हम इसलिए नहीं जन्मे कि.....

March 1948

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(श्री स्वामी सत्यदेवजी परिव्राजक)

क्या ईश्वर का यह अभिप्राय था कि मनुष्य जगह-जगह मारा फिरे ? क्या उसका यह मतलब था कि मनुष्य भूख से तड़प तड़प कर प्राण दे? यदि उसकी यही इच्छा थी, और इसीलिए उसने मनुष्य को उत्पन्न किया है तो हम ऐसे परमात्मा को दयालु नहीं कह सकते। यदि परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन को एक बोझा ही बनाया है जिसके लिए वह दुनिया में भटकता फिरे, कहीं बैठने को ठिकाना न मिले, जहाँ जाय वहीं गालियाँ खाये, जिधर नजर उठावे उधर दुख ही दुख दिखाई दे, यदि इसीलिए परमात्मा ने मनुष्य को पैदा किया है तो उसका सृष्टि रचना व्यर्थ हो जाता है। क्योंकि अधिकाँश मनुष्यों के लिए यह संसार नरक के समान है, जिस नरक में वे केवल दुख उठाने के लिये आते हैं।

क्या परमात्मा ने मनुष्य समाज को इसलिये संगठित किया है कि यहाँ पर मुट्ठी भर आदमी सारी मनुष्य समाज पर राज्य करें ? या उसका कुछ मनुष्यों के साथ अधिक प्रेम है कि उसने उनको दूसरों के ऊपर-अधिकाँश लोगों के ऊपर प्रभुत्व दे दिया है ? यदि उसकी यही इच्छा है कि मनुष्य समाज के थोड़े लोग आनन्द उठावें और बाकी दासत्व में पड़े सड़ जावें, तो हम ऐसे ईश्वर को न्यायकारी नहीं मानते।

यदि परमात्मा ने मनुष्य को इसलिए बनाया है कि उसे मेहनत मजदूरी करने पर अन्न न मिले, काम करने की योग्यता होने पर भी मजदूरी के लिए जूतियाँ चटखानी पड़ें। यदि ईश्वर ने मनुष्य को इसलिए पैदा किया है कि वह गर्मियों के दिनों में जेठ आषाढ़ की धूप सहता हुआ अनाज पैदा करे और अन्त में उसकी कमाई को निखट्टू लोग आनन्द से उड़ावें। यदि यही उद्देश्य उस कर्त्ता का मनुष्य को पैदा करने से है तो हम ऐसे प्रभु को दूर से नमस्कार करते हैं।

यदि ईश्वर ने मनुष्य को इसलिए उत्पन्न किया है कि वह ईमानदारी से जीवन व्यतीत करता हुआ भी धूर्तों के हाथ से कष्ट उठावे, अदालतों में उसके साथ बेइन्साफियाँ हों, कुकर्मी मनुष्य उसके ऊपर आधिपत्य करें। यदि परमेश्वर ने मनुष्य को इसलिए पैदा किया है कि वह अपने बाल बच्चों का सन्ताप उठावे, उसकी स्त्री को रहने के लिये जगह न मिले, उसको धार्मिक जीवन व्यतीत करने का अवसर भी प्राप्त न हो-यदि ईश्वर ने मनुष्य को इसलिए पैदा किया है तो हम उस ब्रह्म को निर्दोष मानने के लिये तैयार नहीं हैं।

कई एक हमारे महात्मा मित्र हमको यह कहेंगे- ‘जो कुछ कष्ट मनुष्य को होता है वह उसके पूर्व जन्म के कर्मों का फल है, जो कुछ मनुष्य दुख उठाता है वह उसका अपना अपराध है। समाज में जो थोड़े मनुष्य अधिकाँश सभ्यों पर प्रभुत्व करते हैं उन्होंने पिछले जन्मों में अच्छे-अच्छे पुण्य किये हैं’ जो उपदेशक हमको ऐसे ऐसे उपदेश देते हैं उनको मनुष्य समाज के अन्यायों का अनुभवजन्य ज्ञान नहीं। यदि परमात्मा दोषों से रहित है और उसकी बुद्धि में कोई भी त्रुटि नहीं हो वह कभी भी पुष्ट और निरोग शरीर मनुष्यों को भूख से मरने के लिये पैदा न करता। जन्म से अन्धे मनुष्य को देखकर हम यह कह सकते हैं कि यह उसके पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। परन्तु एक बच्चा जो सुन्दर आरोग्य शरीर लेकर संसार में आता है और बड़ा होकर अपने खाने के लिए भी अन्न नहीं पाता तो इस अवस्था में यह कहना कि यह उसके पूर्व कर्मों का फल है केवल परमात्मा पर लांछन लगाना है। आरोग्य बालक का पैदा होना ही इस बात को सिद्ध करता है कि उसके लिये सब प्रकार के अवसर अपनी ईश्वरप्रदत्त शक्तियों के विकास के लिए मिलने चाहिये। यदि ऐसा नहीं होता तो इसके अर्थ यह हैं कि जिनके हाथों में मनुष्य समाज की बागडोर है, वे उस आरोग्य बालक के हिस्से को आप उड़ा जाते हैं और उसके साथ घोरतर अन्याय करते हैं।

आवागमन के सिद्धान्त की इस प्रकार झूठी व्याख्या करना और सन्मुख होते हुए अन्याय को देखकर पूर्व जन्म का ढकोसला जड़ देना- केवल ऐसे ही महात्माओं का काम है जिनकी सर्व साधारण के साथ कोई भी सहानुभूति नहीं, जो केवल अपने ही स्वार्थ को देखते हैं।

मनुष्य समाज के दुखी सभ्यों ! आओ हम आपके दुखों की सच्ची व्यवस्था करके दिखलावें। आपके लिये यह नया सन्देशा है। मत समझो कि आपके दुख दूर नहीं हो सकते। जो कष्ट आप उठा रहे हैं वह आपके पूर्व जन्मों के कर्मों का अपराध नहीं और न आपके भाग्य ही का इसमें कोई दोष है। परमात्मा तो न्यायकारी है। उन्होंने आपको कष्ट सहने के लिए पैदा नहीं किया। उठो ! प्रसन्न हो जाओ, ईश्वरप्रदत्त सन्देशा सुनो। यदि आपने इस पर पूर्णतया विचार किया और इसके अनुसार अपना जीवन बनाया तो यह संसार आपके लिए सुखदायी हो जावेगा। अन्यायी और धूर्त लोगों का नाश होगा और मनुष्य समाज के सब सभ्य मित्रता पूर्वक रहने लगेंगे।


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