इस तरह समाज के सभी मनुष्यों के कार्य चलते हैं। जो व्यक्ति समाज की सेवा सहायता लेते समय तो खुशी-खुशी उसे स्वीकार लेता है किन्तु उसके बदले में दूसरों की सेवा करने में वैसा ही उत्साह नहीं दिखाता वह व्यक्ति निम्न कोटि का व्यक्ति है। जो केवल दूसरों की सेवा-सहायता लेना ही लेना जानता है वह मुफ्तखोर और चोर है, किन्तु जो व्यक्ति समाज से जितना लेता है उससे कई गुना समाज को दे देता है वह व्यक्ति महान है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही आगे चलकर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करते-करते इतना उच्च हो सकता है कि कभी वह समाज से कुछ भी न ले पर फिर भी समाज की सेवा करता रहे और इस तरह निष्काम कर्म करने की सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति को पहुँच जाय।

कोई भी मनुष्य इसलिए बड़ा नहीं कि वह अधिक से अधिक साँसारिक पदार्थों का उपभोग कर सकता है। अधिक से अधिक ऐश्वर्य जुटाने वाले तो बहुधा लुटेरे होते हैं। वे संसार को जितना देते हैं उससे कहीं अधिक उससे छीन लेते हैं। मनुष्य तो केवल अपनी सुन्दर भावनाओं के कारण ही बड़ा गिना जाता है।

यदि एक भंगी समाज सेवा की दृष्टि से अपना कार्य करता होवे और मुझमें किसी तरह बुरी भली वस्तु देकर समाज से पैसा ले लेने की ही भावना होवे तो वह भंगी मुझसे श्रेष्ठ होगा। दो व्यक्ति समाज की एक से उत्साह से सेवा करें, एक बदले में प्राप्त करने की भावना से और दूसरा निस्वार्थ या निष्काम भावना से तो निष्काम भावना से कार्य करने वाला व्यक्ति सकाम कर्म करने वाले व्यक्ति से श्रेष्ठ होगा।

हम मनुष्य की सेवा-शक्ति को दृष्टि में रखकर ही उसे महान नहीं कह सकते। उसकी महानता की कसौटी यह नहीं हो सकती। क्योंकि इसके द्वारा परखें जाने पर तो अनेकों पशु-पक्षी भी उसकी श्रेणी में आ विराजेंगे। सभी जानते हैं कि चूहे, शृंगाल, सुअर, कुत्ते, कौए, गिद्ध आदि पशु-पक्षी भी सड़े गले और मल-मूत्रादि पदार्थों को खाकर वातावरण को शुद्ध कर देते हैं। यह भी प्रकट है कि सड़े-गले पदार्थों को शीघ्र ही हटा देने का जो उत्साह इन पशु-पक्षियों में पाया जाता है वह प्रायः हम मनुष्य कहलाने वालों में भी नहीं पाया जाता अतएव न तो कर्म का परिणाम और न कर्मोत्साह ही महानता की कसौटी हो सकता है। अतः मनुष्य की परख उसके कार्य के परिमाण से नहीं किन्तु उस कार्य को प्रेरणा देने वाली भावनाओं से की जानी चाहिए। जैसा मनुष्य का भाव हो उसे वैसा ही समझना चाहिए। भगवान कृष्ण ने भी तो कहा है कि “सभी मनुष्यों की भावना (श्रद्धा) उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है।”

बहुधा यह देखा जाता है कि लोग निष्काम भावना से कार्य करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं क्योंकि सकाम कर्म करते समय उन्हें अपनी इच्छाओं द्वारा जो प्रेरणा मिलती है वह निष्काम कर्म करते समय नहीं मिलती। अतः निष्काम कर्म करने के स्थान में सकाम कर्म करते समय मनुष्य अधिक उत्साह से कार्य कर सकता है। इस सम्बन्ध में भगवान कृष्ण का मत है कि कर्म की प्रेरणा कभी न्यून न होनी चाहिए अर्थात् करणीय कर्मों के प्रति मनुष्य का उत्साह कदापि कम न होना चाहिए। पहले हमें करणीय कर्मों अर्थात् कर्त्तव्य कर्मों में अच्छी तरह प्रवृत्त होना सीखना है भले ही इसके लिए हमें सकाम भावनाओं की प्रेरणा की आवश्यकता हो। पश्चात् किसी भी कर्त्तव्य कर्म को पूर्ण लगन और तल्लीनता से करते हुए यदि हम उस कर्त्तव्य कर्म की प्रेरणार्थक भावनाओं का शोधन एवं संस्कार कर सकते हैं तो ठीक है अन्यथा हमें सकाम भाव से ही करणीय कर्म करते जाना चाहिए। अर्थात् यदि उस कर्त्तव्य कार्य को निष्काम भाव से करने के प्रयत्न में हमारे कार्य में शिथिलता आ जाती है तो हमें निष्काम कर्म के स्थान में उस कार्य को पूर्ववत् सकाम भावना से ही करना चाहिए।

भगवान कृष्ण कहते हैं ‘हे भारत, कर्म में आसक्त हुए अज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अचानक हुआ विद्वान भी लोक-शिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे। ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किन्तु स्वयं भी योग-युक्त होकर सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे’ -गीता 3.25.26। इससे स्पष्ट है कि भगवान यह नहीं चाहते कि हम लोग लोक-हितकारी कर्मों को किसी प्रकार त्याग दें। उनकी आज्ञा है कि प्रत्येक अनासक्त पुरुष को उसी उत्साह और तीव्रता से कार्य करना चाहिए जिस तीव्रता से कि मोह-लोभ, ममता की प्रेरणा से अज्ञानी जन कार्य किया करते हैं। वह कभी उन्हें ऐसा उपदेश न दे कि उन्हें कर्त्तव्य-कर्मों के प्रति आलस्य उत्पन्न होवे।


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